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फुलवा – अनुराधा श्रीवास्तव “अंतरा “

’’फुलवा, अरी हो फुलवा। कहाॅं मर गयी, जब जरूरत होती है तो इस लड़की का कहीं पता नहीं चलता है। खेल रही होगी कहीं लड़कों के साथ कंचा, गोटी। आने दो, मार मार कर चमड़ी ना उधेड़ दी तो मेरा भी नाम कमली नहीं।’’ कमली बड़बड़ाती जा रही थी और घर का काम समेटती जा रही थी, उसे खेतों पर काम करने भी जाना है वरना ठाकुर नाराज हो जायेंगे। 

’’ अरे क्यों चिल्लाती है, आ जायेगी। अभी बच्ची ही तो है, अभी नहीं खेलेगी तो कब खेलेगी।’’ फुलवा के बापू ने फुलवा का पक्ष लेते हुये कमली को समझाने का प्रयास किया। 

’’तुम तो रहने ही दो, तेरह की होने को है, ब्याह की उम्र आ रही है और तुम्हे अभी बच्ची ही लगती है। फुलवा की सहेली चम्पा का तो अगले महीने ब्याह होने भी जा रहा है और तुम तो कोई सुध ही नहीं लेते।’’

’’कर देंगे ब्याह भी, इतनी जल्दी काहे की है। सब कुयें में कूदेंगे तो क्या हम भी कूद जायें। अब जमाना बदल रहा है। हमारी फुलवा को पढ़ने का शौक हैं, हम उसे पढ़ायेंगे।’’फुलवा के बापू ने बड़े गर्व के साथ अपना फैसला कमली को सुना दिया। 

’’फुलवा के बापू, तुम सठिया गये हो क्या? ये उॅंचे उॅंचे हवाई किले मत बनाओ। यहाॅं खाने को फांके पड़े हैं और तुम्हे अपनी बिटिया को पढ़ाना है।’’ कमली की बातें सुनकर फुलवा का बापू बदरू चुप हो गया। सच ही तो कह रही थी कमली। भले ही बदरू अपनी बेटी से कितना ही प्यार करता हो लेकिन जानता था कि उसके पास इतना धन नहीं है कि वो अपनी बेटी को पढ़ा सके या किसी उॅंचे घराने में उसे ब्याह सके।  

फुलवा एक छोटे से गांव के एक गरीब परिवार की लड़की थी। कमली और बदरू उसके माता पिता थे। सौभाग्य यह था कि फुलवा अपने माता पिता की एकमात्र सन्तान थी इसलिये माता पिता के प्यार की में कोई कमी नहीं रही। यह भगवान की ही इच्छा थी कि कमली और बदरू की कोई और संतान नहीं हुई इसलिये जिम्मेदारी का बोझ भी तनिक कम ही था। बदरू फुलवा पर जान लुटाता था और चाहता था कि वह इस गरीबी में न जिये लेकिन सपने देखने और पूरे होने में बहुत अन्तर है और एक दिन आ ही गया जब फुलवा का ब्याह भी हो गया। 




फुलवा पूरे पन्द्रह साल की थी जब वह अपने ससुराल आयी। मायके और ससुराल की आर्थिक स्थिति में कोई खास अन्तर नहीं था, बस अब वो यहां की बहू थी तो सारी जिम्मेदारी उस पर थी। ससुराल में वो दुलार नहीं मिलता था जो मायके में मिलता था। लेकिन कोई फुलवा को सताता भी नहीं था। फुलवा की सास फुलवा का खूब ख्याल भी रखती थी। फुलवा ब्याह के वक्त अपने पिता से लिपट कर बहुत रोयी थी कि उसे आगे पढ़ना है वो पढ़कर मास्टरनी बनना चाहती है लेकिन फुलवा के बापू भी कुछ नहीं कर सके और फुलवा शादी कर ससुराल चली आयी। 

धीरे धीरे दिन बीतने लगे। फुलवा दो बच्चों की माॅं बन गयी थी। उम्र मात्र अट्ठारह, शरीर सूख कर कांटा हो गया था। कुछ जिम्मेदारियों ने उसका शरीर गला दिया और कुछ अधूरी इच्छाओं ने। गांव में मजदूरी करके अब गुजारा नहीं होता था इसलिये फुलवा अपने पति रघु के साथ शहर आ गयी। शहर आकर दोनों ही मजदूरी करने लगे। रघु भी फुलवा पर जान छिड़कता था, उसकी हर इच्छा का ख्याल रखता था लेकिन गरीबी आड़े आ ही जाती थी। फुलवा ने अपने पति को समझाबुझाकर अपने दोनों बच्चों एक पुत्र व एक पुत्री का दाखिला पास के ही सरकारी स्कूल में करा दिया। वह नहीं चाहती थी कि जैसे उसका जीवन मजदूरी करते हुये कट रहा है कल को उसकी संतानों का भी जीवन बिना पढ़ाई लिखायी के नष्ट हो। 

शहर आकर धीरे धीरे फुलवा की आर्थिक स्थिति ठीक होने लगी। अब फुलवा अपना सिलाई का काम करने लगी थी और उसका पति एक मिल में नौकरी करने लगा था। फुलवा अपने दोनों बच्चों की पढ़ाई पर पूरा ध्यान देती थी। आज भी फुलवा के मन में कहीं पढ़ाई को लेकर एक इच्छा दबी हुई थी। इसलिये वह कभी अपने बच्चों की किताबों को पढ़ती तो कभी तरह तरह की पत्रिका आदि पढ़कर अपना शौक पूरा करती। 

एक दिन फुलवा ने बातों ही बातों में रघु से अपनी इच्छा जाहिर की कि वह आगे पढ़ना चाहती है। रघु भी जानता था कि फुलवा को पढ़ाई का बहुत शौक था और वह आगे पढ़ना चाहती थी लेकिन अब यह कैसे सम्भव था, यह न तो फुलवा को समझ आता था और न ही रघु को। एक दिन फुलवा अपने बच्चों के स्कूल गयी हुई थी जहाॅं उसने स्कूल की अध्यापिका से अपने मन की बात कही कि वह आगे पढ़ना चाहती है। फुलवा कक्षा 5 तक गांव के स्कूल में पढ़ी थी। स्कूल की अध्यापिका फुलवा की लगन देखकर बहुत ही प्रभावित हुई और उन्होने फुलवा की आगे की पढ़ाई में पूरी मदद की। फुलवा अब घर के काम और सिलाई के काम के साथ साथ मन लगाकर पढ़ाई भी करती थी। रघु भी फुलवा की इस इच्छा में भरपूर साथ देता था। फुलवा खुद भी पढ़ती और अपने बच्चों को भी पढ़ाती। फुलवा ने आस पास के बच्चों को भी पढ़ाना शुरू कर दिया जिससे उसकी आमदनी में भी बढ़ोत्तरी हुई जिससे रघु को भी फुलवा की पढ़ाई सार्थक लगी और वो उसके कामों में भी मदद करने लगा। 




एक दिन आया जब फुलवा ने दसवीं की परीक्षा पास कर ली। तब के जमाने में दसवीं पास कर लेना अपने आप में एक बहुत बड़ा काम था। फुलवा ने एक सरकारी स्कूल में पढ़ाने के लिये आवेदन दिया और उसकी नियुक्ति एक सरकारी स्कूल में बतौर अध्यापिका हो गयी। इसके बाद भी फुलवा ने पढ़ाई नहीं छोड़ी, वह पढ़ती रही और एक दिन एक कालेज की प्रोफेसर बन गयी। फुलवा ने इस दौरान अपनी लेखनकला को भी निखारा और कई सारी कहानियाॅं, कवितायें और लेख लिखे और उसकी कई पुस्तकें भी छपी। 

आज फुलवा अपने गांव, अपने ससुराल और परिवार में एक मिसाल है जिसने जमाने के उस दौर में पढ़ाई को अपनी सीढ़ी बनाकर सारी बाधाओं को पार किया जब लड़कियों का पढ़ाना कोई जरूरी नहीं समझता था। और ऐसे दौर में फुलवा ने न सिर्फ अपनी इच्छायें पूरी की बल्कि अपने परिवार की आर्थिक स्थिति भी मजबूत की। फुलवा के पुत्र व पुत्री आज अच्छे अच्छे पदों पर नियुक्त हैं और वे अपने बच्चों को भी फुलवा के संघर्ष की कहानी सुनाते हैं। फुलवा आज अस्सी साल की है और उसने आज भी पढ़ना नहीं छोड़ा, वो आज भी कुछ न कुछ पढ़ती ही रहती है क्योंकि ज्ञान जितना समेटो उतना कम है। 

ये थी फुलवा के संघर्ष की कहानी, फूलमती की कहानी।

मौलिक 

स्वरचित 

अनुराधा श्रीवास्तव “अंतरा “

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