गुलाबी-स्कूटी – सीमा वर्मा

साथियों इतनी लम्बी जिन्दगी के न जाने कितनी खट्टी-मीठी यादें होगीं।

उनमे से एक जो मैं सुनाने जा रही हूँ वो आज भी मेरे दिल के बहुत करीब है।

ये कथा करीब २००२ में हमारे शहर की गली-मुहल्ले वाली संस्कृति से जुड़ी है। जहां आज भी विकास की हवा हौले-हौले ही बह रही है।

सब उसे ‘अजीब पागल’ लड़की या उस जैसियों के लिए हमारी तरफ जो एक शब्द बेहद प्रचलित है ” ख्वतुल हवाश ” कह कर बुलाने लग गए थे ।

मैं उसे बचपन से ही देखती आ रही थी।  मेरे घर के पास वाली गली में उसका साधारण सा घर था।

निम्न मध्य वर्गीय परिवार से थी वो लेकिन  साधारण नहीं थी।

बेहद आकर्षक तीखे नाक नयन नक्श वाली लम्बी- दुबली पतली पढाई में शुरू से ही मेधावी रह चुकी नमिता दसवीं में मेरी छात्रा रह चुकी थी।

उन दिनों मैं घर में ही ट्यूशन पढ़ाया करती थी।

भावुक तो वह थी ही दूसरे शुरु से ही उस पर समाज सेवा का भूत सवार था।

जब कभी वह फुर्सत में मेरे पास आती तब दुनिया-ज़हान की बातें करती रहती।

कभी अनाथालय खोलने की तो कभी मुफ्त  शिक्षा-निकेतन खोलने की इसी तरह रोज अलग;अलग विचारों से भरी हुई उत्साह से लवरेज रहती।

इसी नमिता ने ना जाने किस भावावेश भरे क्षणों में पास ही के मुहल्ले में रहने वाले रीतेश से उसके घरवालों की इच्छा के विरुद्ध जा कर उनदोनों ने भाग कर प्रेम विवाह कर लिया था।

यूं काफी मान मनौव्वल के बाद रीतेश के घर में उसका गृहप्रवेश तो हुआ था परन्तु दिल से स्वीकारोक्ति ?

शायद अन्त तक नहीं मिली पाई थी।

उसके ससुराल प्रवास के दौरान करीब दस बारह बर्षों तक मेरे उससे सम्बंध नहीं के बराबर रहे।

सच कहूँ तो मैं भी इस तरह के विवाह की पक्षधर नहीं थी।  एवं उन दोनों की इस बचकानी और नासमझी वाले गलत कदम उठा लेने से अंदर से मर्माहत् हो गई थी।


हां इधर – उधर से उसकी खैर खबर ले लिया करती थी।

कि वो अब दो प्यारे-प्यारे बच्चों की मां बन चुकी  है।

परन्तु उसके ससुराल वालों का खास कर उसकी सासुमाँ जो कभी मेरी सहेली भी रह चुकी थीं का उसके प्रति व्यवहार अभी भी वैसा ही अड़ियल था।

जिससे  सदा की हंसमुख नमिता अब  धीरे- धीरे आत्मोन्मुखी होती रही थी।

उसका असन्तोष कंही विद्रोह का रूप लेता जा रहा था।

एक गुलाबी रंग की स्कूटी भी उसके पास थी जिसे उसके अच्छे दिनों में रीतेश ने  उपहार में दिया था।

वो स्कूटी नमिता को जान से प्यारी थी। उसके अन्दर  की  छटपटाहट एवं घर से बाहर निकल कुछ कर गुजरने की ख्वाहिश दिनों दिन बढती जा रही थी ।

उन दिनों वो कभी-कभी मुझे फोन पर अपनी बद से बदहाल होती स्थिति से अवगत  किया करती थी। परंतु  मेरी भी अपनी सीमाएं थीं।


इधर  ससुराल वालों की दविश में उसके अपने बच्चे भी उससे विमुख होने लगे थे।

उसकी सासुमाँ के अनुसार ,

” बहू तो दूसरे घर की अर्थात बाहरी है लेकिन बच्चे ?

वो मेरे  खानदान के हैं “

लिहाजा नमिता  परेशान हो कर रीतेश की तरफ देखती लेकिन उसके भावशून्य निर्विकार चेहरे को पढ़ बदहवास हो जाती। शायद रीतेश भी ऊब चुका था उससे।

इसी स्थिति का फायदा उठाते हुए सासूमाँ ने उसे घर से बाहर निकालने की प्रक्रिया शुरु कर दी थी। उनकी इस नापाक साजिश में उनका औसत बुद्धि पुत्र रीतेश भी शामिल हो गया था।

इस क्रम में उसने  नमिता की जान से प्यारी स्कूटी  भी छीन ली थी।

जिस पर सवार हो वह गली मुहल्ले की सैर कर आया करती थी  घर के जहरीले  वातावरण से  दूर  मुक्त हवा  में  सांसें ले  पाती थी ।

 इस बीच  मेरा किसी कारण वश शहर छोड़ कर दिल्ली  जाना  हुआ जहां से फोन पर अक्सर उससे बातें होती रहती थी।

मैं बराबर बड़ी बहन की तरह उसे समझाने के प्रयास करती रहती। 

एवं विपरीत परिस्थितियों  में भी उसे  ऐडजस्ट करने को कहती रहती थी।

लेकिन शायद वह ज्यादा झेल नहीं पाई थी।

बाद के दिनों में उसके फोन आने बन्द हो गए थे। मैं भी अपने कार्यों में उलझ कर रह गई थी।

लेकिन नमिता की छवि अभी भी मेरे  दिमाग के किसी कोने में अंकित थी  ।

काफी वक्त गुजर चुका था कि एक  दिन अचानक से  फोन की घंटी बज उठी ।

पता नहीं क्यों जिसे सुन कर ही दिल भारी हो गया था  ।

नम्बर जाना पहचाना था  फोन उठाया ही था कि कट गया।,


इस तरह दो तीन बार कटने के बाद मैंने इधर से फोन लगाया बहुत देर के बाद चिरपरिचित बेहद कमजोर सी आवाज़  आई  “दीदी ” फिर  सिसकी और फोन कट गया ।

भारी मन से अपनी एक सहेली को फोन कर पूछने के उपरांत  जो बात पत  लगी  थी।  

वह  बेहद दुखद और निराशाजनक था ।

मेरी अनुपस्थिति में और उचित मार्गदर्शन के अभाव में लाचार नमिता ने घुटने टेक दिए थे  ।

ससुराल वालों की ड्योढ़ी पर बच्चों को छोड़ और अपने अच्छे दिनों में जोड़े गये थोड़े बहुत पैसे लेकर वह  घर से निकल गई थी ।

एवं अपने पुराने मुहल्ले में  ही  बने  रैन बसेरे के एक कमरे में  लोक लाज की परवाह न करती हुई फिर से गरीब बच्चों  को निःशुल्क पढाने लगी थी ।

उसके समाज सेवा  करने  की  जिद जो फिर से सर पर सवार हो गयी थी।

लेकिन मुख्यतः रीतेश के व्यवहार से विक्षुव्ध नमिता अन्दर तक मर्माहत हो चुकी थी। उसका स्वाभिमान उसे कचोट रहा था उस पर से बच्चों से दूरी आखिर  कब तक अपने आप को संभाल पाती ।

                           अक्सर  गली चौक के मुहाने पर वो अपने आप से प्रलाप करती देखी जाती। इधर ससुराल वालों ने भी उसे विक्षिप्त करार देंने में जरा सी भी कोताही नहीं बरती थी।

करीब दस-बारह महीने बाद मेरी वापसी    पुनः अपने शहर में हुई तो थी।

लेकिन तब तक तस्वीर पूरी की पूरी बदल चुकी थी ।

मैं हैरानी में उसे देखते हुऐ  हाथ मल रही थी ।


लम्बे घने बाल छोटे-छोटे कटे हुए बेतरतीबी से कंधे पर बिखरे थे । अजीब सी वेषभूषा में अपने में खोई कुछ  बुदबुदाती हुयी सूनी-सूनी आंखों में विचित्र  सी बेचैनी भरी हुई थी ।

करीब आने पर भी ना ‘नमस्ते ‘ना ‘अभिवादन’ जैसे पहचाना ही नहीं था नमिता ने मुझको मैं लगभग चिल्लाने को हो गई थी ।

पर फिर बहुत मुश्किल से अपने को संभालते  हुए बेहद प्यार से उसका नाम लेते हुए कंधे  पर हाथ  रखा , एक क्षण को उसकी आंखों में पहचान की एक रोशनी जुगनू की तरह जली और फिर बुझ गई  थी।  जमाने से बेपरवाह वो आगे बढ गई ।

मैं जहाँ खड़ी थी वहीं खड़ी  रह गई  ।

स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है की तर्ज पर उसकी सासूमां की कारगुजारियों की शिकार नमिता की अवस्था देख कर मेरा दिल दहल गया था।

पर मेरा आत्मविश्वास और प्रखर हो गया था।

मैं ने उसे अपने विश्वास में लेकर स्वस्थ  करने की ठान ली थी।

और नतीजे के फलस्वरूप कभी आपका मेरे शहर में आना हुआ तो खुद ही देख लेना। मैं मिलवाऊँगी आपको उससे।

मेरा निजी अनुभव

सीमा वर्मा

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