गरीब घर की बेटी – हरीश पांडे 

मुन्नी का परिवार गाँव के सबसे गरीब परिवारों में से एक था। गाँव के बाकी लोगों के जीवन में समस्याएँ थीं पर गरीब परिवारों का समस्याओं के बीच कहीं खोया हुआ जीवन था। दूसरों के खेतों- घरों में काम करके अपनी गुज़र-बसर कर रहे थे। कभी भरपेट भी मिल जाता और कभी बेमियादी व्रत ही खत्म नहीं होते।

मुन्नी अपने माँ- बाप की इकलौती संतान थी। भाई बहन तो और भी थे उसके पर कोई साल भर से ज़्यादा बच नहीं पाया। बेचारी छोटी सी मुन्नी को भी ये तब पता चलता जब उसके भूख से बिलखनेे पर उसकी माँ उसे ताना देते हुए कहती कि,”ये  कलमुँही जाने क्यों बच गई मेरी जान खाने के लिए?”

धीरे धीरे मुन्नी बड़ी भी हो गयी और ऐसे तानों की उसे आदत भी हो गयी। 

वैसे गरीबों के पास कोई अपना शब्दकोश तो नहीं होता, मगर फिर भी अगर होता तो उसमें ‘बचपन’ नाम का कोई शब्द नहीं होता।

ऐसा ही हाल कुछ मुन्नी का भी था। माँ बाप घर से बाहर काम करते तो वो घर संभालती। खाना बनाने को कुछ होता तो चूल्हा चौका भी करती। शुरू शुरू में माँ बाप ने उसे आंगनबाड़ी में भी डाल दिया था। इसी बहाने उसे भी एक वक्त का खाना नसीब हो जाता और कभी कभार घर वालों को भी।

फिर आय के लिए घरवालों ने उसे भी काम पर लगा दिया। दो जून की रोटी के लिए तीन लोग जी तोड़ मशक्कत करते। मुन्नी जैसे जैसे बड़ी होती गयी उसके रूप में और काम करने के ढंग में और निखार आता गया। हर काम को इतनी निपुणता से करती कि किसी को कुछ बोलने की जरूरत ही न पड़ती। गरीब थी किंतु काफ़ी गुणी भी थी। 

किसी परिचित ने ही उसे गाँव के एक सेठ के बंगले मे  काम पर लगवा दिया। उसकी ईमानदारी और कार्यकुशलता को देख उसको वेतन भी ठीकठाक मिलने लगा। अब जब लगा कि घर के हालात थोड़े सुधरेंगे तो तभी एक नई विपदा आन पड़ी।




बंगले में ही नौकरी करने वाले गार्ड का दिल मुन्नी पर आ गया। उसने बेझिझक अपने दिल की बात मुन्नी को बताई और शादी करने का प्रस्ताव रखा। मुन्नी जिसने गरीबी कुछ ज्यादा ही करीब से देखी थी, अपनी मेहनत के बूते अपने माँ बाप को इस अभिशाप से मुक्त करना चाहती थी। शादी, इश्क़, मोहब्बत इन लफ़्ज़ों से उसका दूर तक कोई वास्ता न था। बिना किसी संकोच के उसने अपना जवाब न में ही दिया। गार्ड ने कई और विफल प्रयास किये और एक दिन प्रलोभन देते हुए यह भी कहा कि अगर तुम अपने माँ बाप के डर से राज़ी नही हो तो भाग कर शादी कर लेते हैं। 

परंतु जिसने होश सम्भालने से पहले ही जिम्मेदारियाँ संभाल ली हो, वो कभी जिंदगी के मैदान से पीठ दिखा के नही भागते। मुन्नी अपने फ़ैसले पर अडिग थी और फलस्वरूप गार्ड ने निराशा हाथ लगने पर उसपर झूठा चोरी का आरोप और उसके चरित्र पर निर्लज्जता का आरोप मढ़कर सेठ से शिकायत कर दी। हालाँकि उसके खिलाफ ऐसा कोई सबूत मिला नहीं पर मुन्नी को एक बात बहुत अच्छे से समझ में आ गयी कि गरीबी और गलत अवधारणा का परस्पर कोई गहरा सम्बन्ध है। चाहे आप दोषी न भी हों पर फिर भी बहुत आराम से कई बार शक की उंगली आप पर ही उठेगी और लोग आपको  लगभग दोषी की निगाहों से ही देखेंगे।

मुन्नी गरीब जरूर थी पर उससे कहीं अधिक खुद्दार थी। सेठ को उसके काम करने पर कोई आपत्ति नहीं थी परंतु मुन्नी ने खुद ही काम छोड़ दिया। उसने असल बात किसी को नहीं बताई और अब घर पर ही रहने लगी।

बेवजह बदनामी के चर्चे आम थे और अब घरवाले भी ताने मारने लगे थे।




यूँही एक दिन मुन्नी की शादी के लिए एक रिश्ता आया। मुन्नी अचरज में थी कि एक बदनाम गरीब को अपनाने में कौन दिलचस्पी ले सकता है। हालाँकि अभी वो बालिग भी नहीं थी पर ये मापदंड गरीबों पर लागू नहीं होते। फिर एक दिन आदमी जो कि मुन्नी की आयु से लगभग दुगना था, उनके घर आया। मुन्नी ने छुपके बातें सुनी तो पता चला कि इसी आदमी से उसकी शादी तय हो रही है। उसका एक 5 साल का बेटा भी था और पत्नी कुछ एकाध साल पहले चल बसी थी। घर मे और कोई नहीं था। वो किसी फैक्ट्री में काम करता था और ठीक ठाक कमा लेता था। वो मुन्नी के घरवालों को 50000 रुपये भी देने को तैयार था। आखिरी व्यक्तव्य सुनकर मुन्नी के घरवाले शादी के लिए राज़ी हो गए।

मुन्नी की राय नहीं मांगी गई। पर अगर माँगी जाती तो वो भी हाँ में ही उत्तर देती। अंतर बस ये होता कि उसे ये तसल्ली थी कि उसके माँ बाप अब अच्छे से गुजर बसर कर सकेंगे।

ख़ैर, शादी के बाद मुन्नी और 5 वर्षीय अज्जू में काफी अच्छी दोस्ती हो गई। अज्जू के पिता से वो थोड़ा संकुचित ही रहती पर वे उसे किसी चीज़ की कमीं न होने देते। उन्हें खुशी इस बात की थी अज्जू मुन्नी के साथ खुश रहता और अच्छे से घुल मिल गया था। मुन्नी ने भी घर की रंगत बिल्कुल बदल डाली थी। मुन्नी को लगता कि उसे सब कुछ ज्यादा और बिन माँगे ही मिल रहा है और इसलिए वो हर चीज़ को सहेज के रखती। देखकर लगता था कि वहाँ कोई बहुत ही समृद्ध और खुशहाल परिवार रहता है।

अज्जू के बचपन के साथ साथ ही मुन्नी अपना बचपन भी जीने लगी थी। उसके बेहिसाब खिलौने और बेपरवाह शरारतें, मुन्नी को हमेशा ही व्यस्त रखते। 

पढ़ाई में भी वो दोनों अब भागीदार बन जाते। मुन्नी ने भी आंगनबाड़ी में थोड़ा बहुत ही सीखा था इसलिए अज्जू के साथ वो भी अब पढ़ाई लिखाई करती।

 एक दिन ऐसे ही मुन्नी ने अज्जू के हिंदी उच्चारण का इम्तेहान लेने के लिए उसे अखबार पढ़ने को कहा। दो तीन सुर्खियां पढ़ते पढ़ते अज्जू ने एक और सुर्खी पढ़ी। मुन्नी को वो कुछ अटपटी सी लगी तो डाँटते हुए अज्जू को दोबारा सही से पढ़ने को कहा।

अज्जू ने फिर वही पढ़ा तो इस बार मुन्नी ने मोर्चा खुद संभाला और पढ़ने लगी। लिखा था ,”घरवालों ने नहीं की 1लाख के लहंगे की ज़िद पूरी, तो लड़की ने शादी से पहले की खुदकुशी।।।”

मासूम मुन्नी ये समझ पाने में असमर्थ थी कि इसमें खुदकुशी करने जैसा क्या कारण था। उसने अपने मस्तिष्क पर जोर डालकर याद करने की कोशिश भी की पर उसे ये याद नही आ रहा था कि उसने कब आखिरी बार ज़िद की थी। आखिर उसने कभी ज़िद की भी थी या नही, उसे ये भी याद नही आ रहा था। यादों के नाम पर उसके ज़हन में सिर्फ काम, ज़िम्मेदारियाँ और उनके बीच एक वक्त की रोटी के लिए होने वाली जद्दोजहद ही स्थापित थी।

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