हम और हमारी हिंदी – आरती झा आद्या

हाई आंटी.. लतिका के बेटे सौरभ ने सीमा के घर में दाखिल होते हुए कहा। वही सीमा के बेटा नकुल ने लतिका के पैर छूते हुए प्रणाम किया।

अरे अरे आजकल ये सब कौन करता है… हम अभी बूढ़े थोड़े न हुए हैं… क्यूं सीमा…नकुल के झुकने पर हड़बड़ाती हुई लतिका ने कहा।

नकुल बेटा ये मेरी दोस्त सीमा और ये है उनका बेटा सौरभ।सौरभ को अपने कमरे में ले जाओ बेटा। आओ लतिका बैठो… लतिका के साथ बैठक में आती हुई सीमा ने कहा।

मम्मा मम्मा…कितनी देर रुकना है यहां… थोड़ी देर में ही सौरभ ऊबा हुआ सा आकर अंग्रेजी में पूछता है।

क्यूं क्या हुआ बेटे… लतिका भी बेटे से प्रतिप्रश्न में अंग्रेजी में बोलती है।

सौरभ सिर्फ हिंदी में बात करता है, मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा…सौरभ ने कहा।

क्यूं बेटा आपको हिंदी समझ नहीं आती क्या… सीमा प्यार से सौरभ से पूछती है।

आजकल कौन हिंदी बोलता है सीमा… मैंने तो इसे हिंदी ना बोलने के लिए इंस्ट्रशन दिया हुआ है।

मतलब तुमने बच्चे से अपनी मां से ज्यादा पड़ोसी की मां को पसंद करने कहा है… सीमा ने हंसते हुए कहा।

ऐसा क्यूं कहूंगी मैं….क्या मतलब है तुम्हारा सीमा… लतिका की आवाज़ में आवेश का पुट था।




एक मिनट…नकुल बेटा…सौरभ के साथ बगीचे में खेल लो बेटा और सौरभ से अंग्रेजी में बात करना…नकुल के पास आने पर सीमा कहती है।

नकुल को इंग्लिश आती है क्या, फिर ये हिंदी क्यूं बोल रहा है.. लतिका पूछती है।

उसे हिंदी में अपनी भावनाएं व्यक्त करना ज्यादा सुविधाजनक लगता है…सीमा कहती है।

अरे देखो बातों ही बातों में मैं भूल ही गई थी…क्या कहना चाहती थी तुम सीमा… पड़ोसी की मां कुछ इस तरह से…चाय की सिप से गला तर करती हुई लतिका अचानक पूछती है।

मम्मा मम्मा … आ…अभी सीमा कुछ कहती उससे पहले ही सौरभ के चीखने की आवाज आई।

क्या हुआ बेटा…लतिका दौड़ती हुई बगीचे में जाकर नीचे गिरे हुए सौरभ उठाती हुई पूछती है।

मैं और नकुल दौड़ रहे थे, पता नहीं कैसे मेरा पैर मुड़ गया और मैं गिर गया…रोते हुए सौरभ ने कहा।

कोई बात नहीं बेटा..अभी दवा लगा देंगे…ठीक हो जाएगा… चलो अन्दर चलते हैं…लतिका के साथ साथ सीमा भी सौरभ को सहारा दे कमरे में ले आकर दवा लगा आराम करने कहती है।

आंटी…सौरभ तो कह रहा था वो हिंदी बिल्कुल नहीं बोल सकता…पर अभी तो वो हिंदी ही बोल रहा था…नकुल आश्चर्यचकित सा पूछता है।

वो मम्मा ने ही कहा है, कहीं भी जाओ तो कहो हिंदी नही आती है, इससे इंप्रेशन बनता है…सौरभ ने मासूमियत से कहा।




लतिका तुम पूछ रही थी ना पड़ोसी की मां वाली बात, वो यही थी कि जब हम मुसीबत में होते हैं या अपने स्वाभाविक भाव में होते हैं तो अपनी मां याद आती है, पड़ोसी की मां नहीं। दिखावे का आंचल बच्चा कब तक पकड़ सकेगा। उसे तो अपनी मां का आंचल चाहिए होता है, जिसमें बच्चे गंदे हाथ भी पोछ लेते हैं और बहती नाक भी, ऐसा स्वाभाविक रिश्ता होता है मां और बच्चे का। वही रिश्ता हिंदी का और हमारा है। इसका साक्षात उदाहरण अभी की घटना और तुमदोनो मां बेटे हो…अभी तुमदोनो मां बेटे को अंग्रेजी की गिटिर पिटिर याद भी नहीं आई, दिखावा किस चिड़िया का नाम है,ये भी नहीं याद था ना। याद आई तो अपनी मां ही याद आई और वो है हमारी हिंदी। जितनी भाषा सीख सको , उतना अच्छा। लेकिन अपनी भाषा भूलने का दिखावा निहायत ही गलत बात है। बहुत हो गया मेरा ज्ञान देना…चलो सौरभ को आराम करने दो…सीमा खड़ी होती हुई कहती है।

हां तुम सही कह रही हो सीमा। इस दिखावे की होड़ में मां बच्चे का स्वाभाविक रिश्ता भी खत्म होता जा रहा है। इस भाषाई खेल में लोग अपने इमोशन सही से दिखा नहीं पाते और ये कम्युनिकेशन गैप न पटने वाला गैप बनता जाता है। आइंदा मैं इस बात का ख्याल रखूंगी … जहां आवश्यकता ना हो वहां सिर्फ हम और हमारी हिंदी…हंसते हुए लतिका ने कहा।

#दिखावा 

आरती झा आद्या

दिल्ली

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