“मुझे नहीं जाना यहाँ से कहीं, मेरी डोली इसी घर में आई थी और मेरी अर्थी भी इसी घर से उठेगी|”
“लेकिन माँ, यहाँ रखा भी क्या है अब? आप क्यों जिद पर अड़ी हैं। अब तो पापा भी नहीं रहे। आपको यहाँ किसके सहारे छोड़ कर जाएं? क्यों आप हमें धर्म संकट में डाल रही हो?”
सुमित्रा जी जिद पर अड़ी थीं और उनका बेटा शुभम उन्हें मनाने की कोशिश कर रहा था। आखिर वो भी एक अच्छा बेटा था। अपने मन को दो भागों में कैसे बांटता!
“मैंने कभी तुम्हारे पैर नहीं बांधे शुभम, तुम जहाँ रहना चाहते हो अपने परिवार के साथ रहो। लेकिन मैं इस घर को छोड़ कर नहीं जाऊंगी।”
“लेकिन माँ आप भी तो मेरा परिवार हो। आप यहाँ अकेले तकलीफ में रहोगी तो मैं वहाँ कैसे खुश रह पाऊंगा। पापा के जाने का दुख मुझे भी तो है। हम दोनों एक दूसरे का दुख तो बांट सकते हैं ना।
बोलते हुए शुभम रूआंसा हुआ जा रहा था। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद शहर में अच्छे पद पर कार्यरत था। माता पिता ने कभी आगे बढ़ने से नहीं रोका। वो भी जानते थे कि इतना पढ़ने-लिखने के बाद उनका बेटा इस छोटे शहर में रहकर कभी अपने मुकाम को हासिल नहीं कर पाएगा इसलिए उन्होंने शुभम के शहर में बस जाने के फैसले को भी प्रोत्साहन दिया।
खुद वो बड़े शहर नहीं जाना चाहते थे क्योंकि इतने साल जिस छत के नीचे गुजारे, अपने खून पसीने से जिस घर की नींव सींची, जिस घर को मेहनत से संवारा और जिन दीवारों को प्यार से सजाया उसे छोड़कर जाने का मन हीं नहीं करता था।
लेकिन शुभम् भी क्या करता? जब तक पिता जी थे उनकी फिक्र नहीं थी, लेकिन अब पिताजी के जाने के बाद अपनी माँ को कैसे बिना किसी सहारे के यहाँ छोड़ जाएं? हालात ने उसे अजीब से दोराहे पर खड़ा कर दिया था। अपना काम छोड़कर यहाँ रह भी तो नहीं सकता था। हालात को देखते हुए शुभम की पत्नी कावेरी ने शुभम से कहा, “आप शहर चले जाईये, आपका काम भी जरूरी है। मैं बच्चों के साथ कुछ दिन माँ जी के साथ यहीं रूक जाती हूँ। उन्हें समझाने की कोशिश करूंगी।”
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“मुझे नहीं लगता माँ मानेंगी, वो बहुत जिद्दी हैं कावेरी।”
“अब इस समय हम उनपर ज्यादा दबाव भी नहीं डाल सकते ना। हो सकता है थोड़ा वक्त मिले तो उनका मन बदल जाए। छुट्टी वाले दिन आप यहाँ आ जाईयेगा, फिर बात करेंगे।”
कावेरी की बात से आश्वस्त होकर शुभम अपने शहर जाने के लिए भारी मन से निकल गया। उधर सुमित्रा जी अपने हीं ख्यालों में खोई रहतीं। इतने सालों से वो पति पत्नी ही एक दूसरे का सहारा थे। अब उनके बिना वो जी तो रही थीं लेकिन एक खालीपन के साथ। कावेरी बहुत कोशिश करती, उनका मन बहलाने की।
पोते पोती भी अपनी तोतली जुबान से दादी दादी करते आगे-पीछे घूमते रहते। घर में चहल पहल रहती तो सुमित्रा जी को भी अच्छा लगने लगा। अब वो सूना घर भी जैसे उनका आदि हो गया था। लेकिन शुभम हफ्ते में सिर्फ एक ही दिन आ पाता था। जब उसका जाने का समय आता तो कावेरी और बच्चों के चेहरे की रौनक भी अपने साथ ले जाता। कावेरी और बच्चों के दिल का हाल सुमित्रा जी से छिपा नहीं था।
जब इतनी उम्र होने के बाद भी पति का वियोग उन्हें इतना खल रहा था तो बेटे-बहु को कैसे वो अलग रहने के लिए मजबूर कर सकती थीं। वो कावेरी से कहतीं भी कि तुम शुभम के साथ चली जाओ लेकिन कावेरी नहीं मानती। महीना होने को आया था। एक दिन कावेरी ने कहा, “माँजी, इस बार बच्चों का स्कूल में एडमिशन करवाना है, इसलिए अब तो शहर जाना पड़ेगा। प्लीज, आप भी हमारे साथ चलिए ना। बच्चे भी कितना घुल मिल गए हैं आपके साथ। क्या अपने परिवार से ज्यादा आपको इन बेजान दीवारों से मोह है?”
लेकिन वो अभी भी तैयार नहीं थीं। मजबूरन कावेरी को भी वहाँ से जाना पड़ा। उनके जाने के बाद सुमित्रा जी को ऐसा लगता जैसे उस घर की दीवारें उन्हें खाने को आ रही हैं। सूना घर उन्हें काटने को दौड़ता था। उन्हें रह रहकर बच्चों की किलकारियां सुनाई देने लगीं। बहु का वो प्यार से मनुहार से खाना खिलाना और ख्याल रखना याद आने लगा। बार बार कावेरी की कही बात कि “परिवार से ज्यादा इन दीवारों से मोह है” कानों में गूंजने लगी। अब सच में उन्हें ये ईंट गारे से बनी दीवारें बेजान लगने लगीं।
अगले हफ्ते जब शुभम और कावेरी उनसे मिलने आए तो सुमित्रा जी ने अपना बैग भी पैक कर लिया। ये देखकर दोनों ने पूछा “माँ ये बैग?
“हाँ बेटा तुम लोग सही कह रहे थे। घर दीवार से नहीं, परिवार से बनता है। मैं भी अपने परिवार के साथ रहना चाहती हूँ।”
उनकी बात सुनकर शुभम और कावेरी बहुत खुश हुए और चल पड़ा एक पूरा परिवार अपने घर वापस।
#घर वापसी
सविता गोयल