हमारा धर्म और संस्कार यही कहते है। – ऋचा उनियाल बोंठीयाल

“ये क्या है? इतना बेस्वाद खाना बनाया है। थू…. छी!!! नमक इतना भर कर डाला है सब्ज़ी में।  बुड्ढी होने को आई हो और अभी तक खाना बनाने का सलीका नहीं सीखी हो । “

गुस्से से रमेश ने खाने की थाली ज़मीन पर पटक दी, और लड़खड़ाता हुआ खटिया पर बेसुध सा लुढ़क गया। ये रमा के घर का लगभग हर रोज़ का किस्सा था। शादी के 28 वर्ष बीत गए थे ये सब झेलते झेलते।

रमा ने चुप चाप फैला हुआ खाना समेटा और कमरे से बाहर आकर ज़मीन पर बिछी चटाई पर लेट गई। लेटे लेटे वो न जाने कब अतीत की यादों में खो गई। संपन्न परिवार की इकलौती लाड़ली बेटी रमा ने भाग कर शादी की थी रमेश से , आहत मायके वालों ने सभी नाते तोड़ दिए थे उससे। उस वक्त तो रमा पर प्यार का बुखार चढ़ा था। वो अल्हड़ उमर ही ऐसी थी। रमेश के आगे उसे कुछ दिखाई ही नहीं देता था। मां बाप तो उसे अपने दुश्मन नज़र आते थे। उसकी सहेलियों ने भी कितना समझाया था उसे कि रमेश अच्छा लड़का नहीं है। लेकिन उसने किसी की एक ना सुनी, और एक रात अपनी मां के सभी गहने चुरा कर भाग आई रमेश के साथ, अपने शहर से दूर ,एक नई दुनिया बसाने। शुरु के कुछ दिन तो प्यार की खुमारी में कैसे कट गए पता ही ना चला। रमा को लगता था दुनियां की सारी खुशियां उसी की झोली में समा गई हैं। लेकिन धीरे धीरे रमेश का असली चेहरा उसके सामने आने लगा। रोज़ पीना, जुआं खेलना ,आवारागर्दी करना यही दिनचर्या थी रमेश की।

मां के गहने बेच कर जो पैसे मिले थे वो भी अब खत्म होने को आए थे। उसने रमेश से कुछ काम ढूंढने को कहा। इस बात से चिढ़ कर उस दिन रमेश ने रमा पर पहली बार हाथ उठाया था,



” अब तू मुझे बताएगी मुझे क्या करना है और क्या नहीं? जब मेरा मन करेगा मैं तब काम करूंगा, समझी? आइंदा मुझ पर हुकुम चलाने की कोशिश मत करना। वरना इस से भी बुरी तरह पिटेगी मुझसे।”

रमेश का ये रूप देख, रमा की रूह कांप गई। उसने तो सपने में भी  नहीं सोचा था कि ,जो रमेश उस पर अपनी जान लुटाता था। उसके लिऐ चांद तारे तोड़ लाने की बातें किया करता था, यूं उस पर हाथ भी उठा सकता है!!

प्यार की खुमारी के बादल छंट चुके थे। अब तो असल जिंदगी से मुकाबला था। घर तो किसी तरह चलाना ही था। रमेश से शादी के चक्कर में वो अपनी पढ़ाई भी अधूरी ही छोड़ आई थी, तो अच्छी नौकरी तो मिलना संभव नहीं था। बड़ी मुश्किल से एक छोटी सी फैक्ट्री में उसे काम मिल गया। पैसे कम मिलते थे पर किसी तरह जद्दोजहद के बीच रमा घर चलाने लगी। नाज़ों से पली बढ़ी रमा को अब घर चलाने के लिए कमरतोड़ मेहनत करनी पड़ती। उधर रमेश का रवईया दिन प्रति दिन और ख़राब होता जा रहा था। उसकी शराब पीने की लत अब ज्यादा बढ़ गई थी। वो शराब के लिए रमा से पैसे मांगता और  रमा के मना करने पर उसे बुरी तरह पीटता। आलम ये था कि शादी के कुछ ही माह के भीतर ही रमा को अपनी ज़िंदगी से नफ़रत सी हो गई थी। कहते है ना आहत और दुखी मन आखिर अपनो की ही स्नेहिल छांव तलाशता है। बड़ी हिम्मत कर , रमा ने एक दिन अपने घर लैंडलाइन पर फोन लगाया। फोन उसके पिता ने उठाया। रमा की आवाज़ सुनते ही वो बरस पड़े ” तेरी हिम्मत कैसे हुई इधर फोन लगाने की?? बेशरम!! खबरदार जो दोबारा यहां फ़ोन लगाया तो। मर चुकी है तू हमारे लिए,समझी? “



कहकर फोन पटक दिया। जो पिता कभी उस पर अपनी जान लुटाते थे , उनसे ऐसे वचन सुन रमा का दिल छलनी हो गया। वो फूट फूट कर रोने लगी। थोड़ी देर बाद खुद को संयत कर उसने अपनी सहेली को फोन लगाया । वहां से उसे पता चला कि रमा के जाने का गम रमा की मां सह नहीं पाई और कुछ ही दिनों में परलोक सिधार गई। ये सुनते ही रमा के हाथ से फ़ोन छूट गया और वो वहीं गश खाकर गिर पड़ी।आंख खुली तो उसने रमेश को अपने पास पाया , नशे में धुत्त वो रमा को होश में लाने के लिए उसके गाल थपथपा रहा था। होश आते ही रमेश से आ रही शराब की बू  के भपके से रमा को उबकाई आ गई। उसका मन घृणा से भर उठा।  उसका जी किया कि वो रमेश का मुंह नोच ले। गुस्से में उसने रमेश को ज़ोर का धक्का दिया। नशे में धुत्त वो वहीं लड़खड़ा कर गिर पड़ा। थोड़ी देर रमा बेसुध पड़े रमेश को ताकती रही। फिर कुछ सोच दृढ़ निश्चय के साथ उठी। बस बहुत हुआ, अब सहा नहीं जाता आज तो वो अपनी ईह लीला समाप्त कर ही लेगी। मतलब ही क्या है ऐसी ज़िंदगी जीने का!

अभी वो कुछ कदम चली ही थी कि फिर बेहोश हो गिर पड़ी । इस बार आंख खुली तो उसने खुद को अस्पताल में पाया। सामने रमेश अस्त व्यस्त हालत में खड़ा था और डॉक्टर से बात कर रहा था। रमेश को देखते ही रमा ने अपनी आंखे मूंद ली। वो उसका चेहरा तक नहीं देखना चाहती थी। तभी डॉक्टर के शब्द उसके कानों में गूंजे। वो रमेश से कह रहे थे,

” देखिए आपकी पत्नी शारीरिक रूप से बहुत कमज़ोर है। अब आपको इनका ज्यादा खयाल रखना होगा, वरना कमज़ोरी के कारण मां और बच्चे, दोनो को खतरा हो सकता है। “

“मां और बच्चे!! ” ये शब्द सुन रमा चौंक कर उठ बैठी।

” क्या मतलब मां और बच्चा?” रमा लगभग चीखते हुए बोली।

“अरे! आप ऐसे झटके से मत उठिए।”

डॉक्टर रमा से मुखातिब हुए।

” देखिए आप मां बनने वाली हैं और बहुत कमज़ोर हैं। अब आपको अपना बहुत खयाल रखना होगा। पौष्टिक आहार लीजिए और भरपूर आराम कीजिए। कुछ दवाइयां लिखी हैं वो समय पर लीजिएगा ओके!

ऑल दी बेस्ट!! “

दवाइयो का पर्चा रमेश को पकड़ाते हुए डॉक्टर अगले पेशेंट की ओर बढ़ गए। रमा जड़ सी वहां बैठी रह गईं। मां बनना किसी भी स्त्री के लिए वरदान से कम नहीं, फिर उसे ये ख़बर सुन ज़रा सी भी खुशी क्यों महसूस नहीं हो रही?? रमा गहरी सोच में डूबी हुई थी। तभी रमेश ने उसका हाथ थाम लिया , और चहकते हुए बोला



” रमा मैं बाप बनने वाला हूं , तू नहीं जानती मैं कितना खुश हूं। अब देखना मैं तेरा कितना अच्छे से खयाल रखता हूं। तेरी सब शिकायते मैं दूर कर दूंगा। आज से पीना बंद और एक अच्छी सी नौकरी ढूंढ काम धंधे पे लगता हूं।”

रमा हतप्रभ सी रमेश को देख रही थी। बच्चे की खबर सुन कर रमेश इस कदर खुश होगा रमा को यकीन ही नहीं हो रहा था। रमेश का यूं चहकना रमा का मन भिगो गया। उसे अपने अंधेरे से घिरे जीवन में अब आशा की एक किरण दिखाई देने लगी। बच्चे के जन्म तक रमेश ने रमा का खूब खयाल रखा। उसे सिर आंखो पर बिठा कर रखा। रमा जिस फैक्टरी में काम करती थी उसी फैक्टरी में रमेश भी काम करने लगा। रमा ने फिर से चहकना शुरू कर दिया था। किन्तु उसकी खुशी ज्यादा दिन न टिकी। जब रमा ने एक बेटी को जन्म दिया तो रमेश बुरी तरह तिलमिला गया। उसे दिलो जान से एक पुत्र की आस थी। आलम ये था कि उसने अपनी बेटी का मुंह तक देखने से इनकार कर दिया।

कहते हैं ना कुत्ते की पूंछ टेढ़ी की टेढ़ी ही रहती है।

रमेश ने फिर से जुआ खेलना, पीना शुरू कर दिया। इन्ही हरकतों की वजह से उसे नौकरी से भी निकाल दिया गया। रमा अन्दर से फिर टूट गई, पर अब उसे अपनी बेटी के लिए जीना था। उसकी अच्छी परवरिश ही रमा का एकमात्र लक्ष्य था।

रमा दिन रात मेहनत करती। अपनी दिधमुही बच्ची प्रिया को साथ ले ले कर डबल शिफ्ट्स भी करती।

समय अपनी गति से चलता रहा। प्रिया भी मां की स्नेहिल छांव में बढ़ने लगी। पिता का प्रेम उसे नसीब नहीं हुआ।

ना जाने क्यों और कैसे वो ज़रा सी बच्ची अपनी मां का दुख समझने लगी। ना कभी किसी चीज़ के लिए ज़िद करती और ना ही कोई सवाल या शिकायत। समय पंख लगा कर उड़ता रहा। रमा ने अपने बलबूते पर प्रिया को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलवाई। बिटिया भी मां की परछाई बनी रहती। अब दोनो एक दूसरे का सहारा थे। रमेश तो बस घर में नाम का सदस्य रह गया था। ये चीज़ उसे बड़ी अखरती। वो ये बात जान चुका था कि रमा और प्रिया , दोनों को ही उसकी अब कोई ज़रूरत नहीं। उसके रहने या ना रहने से, चीखने चिल्लाने से उन्हे अब कोई फ़र्क नहीं पड़ता। वो दोनों अब एक दूसरे के पूरक हैं। पहले तो वो रमा को कभी भी छोटी सी बात पर पीट दिया करता था , वो ऐसा कर अपना पौरुष का दंभ भरता, पर अब पी पी कर उसका शरीर, बहुत कमज़ोर हो चुका था हाथ उठाने की ताकत तो अब उसके शरीर में न बची थी, पर बात बात पर पी कर कलेश करना उसकी दिनचर्या का एक हिस्सा बना रहा। उसी से वो अपनी बची कुची मर्दानगी झाड़ता। पर अब प्रिया और रमा को इन सब बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता था। प्रिया मन लगा कर पढ़ती। कुछ बन कर,अपनी मां को एक बेहतर ज़िंदगी देना उसका एक मात्र लक्ष्य बन गया था। पढ़ाई पूरी कर वो सिविल सर्विसेज की तैयारी करने लगी। और आज उसी का परीक्षा परिणाम आना था।



“मां मां…… “

प्रिया की आवाज़ सुन रमा अतीत के खयालों से बाहर आ गई।

प्रिया खुशी से झूमती हुई मां से लिपट गई।

” मां तेरी बेटी आईएएस अधिकारी बन गई। मैरी 12th रैंक आई है।”

कहते हुए वो अपने मां की चरणों में झुक गई।

रमा ने उसे सीने से लगा लिया। दोनो की आंखो से अश्रु की अविरल धारा बहने लगी।

काफ़ी देर तक मां बेटी एक दूसरे से लिपटे रहे मानो एक दूसरे को मूक आश्वासन दे रहे हों कि, सब कष्ट दूर होने का समय आ गया है। हां अब अच्छे दिन शुरु हो गए हैं।

रमा ने फिर प्रिया का माथा चूम लिया। आंसू पोंछते हुए उस से कहा

“जा प्रिया अपने पापा के पैर भी छू कर उनका आशीर्वाद ले।”

प्रिया ये सुन अपनी मां से छटक कर दूर हो गई,  हतप्रभ सी उन्हें देखने लगी।

“कौन पापा मां?? वो इंसान जिसके स्नेहिल स्पर्श तो दूर प्यार भरे दो बोल के लिए मैं जीवन भर तरसती रही? जिसे मैंने जीवन भर नशे में धुत्त, गाली गलौच और तुम्हारी पिटाई करते हुए देखा है?? उस इन्सान का आशीर्वाद लेने के लिए कह रही हो तुम मुझे मां? कभी नहीं, हरगिज़ नहीं ।

वो अंदर पड़ा इन्सान मेरे लिए कोई मायने नहीं रखता। मेरी मां और पिता दोनों तुम ही हो।” प्रिया गुस्से से कांप रही थी।

रमा ने गुस्से से कांप रही प्रिया का कंधा मजबूती से पकड़ लिया।

“बेटा चाहे कुछ भी हो ,वो जैसे भी हो पर ये भी सच है कि वो तेरे पिता हैं, तेरे जन्मदाता ।इस शुभ दिन पर उनके पैर छू लेने से तू छोटी नहीं हो जाएगी बेटा। हमारा धर्म और संस्कार यही कहते हैं कि तुझे उनका आशीर्वाद लेना चाहिए ।” कहते हुए रमा ने उसे अंदर जाने का इशारा किया।

रमेश अंदर लेटा ये सब सुन रहा था। ग्लानि तो उसके मन में कहीं ना कहीं दबी हुई थी पर उसका अहम उसे ये मान ने नही देता था

कि वो कितना गलत है।

आज अपनी पत्नि की बात सुन उसका झूठा दंभ और ग्लानी अश्रु धारा बन उसकी आंखो से झर झर बहने लगे।

तभी अपने पैरों पर, प्रिया के हाथों का स्नेहिल स्पर्श रमेश के मन को अंदर तक भिगो गया, आज पहली बार रमेश ने अपना कांपता हुआ हाथ अपनी बिटिया के सिर पर रखा था। ये उसके जीवन की सबसे सुखद अनुभूति थी।

#संस्कार 

स्वरचित

ऋचा उनियाल बोंठीयाल।

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