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गाँव का योगी जोगड़ा-दूर गाँव का सिद्ध – जयसिंह भारद्वाज

चौबीस वर्षीय मनोज दो साल बाद गाँव लौटा है। होली के त्योहार का समय है। देखा कि उसके पिताजी साइकिल लेकर बाजार सामान लेने के लिए जा रहे हैं तो उसने पूछा, “पिताजी, मैं बाजार चला जाऊँ क्या सामान लेने के लिए?”

पिताजी ने मुस्कुराते हुए कहा, “क्या तुम सामान ले सकोगे बाज़ार से?”

“पिताजी, बचपन में आपके साथ और बाद में अकेले भी बाज़ार जाकर सामान  लाता ही रहा हूँ।”

“नहीं… मेरा आशय है कि शहर में मॉल व सुपर बाज़ारों की खरीददारी के कारण अब तो तुम्हें गाँव के बाजार से खरीद करने की आदत छूट गयी होगी।”

“यही तो देखना है मुझे कि क्या गाँव की बाज़ार करने में मैं झिझक रहा हूँ और इसी बहाने कुछ पूर्व परिचितों से मेल मिलाप भी सम्भव हो जाएगा। लाइये दीजिये साइकिल मुझे और समान की लिस्ट भी।” कह कर मनोज ने साइकिल का हैंडल पकड़ लिया।

“लो, जाओ बाज़ार किन्तु किनारे किनारे ही जाना क्योंकि अब सड़क सिक्स लेन हो चुकी है और भारी वाहनों का यातायात बहुत बढ़ गया है। हैंडल में टँगे झोले में ही सामान की लिस्ट पड़ी है।” पिताजी ने हैंडल छोड़ते हुए कहा।

“ठीक है पिताजी।” कहकर मनोज ने पैडल में पैर रखा और साइकिल पर चढ़ कर कुछ दूर तक डगमगाते हुए चला फिर सम्भल कर आगे बढ़ गया। पिताजी दूर तक उसे जाते हुए देखते रहे।

दो गाँवों के मध्य यह बाज़ार लगती है। दोनों गाँव एक ही ग्रामपंचायत का भाग हैं। त्योहार से पहले की अंतिम बाज़ार होने के कारण चहल पहल अधिक है आज। सब्जी की दुकानों में अपेक्षाकृत अधिक ही भीड़ है। वह भी एक किनारे खड़े होकर दुकान से एक दो लोगों के कम होने की प्रतीक्षा करने लगा।

इधर उधर देखते हुए उसने पाया कि माथे पे तिलक, पीला कुर्ता और सफेद धोती पहने एक तेजस्वी युवक हाथ में एक थैला लिए हुए जिस दुकान के सामने से निकलता, दुकानदार बड़े सम्मान से उसे प्रणाम करता और कोई दो आलू, कोई दो टमाटर, कोई धनिये के दो डंठल, कोई कुछ मिर्च और कोई दो परवल आदि उसके थैले में डाल दे रहा है। जब वह उस दुकान के सामने आया जहाँ मनोज खड़ा था तो दुकानदार उसे देखते ही हाथ जोड़कर प्रणाम किया और एक गोभी उठाकर उसके थैले में डालकर विनम्रता से हाथ जोड़ दिए। आशीर्वाद देता हुआ वह युवक आगे बढ़ गया।

अपनी बारी आने पर जब मनोज सब्जी ले चुका तो पैसे देते हुए उसने दुकानदार से उस तिलकधारी युवक के विषय में जानना चाहा।

दुकानदार ने कहा, “अरे! आप नहीं जानते इन्हें भइया! ये अपने प्राचीन शिव मंदिर के पुजारी जी हैं। बड़े विद्वान हैं। काशी से संस्कृत में एम ए किये हैं और आचार्य की डिग्री भी है इनके पास। प्रयागराज के एक बड़े पब्लिक स्कूल में संस्कृत-हिंदी के अध्यापक थे ये। पिछले साल मन्दिर के बूढ़े पुजारी जी की मृत्यु पर ये आये थे तब पता चला कि ये उनके बेटे हैं। मुखिया जी व पंच लोगों ने इनसे अनुनय किया कि वे ही अब मन्दिर के पूजा पाठ का कार्यभार सम्भालें। हम सभी के अनुरोध और अपने पिताजी के वर्षों के कार्यस्थल रहे मन्दिर के आकर्षण से विवश होकर इन्होंने स्वीकृति दे दी। अब ये नौकरी छोड़कर सपत्नीक यहीं मन्दिर परिसर में बने भवन में रहने लगे हैं। पुजारी जी के खर्च के लिए हम सभी ने सहमति बनाई है कि सप्ताह में दो दिन लगने वाले बाज़ार में सभी दुकानदार इन्हें बिना माँगे यथासाध्य कुछ न कुछ दे देगा। जिस वस्तु की आवश्यकता नहीं होती है ये स्वयं ही मना कर देते हैं। इस प्रकार सब्जी, राशन, तेल-मसाले, वस्त्र, बिछावन-चादर आदि के साथ साथ बाइक की छोटी मोटी मरम्मत व सिलाई आदि भी निःशुल्क सम्पन्न कर दी जाती है। लोगों के यहाँ पूजा-पाठ, हवन, भागवत आदि से जो आय होती है वह उनकी अन्य आवश्यकताओं को पूरा कर देती है। मन्दिर की दानपेटी वर्ष में एकबार मुखिया जी व अन्य पंचों के सामने खोली जाती है। इसमें से प्राप्त राशि का एक चौथाई भाग पुजारी जी को और शेष से मन्दिर की मरम्मत, सजावट व मेले में लगने वाले तम्बू आदि में व्यय किया जाता है। हम सभी को कोई भार महसूस भी नहीं होता और पुजारी जी को भी परेशानी नहीं होती है। सभी खुश हैं। इस सेवा के बदले हम सभी को हर रविवार की सन्ध्याबेला में आध्यात्मिक कथा कहानियाँ व नैतिक आचरण का ज्ञान मिलता है। बच्चों में अच्छा प्रभाव दिखने लगा है भइया। इनकी पत्नी भी पढ़ी लिखी हैं। गाँव की लड़कियाँ उनसे बारहवीं तक कि कक्षाओं के ट्यूशन पढ़ने जाती हैं। इससे भी कुछ आय हो जाती है उनकी।”





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इतना सब बताते हुए दुकानदारअपने ग्राहकों को निबटाता भी जा रहा था।

घर आकर मनोज ने जब पिताजी से यह प्रकरण साझा किया तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, “बेटा, मैं भी पंचों में से एक हूँ। यह सब हम सभी की सहमति से ही हो रहा है। पुजारी जी बहुत गुणी व्यक्ति हैं। गाँव का वातावरण अच्छा हो रहा है। चोरी और उठाईगिरी नहीं हो रही है अब। थाने व कचेहरी के चक्कर भी लगने बंद हो गए हैं। बच्चे तम्बाकू, मद्यपान और धूम्रपान से विरत हो रहे हैं। हाँ, पान मसाला खाना अभी नहीं छूट रहा है। आशा है कि इसमें भी कमी आ जायेगी। मैं स्वयं अब बीड़ी नहीं पीता लेकिन कभी कभी पान अवश्य खा लेता हूँ।” कह कर वे ठठाकर हँस पड़े।

मनोज सोचने लगा कि यदि एक सड़ी हुई मछली पूरे जलाशय के जल को दूषित कर सकती है तो एक जड़ी उसी जल को प्रदूषण से बचा भी सकती है। और वह जड़ी है सम्यक प्रयास। दृढ़ इच्छाशक्ति से किया गया कोई भी प्रयास विफल नहीं होता। धर्मकर्म से सम्बंधित शुद्ध व सरल व्यक्ति की सहायता करनी ही चाहिए हमें। ढोंगी बाबाओं के चरणों में हम अगणित धनराशि चढा आते हैं किंतु घर में आये पुरोहित को एक सौ एक रुपये देने में भी हम खीझते और दुःखी हो उठते हैं। दुःखद!

मनोज ने संध्याबेला में मन्दिर जाकर पुजारी जी से मिलने और प्रातः घर में सुन्दरकाण्ड का पाठ करवाने का मन बना लिया।

(नाथ सम्प्रदाय में आस्था रखने के कारण बड़ी बड़ी दाढ़ी-मूँछ व लम्बे बालों वाले सपेरे हमारे बचपन में गाँव आकर साँप-बिच्छू आदि दिखाया करते थे जिन्हें हम ‘जोगड़ा’ कहते थे। कहानी के शीर्षक का आशय है कि हम स्थानीय सिद्ध पुरुष को सम्मान नहीं देते जबकि दूर के ढोंगी व्यक्ति को भगवान मान लेते हैं।)

                  ।।इति।।

स्वरचित: ©जयसिंह भारद्वाज, फतेहपुर (उ.प्र.)

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