हे मानुष!  – गीता वाधवानी

हे मानुष!  रुक, थोड़ा ठहर और सोच 

कहां भाग रहा है तू? 

क्यों भाग रहा है तू? 

जिंदगी की आपाधापी में 

क्या-क्या खो चुका है तू? 

और क्या कुछ पाया है तूने? 

रुक, थोड़ा ठहर और सोच 

मोबाइल हाथ में लेकर 

पूरी दुनिया से जुड़ने का दावा करता है तू 

पर अपनों से किए वादे भूल चुका है तू 

अपनी सेहत और उम्र खो चुका है तू 

अपना जमीर भी खो चुका है तू 

आज समय नहीं है तेरे पास अपनों के लिए 

कल समय होगा, पर अकेला होगा तू रोने के लिए 

आज दौलत और शोहरत के पीछे भाग रहा है तू 

कल जब आएगी मौत ,

दो पल जिंदगी के न खरीद पाएगा तू 

दौलत से”बहुत कुछ”खरीद पाएगा तू 

पर रिश्ते और सुख न खरीद पाएगा तू 

अपनी अंतरात्मा को बेचकर 

क्या चैन से जी पाएगा तू 

अपने दुष्कर्मों की सजा 

क्या किसी और को दिलवाएगा तू 

अपनों को पीछे छोड़ आया तू 

दुनिया की भीड़ में तन्हा रह गया तू 

फिर भी भाग रहा है तू 

क्यों भाग रहा है तू 

रुक, थोड़ा ठहर और सोच 

खुलकर सांस ले और अपनों के संग जीना सीख ले तू 

पल-पल अनमोल है मुस्कुराना सीख ले तू 

जीवन की जटिलताओं में जीना भूल गया है तू 

समय कम है जीना सीख ले तू 

मन से कभी बच्चा बन जा 

खिलखिलाना सीख ले तू 

कल की चिंता छोड़ 

आज को जीना सीख ले तू 

हे मानुष! रुक, थोड़ा ठहर और सोच।। 

स्वरचित मौलिक सर्वाधिकार सुरक्षित  

गीता वाधवानी दिल्ली

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