इज़्ज़त पाने के लिए इज़्ज़त देना भी पड़ता हैं….. – रश्मि प्रकाश 

“देखा तुमने सुनंदा की बहू यहाँ से शहर क्या गई पूरी शहरी हो गई है …यहाँ थी तो साड़ी पहनती थी और सिर से पल्लू जरा ना सरकता था चार महीने में देखो क्या रंग रूप बदल गए उसके।” सुनंदा जी की पडोसन मालती ने एक पड़ोसन विमला से कहा

“जाने दे ना … तुम्हें क्या पड़ी…उसकी बहू है वो जाने… तू तो अपनी बहू को देख ।” विमला कह कर बात ख़त्म कर अपने घर चली गई 

अपने घर की बालकनी में खड़ी सुनंदा जी के कानों में भी इन दोनों की बातचीत पड़ गई थी पर वो कुछ नहीं बोली।

राशि इन सब बातों से अनभिज्ञ थी शादी के बाद जब तक यहाँ रही वो शौक़ से साड़ी पहनती थी नई होने की वजह से पल्लू भी लेने से परहेज़ नहीं कर रही थी पर जब वो पति के साथ रहने बाहर दूसरे शहर गई तो उधर अपने हिसाब से रहने लगी थी… कुछ दिनों के लिए सुनंदा जी भी साथ में रहने गई थी बहू को सलवार सूट में देख रखी थी उपर से उनकी बड़ी बहू भी सलवार सूट पहनती ही थी तो उन्हेंकभी कोई आपत्ति भी नहीं हो रही थी इसलिए जब राशि निकुंज के साथ होली पर घर आई तो सुनंदा जी ने कह दिया था,“ बहू तुम्हें यहाँ भी सूट पहनना हो तो पहन सकती हो… तुम्हारी जेठानी भी तो पहनती ही है ।”

राशि जब आई तो सूट पहन कर ही आ गई जिसे मालती और विमला ने देखा और बातें बनाने लगी।

होली वाले दिन शाम के वक़्त सब एक दूसरे के घर गुलाल खेलने जाते थे ये लोग भी सुनंदा जी के घर आई।

जेठानी और राशि दोनों मेहमानों के स्वागत में लगी थी 




विमला,मालती के साथ और भी महिलाएँ आई थी राशि सबको बारी बारी से प्रणाम कर नाश्ता देने लगी ।

“ क्या बात है राशि बहू निकुंज के साथ शहर जाते तुम तो बहुत बदल गई ।” मालती से रहा ना गया तो उसने कह दिया 

“ हाँ हम भी देख रहे यहाँ से जितनी बहुएँ बाहर जाती सबके हवा पानी बदल जाते….।” कुछ और महिलाओं ने भी कहना शुरू कर दिया 

” राशि तो यहाँ साड़ी ही पहनना चाहती थी पर जब मेरी बड़ी बहू सूट पहन सकती तो छोटी बहू क्यों नहीं … मेरे लिए तो दोनों बराबरहै…वैसे कपड़े बदल जाने से स्वभाव थोड़ी ना बदल गया है…. ये पहले भी तुम सब का आदर करती थी आज भी कर रही है ,उसमें कोई बदलाव आया है तो बोलो?” सुनंदा जी बस इतना कह चुप हो गई उसके बाद कोई कुछ ना बोला

सब खा पीकर कर एक दूसरे को गुलाल लगा कर निकल गई..

जाते जाते मालती ने भी सुनंदा जी को अपने घर आने का न्योता दिया….

“विमला  मालती के घर जब जाएगी मुझे भी लेती चलना।” सुनंदा जी ने कहा विमला से धीरे से कहा 

कुछ देर बाद सुनंदा जी विमला के साथ मालती के घर पहुँची …

“ बहू जरा गुझिया ,दही बड़े और लस्सी लेकर तो आ … देख तो सही कौन आई है ।” मालती जी ने बैठे बैठे कहा 




“ आपकी सहेलियाँ ही तो आई है…. आप दे दो उनको जो देना है…. मैं काम कर के थक गई हूँ… बस सुबह से हुक्म दिए जा रही है ।” मालती जी की बहू ने बुदबुदाते हुए रसोई में से कहा कहा 

मालती जी दोनों के सामने अपना सा मुँह लेकर रह गई धीरे से उठी और रसोई की ओर बढ़ने लगी 

“ अरे रहने दे मालती … तुने आने को कहा था इसलिए आ गई मैं … अब अपनी अच्छी सहेलियों के घर भी त्योहार के दिन ना आऊँगी क्या…चल तू बहू को आराम करने दे…. हमारे घर तो सुबह से ही लोगों का आना जाना लगा है… दोनों बहुओं को कहा भी जाकर थोड़ाआराम कर ले तो कह रही है साल में एक बार तो त्योहार आता है… इसमें ही तो सबसे मिलना जुलना होता है ।” व्यंग्य कसते हुए पर मज़ाक़ में सुनंदा जी ने भी आज अपनी बात कह दी

“ सही है सुनंदा तेरी बहुओं का कोई मुक़ाबला नहीं… मैं भी ना जाने कहाँ से दिमाग़ में बिठा रखी थी कि कि साड़ी पहन , सिर पर पल्लू रखने से ही बहू संस्कारी होती हैं…एक मेरी बहू है सिर से पल्लू सरकने ना देती इतने पिन मार कर रखती हैं…पर देख लो तुम लोग आई तो सामने भी ना आई… और तुम्हारी बहुओं ने कितने अच्छे से सब सँभाल रखा है ।” मालती जी अपनी बहू के रवैये से आहत हो बोली

“ मालती ये संस्कार उन्हें हम नहीं देते ये तो वो अपने मायके से लेकर आती है… हाँ समय के साथ हमारे संग रहते रहते वो हमारे हिसाब से चलने लगती हैं….. मेरा तो मानना है अगर वो सबकी इज़्ज़त कर रही है….तो हमें और क्या चाहिए…वैसे तेरी बहू का कोई दोष नहीं है… बस तुम दूसरों की बुराई कम कर अपनी बहू की तारीफ़ ज़्यादा करोगी तो तुम्हारी बहू भी तुम्हें इज़्ज़त देंगी ।” सुनंदा जी कह कर वहाँ से निकल गई




“ सही कहा तुने सुनंदा… मालती की हमेशा सबकी बुराई करने की आदत ने ही उसे बहू की नज़रों में ऐसा बना दिया… जब हम ही सामनेवाले की इज़्ज़त नहीं करेंगे तो अपने बच्चों को कैसे कह सकते हैं इज़्ज़त करने को।” विमला ने कहा और दोनों अपने अपने घर चल दी।

दोस्तों हम अक्सर औरतों की मंडली में गपशप के बीच बुराई करना भी अपना हुनर समझते हैं… पर ये कई बार हमारे उपर ही उलटा परजाता … इसलिए सोच समझ कर बातें करें।

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धन्यवाद 

रश्मि प्रकाश 

( तीसरी रचना)

मौलिक रचना

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