“अरे रूपा…. आजकल तेरे आंचल की छोड़ में क्या बांधे रहती है… रोज देखती हूं…..!”
“ओ मेमसाब… कुछ नहीं…. घर से आती है ना… जो मिल जाता…. नीचे गिर पड़ा…. सिक्का.. पैसा.. सब बांध लेती है…. कुछ नहीं इसमें… अभी तो ये… फालतू कागज बंधा है…!
” बोलकर आंचल की छोड़ को…. कमर के अंदर ठूंसते हुए रुपा सविता जी के घर से निकल गई….।
दो-चार दिन बाद अचानक सविता जी किचन में घुसी तो… चाय पत्ती का डब्बा खुला था… और रूपा अपना आंचल बांध रही थी… सविता जी दबे कदमों से उसके पास पहुंच गईं…. “यही है तुम्हारा कागज… क्या डाल रही थी आंचल में… दिखाओ…?”
वह आंचल खोंसते हुए बोली…” मेमसाब… मां कसम… आज पहली दफा कुछ हाथ लगाया है मैं… बिल्कुल घर में एकदम चाय पत्ती नहीं…. एकदम खतम था…. माफी कर दो..… अगले बार से नहीं होगा….!”
सविता जी उसे समझाते हुए बोलीं….” देख रूपा इस गृहस्थी को जमाने में… बहुत गिन गिन कर कदम रखा है हमने… ऐसे ही तू लूटने की कोशिश ना कर…. आइंदा देखा ना तो समझ लेना…!
रूपा गिड़गिड़ाते बोली….” मेमसाब… कभी नहीं होगा… फसट एंड लासट….!”
” ठीक है…. जा….!”
हफ्ते भर बाद… इसी तरह… डिटर्जेंट के डब्बे के पास रूपा पकड़ी गई…. अब तो सविता जी ने उसे जमकर फटकार लगाई… नौकरी से निकालने वाली ही थी… कि वह पैरों पर लोट गई….” नहीं मेमसाब नहीं…. ऐसा नहीं करने का दोबारा… नहीं करेगा… प्रॉमिस मेमसाब…. लासट चानस दे दो….पलीज मेमसाब….!
सविता जी का दिल पिघल गया…..!
उनके जाते ही रूपा… अपने ब्लाउज के दोनों कोनों में दबे… लहसुन की कलियों को दबाते…. मन ही मन बुदबुदाई….” बुड्ढी कहीं की… इतना संभाल कर निकालती मैं… पता नहीं…. कैसे टपक जाती… लगता है… दूसरा घर ढूंढना ही पड़ेगा….!
स्वलिखित
रश्मि झा मिश्रा