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इतना भी बूढ़ा नहीं हुआ हूं कि दोनों का बोझ ना उठा सकूं… – सीमा रस्तोगी 

“अरे मिस्टर नरेश आप यहां? आप भी क्या शॉपिंग करने के लिए आएं हैं” नरेश जी को देखकर प्रवीन जी एकदम चहकते हुए बोले.

“नहीं प्रवीन जी! मैं इस स्टोर में लिखा-पढ़ी का और समय पड़ने पर और भी कुछ काम देख लेता हूं” नरेश जी बिना किसी झिझक के बोले.

“क्या? लेकिन आपको रिटायरमेंट के बाद क्या काम करने की जरूरत? आपका तो बेटा-बहु दोनों ही इंजीनियर हैं ना? प्रवीन जी अपनी जिज्ञासा ना रोक पाए.

“प्रवीन जी! बेटा-बहु तो इंजीनियर हैं, लेकिन मैं अपनी खुद्दारी नहीं छोड़ना चाहता और मैं ये भी बिल्कुल नहीं चाहता कि मुझे और मेरी पत्नी को बुढ़ापे में किसी के आगे हाथ फैलाना पड़े, फिर चाहें वो अपनी औलाद ही क्यों ना हो, प्रवीन जी! मैं अभी तक स्वाभिमान के साथ जीता आया हूँ और अंत तक स्वाभिमान के साथ ही जीना चाहता हूं? इतना कहकर नरेश जी और ग्राहक को सामान दिखाने लगे.

ये हैं नरेश जी… जीवन-पर्यंत नौकरी की… जो कमाया वो बेटियों और बेटे की पढ़ाई-लिखाई और शादी ब्याह में खर्च कर दिया… दोनों बेटियां अपनी ससुराल में खुश हैं और बेटा-बहु साथ में ही रहते.. अपनी उनकी नौकरी में पेंशन तो थी नहीं… सोचा था कि बेटे को तो पढ़ा-लिखाकर इंजीनियर बना ही दिया है, तो क्या जरूरत चिंता करने की… लेकिन रिटायरमेंट के थोड़े दिनों बाद ही बहु के साथ-साथ बेटे की भी नजरें बदलने लगीं..

वो लोग प्रत्यक्ष रूप से तो किसी खर्चे के लिए नहीं मना करते, लेकिन गाहे-बगाहे कटाक्ष जरूर मार देते…

“मम्मी! अब दीदी लोगों की शादी के बहुत दिन व्यतीत हो गए, क्या जरूरी है कि जब वो लोग घर आएं तो उनको उपहार और शगुन देकर ही विदा किया जाए” सुमित्रा (नरेश जी की पत्नी) अगर बेटियों को कुछ देना चाहतीं, तो कुंदन और जूही सुमित्रा के हाथों पर रोक लगा देते.. जबकि दोनों बेटियां जब भी मायके आतीं, तो छोटे भाई-भाभी के लिए खूब उपहार लातीं.

सुमित्रा अगर अपने लिए साड़ी-कपड़ा या फिर श्रृंगार का कुछ सामान खरीदना चाहती तो जूही तुरंत टोक देती “अब आपको कौन फैशन दिखाना है जो आप हर सामान की मांग करतीं रहतीं हैं, बुढ़ापे में ज्यादा बनने-ठनने की क्या जरूरत?  सुमित्रा आंखों में आंसूं लिए चुपचाप अपने कमरे में चली आती और उसका चेहरा देखकर नरेश जी अपने आपको असहाय सा महसूस करने लगते…



अब तो मोबाइल के रिचार्ज के लिए भी बेटा-बहु चोरी-छुपे बड़बड़ाने लगे थे “क्या जरूरत है इतना ज्यादा मोबाइल चलाने की, थोड़े दिन बिना मोबाइल के भी रहना सीखिए” सुमित्रा का बेटियों से बात किए बिना जी नहीं मानता, इसलिए मोबाइल का रिचार्ज भी जरुरी था…

“सुमित्रा! तुम सही कहतीं थीं कि थोड़ा-थोड़ा अपने बुढ़ापे के लिए बचाकर रखो, लेकिन मैं तुम्हारी बात हंसीं में उड़ा देता था, कि मेरा बेटा खुद ही इंजीनियर बन गया है, मुझको किस बात की फिक्र, मैंने तुम्हारी इच्छाओं को भी बच्चों की खुशियों के आगे हमेशा मारा… शायद मैं गलत था, लेकिन अब नहीं, मैं अपने लिए काम ढूंढूंगा और तुमको जीवन की अब हर खुशी दूंगां, रिटायर हो गया तो क्या? मेरी बाजुओं में अभी इतनी ताकत है कि तुम्हारा और अपना बोझ उठा सकतां हूं” हमेशा खुद्दारी से जीने वाले नरेश जी के चेहरे पर अचानक चमक सी आ गई.

“आप तो कहते थे कि रिटायरमेंट के बाद आराम की जिंदगी व्यतीत करूंगां? सुमित्रा लाचारी से बोली.

“सुमित्रा! कभी-कभी परिस्थितियां व्यक्ति के वश में नहीं रहतीं”

आखिरकार नरेश जी ने घर से थोड़ी दूर, एक स्टोर में अपने लिए काम तलाश ही लिया…

“क्या जरूरत है आपको काम करने की, क्या रोटी-पानी नहीं मिल रहा आपको? कुंदन चिनकता हुआ बोला.

“बेटा! मैंने सोचा कि समय बढ़िया सा व्यतीत हो जाएगा और चार पैसे भी हाथ में आ जाएंगे” नहीं कहना चाहते थे कि रोटी-पानी के अलावा और भी चार जरूरत होतीं हैं व्यक्ति की बेटा दुनिया में…

और नरेश जी ने संकल्प ले लिया कि ना वो और ना उनकी पत्नी जब-तक हाथ-पांव चल रहें हैं तब तक किसी के आगे भी हाथ फैलाएंगे, आगे प्रभु की इच्छा…

नरेश जी अब खुशी-खुशी अपनी और सुमित्रा की जरूरतों को पूरा करने लगे…

ये कहानी स्वरचित है

मौलिक है

आपका मेरी कहानी के विषय में क्या कहना है क्या बेटे-बहु का व्यवहार उचित था, क्या नरेश जी का निर्णय उचित है.. लाइक और कमेंट्स के द्वारा अवश्य अवगत करवाइएगा और मुझको फॉलो भी कीजिएगा।

धन्यवाद आपका🙏😀

#स्वाभिमान 

आपकी सखी

सीमा रस्तोगी 

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