” इज्जत औलाद की ” – सीमा वर्मा

उनका पूरा नाम ‘श्रीमती सुनंदा’ है।

लेकिन पूरे मुहल्ले में वे ‘छोटी मां ‘ के नाम से जानी जाती हैं।

उनकी उम्र करीब साठ की हो गई है। अपने शरीर की उन्होंने कभी परवाह नहीं की है। दूर- दराज में भी कभी गमीं हो या खुशी का मौका हो और वहां छोटी मां हाजिर न हो। कोई भी पूजा- पाठ ,शादी- ब्याह  हो बिना उनके कहां ठनती। कोई 

पर कोई क्या जानें कि अपने- आप में अम्मा कितनी आतंकित रहती हैं।

मां का दिल है ना … !

उनके अकेलेपन का अपना संसार है। अपने अकेलेपन के अनेक सहारे उन्होंने ढूंढ़ रखे हैं। मुहल्ले का कोई ऐसा बच्चा नहीं है जिसे आते- जाते छोटी मां के प्रसाद नहीं मिले हों। कोई ऐसी बहू या बेटी नहीं है जिसने तीज त्योहार में छोटी मां की दी हुई चूड़ियां ना पहनी हों।

कहने का तात्पर्य यह कि खुशदिल, खुशमिजाज छोटी मां हर दिल अजीज हैं

पति को गुजरे चार बरस हो गए हैं। उन दोनों का एक बेटा और एक बेटी है। बेटी की शादी पहले ही कर दी थी। जब उसने ग्रैजुएट कर के पी. जी में नाम ही लिखवाया था। यों कि उसकी आगे पढ़ने की इच्छा थी पर पति की सोच थी ,




” हमारा एक ही तो बेटा है , अगर इसे अफसर नहीं बनाया तो मेरा कमाना- धमाना सब व्यर्थ है।

उसे खूब पढ़ाया – लिखाया जिसके लिए घर की जमा- पूंजी की भी कोई कद्र नहीं की ।

लेकिन युनिवर्सिटी की तड़क- भड़क और शहरी चमक- दमक ने उस नामुराद को उन दोनों से काट कर रख दिया।

फासले बढ़ते गए और एक दिन उड़ती- उड़ती खबर आई कि उसने वहीं शहर में साथ पढ़ने वाली लड़की से शादी कर ली।

बेचारी सुनंदा का दिल घायल हो गया। बेटे ने  पूरे मुहल्ले में मुंह दिखाने लायक शक्ल नहीं छोड़ी।

लेकिन फिर यह सोच कर मन को ढांढ़स दिया कि खोए हुए दिन लौटेंगे। वाकई! अच्छे दिन आए भी। 

 बेटा बहू को ले कर घर आया । खूब साज- संभार कर सुनंदा ने बहू का स्वागत किया।

लेकिन बहू को शायद यह सब पसंद नहीं आया। वे दोनों दो- चार दिन रह कर ही वापस लौट गए। सुनंदा देखती ही रह गई।

कहां सुनंदा ने सोचा था बहू आएगी तो मुहल्ले में उनकी इज्जत बढ़ेगी सुनंदा अपने सारे शौक पूरे करेगी।

लेकिन उसके दिल के अरमान दिल में ही रह गए और उनकी खुशियों कारवां मात्र  उनके तन- मन को रिझा कर , उन्हें सूना कर के वापस लौट गया।




खैर …

फिर किसी तरह अपने मन को सुला कर उन्होंने वही पहले वाली दिनचर्या चालू कर दी।

वही कामकाज करके दिन भर खुद को व्यस्त रखती हैं।

अगर किसी ने मोहवश टोक दिया ,

” छोटी मां क्यों इतना खट रही हैं बेटा हर महीने पांच हजार रुपया भेजता तो है। अब आप आराम करिए “

तब छोटी मां का जबाव ,

” धत् पगले!  आराम करके शरीर बर्बाद कर लूं काम करने से भी कोई मरता है ? “

छोटी मां खुर- खुर हंस देती हैं। वे कभी बीमार पड़ती हैं तो उनका काम मुहल्ले वाले हाथों – हाथ उठा लेते हैं।

मजाल है कि कोई उनके दरवाजे से निराश लौट जाएं।

छोटी मां ने बैंक में बेटे के नाम से एक खाता खुलवा रखा है।

पिता के मरने के बाद से बेटा हर महीने उन्हें पांच हजार रुपए भेजता है।

पर छोटी मां के अकेले पन को वे रुपये कितना बांट पाते हैं यह कोई उनके– दिल से पूछे।




उनका अंतर्मन कभी उन पैसों को स्वीकार नहीं करता है।

उनका खर्च तो मकान के किराए से ही चल जाता है। उन पैसों को वे खाते में जमा कर दिया करती हैं।

लेकिन … मुहल्ले में उनकी औलाद की ‘इज़्जत – मर्यादा ‘ बची रहे बस इसी लिए वे पैसे पकड़ लिया करती है।

यह उनके स्त्री- मन की कितनी बड़ी दुविधा है यह ईश्वर ही जानते हैं।

सीमा वर्मा / नोएडा

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