यह भोपाल शहर की दोपहरी थी- ढ़लती हुई।
सुपर्णा स्टेशन से बाहर निकल आई। रोड पर दिन का सूनापन पसरा है।
सुपर्णा अपना छोटा सा बैग उठा कर सड़क पार कर गई। उसे युनिवर्सिटी ऑफिस जाना है, लेकिन इस भरी दोपहरी में उस ओर जाने वाली एक भी बस नजर नहीं आ रही है। मुसीबत यह कि कहीं रत्ती भर भी छांह नहीं है, जहां वह रुक कर दम भर ले।
तभी अचानक पीठ पर हाथ की थाप पड़ने से वह मिमियाई “कौन बदतमीज है?”
“हद है यार, इतनी कड़ी धूप में बीच दोपहर कौन शहर घूमने निकलता है ?”
घूम कर देखा, सामने काला चश्मा पहने हुए उसकी क्लासमेट ‘कैटरीना’ अपनी वही पुरानी मसखरे और चुलबुलेपन वाले अन्दाज में खड़ी थी,
“कहाॅं धूप में अकेली मारी-मारी फिर रही हो” बेफ्रिकी से हॅंसते हुए,
“मैं फाइनल इयर की डिग्री निकालने आई हूॅं। जाॅब ऐप्लिकेशन की रिक्वायरमेंट थी, लेकिन किटी तुम! इस वक्त यहां क्या कर रही हो?” कसमसाई सी कैटरीना अगले ही पल सुपर्णा के हाथ मजबूती से पकड़,
“अओ बाबा रे! एक साथ इतने सवाल रुको भी जरा, सब बताती हूॅं ?
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फिर चौक्कनी निगाहों से इधर-उधर देखती,
“अच्छा ‘सुपु’ चलो, इतने दिनों बाद मिले हैं, कहीं आराम से बैठ कर बातें करते हैं। यहाॅं झुलसाने वाली गर्मी है”
“मगर मैं तो काम से आई थी,घर पर बच्चे अकेले हैं “
“हाॅंं -हाॅं जानती हूॅं, तुम्हारा इंतजार कर रहे होंगे, जल्दी वापस लौटना है ब्ला… ब्ला…ब्ला…” सुपर्णा ने उसे सिर से पांव तक देखा, बिंदास लग रही है।
“देख किटी,अब तुम्हारी तरह आजाद… तो हूॅं नहीं”
“अच्छा तो इस आजाद पंक्षी से जलन हो रही है?” वह उसे खींचती हुई पास ही के रेस्तरा में ले गई,
“सच यार सुपु! तुम्हारी नैचुरल ब्यूटी अभी भी ज्यों की त्यों है,
थोड़ी नाॅर्मल हुई सुपर्णा भी मजाक के मूड में आ गई,
“लो कर लो बात! अभी तक का मतलब ? अब तुम्हें क्यों जलन खोरी होने लगी”
“चल हटा, तुमने पूछा मैं यहाॅं क्या कर रही हूॅं? यही तो मेरा वर्किंग एरिया! मेरा वर्क प्लेस है “
“मतलब! मैं समझी नहीं, तुम सिर्फ चाय लोगी या साथ में कुछ खाने का भी?” सुपर्णा को जल्दी थी।
“हुं…हृ चाय भी कोई पीने की चीज है” वह ठठा पड़ी।
“क्यूं भई? हम यहाॅं चाय पीने ही तो आए हैं”
“कौन बेवकूफ … यहाॅं चाय पीने आया है, मैं तो बातें करने आई हूॅं” कहती हुई कैटरीना ने अपने हैंडबैग से सिगरेट की पैकेट और लाइटर निकाल कर टेबल पर रख दी। रेस्तरां में काफी भीड़ थी।
सुपर्णा के हाथ-पाॅंव ठंडे होने लगे, कैटरीना उसकी मनोदशा भांप कर,
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“तुम सब हाउसवाइफ्स भी ना! सबको उनके मियां ने डरा-धमका कर दब्बू बना कर रखा होता है “
“यह तो हाईली ऑब्जेक्शनेबल है किटी”
“और… हाॅ ऽऽ… उन्हें बस हाउस कीपिंग को एक चौबीस घंटे वाली कोई भी औरत चाहिए होती है”
पास ही में खड़ा बेयरा उसकी बेतकल्लुफी पर हॅंस रहा था। लगा जैसे रेस्तंरा में सभी उससे पूर्व परिचित हैं।
“ये इसकी बातों में फॅस कर मैं कहाॅं आ गई ?”
कैटरीना सिगरेट सुलगा कर लंबे -लंबे कश लेने लगी।
हड़बड़ाहट में जल्दी-जल्दी चाय गटकती सुपर्णा ने इस बार उसे गौर देखा, गहरी लाल लिपस्टिक से रंगे होंठ, ब्लीच, फेशियल और फिर मेकअप की परतों के नीचे झुलसी हुई त्वचा, चमकीले रंग के कपड़े और बातचीत का खुलापन।
क्या यह वही कैटरीना है? पिता की असमय मृत्यु हो जाने पर जिसकी मम्मी अपना छोटा-मोटा बुटीक चलाती थीं। कैटरीना के ग्रैजुएशन कम्प्लीट करने के तुरंत बाद ही उसकी मम्मी ने उसकी पढ़ाई पर होने वाले खर्च को बंद कर दिया था।
“देख किटी, अब तुम्हें अपना खर्चा आप चलाना चाहिए। तू ग्रैजुएट हो गई है, कहीं स्कूल या कोचिंग सेंटर में तो नौकरी कर ही सकती है।”
कैटरीना ने तब पढ़ाई छोड़कर नौकरी कर ली थी,
“नौकरी कर ली थी, या उसे करनी पड़ी थी?” पूरी काॅलोनी में तब यह चर्चा काफी दिनों तक आम बनी रही थी। खैर, नतीजतन कैटरीना कोई भी नौकरी जुट कर नहीं पाई।
एक तो इस बात का गम कि काॅलेज छूटने से शामें घर में बैठ कर कैसे काटी जाएं?
दूसरी उसकी इस सोच ने,
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“मैं किसी एक टाइप में तो बंधी हुई नहीं रह सकती’ उसे कहीं टिकने नहीं दिया”
लाइफ इज हेल! उन दिनों यह उसका तकिया कलाम था। फिर सीधी-सादी कैटरीना एक ‘कैरेक्टर’ बन गई। हमारे रास्ते अलग हो गए थे। शादी हो जाने के उपरांत मैं घर,परिवार की रस्साकशी में उलझकर अखबारों में छपे नौकरियों के विज्ञापन देखने में व्यस्त होती चली गई।
इस बीच कैटरीना मुझे जितनी बार मिलती, उतनी बार बिलकुल अपरिचित, अंजान और अजनबी सी मिली थी।
फिलहाल… इस समय वह मेरे एक पर एक इस तरह सवाल करते जाने पर,
“क्या शादी करने का इरादा नहीं है? अकेली किस तरह रह लेती हो? अकेलापन डराता नहीं है। कभी लगता नहीं है कोई अपना हो ?” उसने चुटकियों में पकड़ लिया कि मैं उसकी हालत पर तरस खा रही हूॅं।
वो इत्मीनान से सिगरेट की राख ऐशट्रे में झाड़ती हुई,
“डर, डरने की क्या बात है? ऐसा तुम्हें लगता होगा ” उसकी ऑंखें सिकुड़ कर छोटी हो आईं।
“पागल लड़की! क्या पति और बच्चों वाली को अकेलापन नहीं सताता? सच पूछो, तो वे उनकी जरुरत होती हैं। और उनका अकेलापन उन जरूरतों में बंट जाता है”
उसने मुझे घूर कर देखा। फिर दूसरी सिगरेट सुलगा कर फुसफुसाई,
“हाॅं मैं धन्धा करती हूॅं! किसी से चीट नहीं करती, अपने आप से भी नहीं। मुझे दया आती है, उन सो काॅल्ड पतिव्रता स्त्रियों पर जो मेरी जैसियों के दम पर घर के अंदर महफूज़ रहती हैं “
उसके शब्दों की कड़वाहट से परेशान सुपर्णा उठ कर चलने को तैयार हुई,
“आखिर क्यों आईं मैं इसके साथ? क्या ये मुझे सिर्फ अपने दिल की भड़ांस निकालने को लेकर आई है ” बदहवास सी कैटरीना ने उसके हाथ पकड़ लिए,
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“जानती है सुपु, यह रास्ता मैंने खुद चुना है, हाॅं तुम्हारे माथे की बिंदी मुझे थोड़ा परेशान…करती है। लेकिन सच पूछो तो मुझमें और तुममें फर्क ही कितना है। तुम अक्सर किसी मर्द की मर्जी से बिन पैसे की उसकी हमबिस्तर बनती हो जबकि मैं अपनी मर्ज़ी से कीमत लेकर। आखिर काम तो हम दोनों एक समान ही करते हैं ना!
तू मुझपर तरस खा रही है, जब कि मुझे तुमसे सहानुभूति होती है “
वह हाथ में पकड़ी जलती हुई सिगरेट को देर तक ऐशट्रे में दबाकर बुझाती रही।
मेरे दिमाग ने खिन्न हो कर कुछ भी सोचने से इंकार कर दिया।
जानती हूॅं,
“वह इस नरक से अलग नहीं हो सकती। अजीब लड़की है! और बहुत अजीब है इसकी माॅं! जो बेटी का भविष्य नहीं अपने रुपये देखती है “
“अच्छा चल, मेरे किसी क्लाएंट से मिलने का टाइम है, मैं निकलती हूॅं” रूखे स्वर में बोल कर वह निकल गई।
मन परिताप से भर गया। किटी पहले से भी ज्यादा अपने घेरे में घिरती जा रही है, जो धीरे-धीरे सिकुड़ता जा रहा है।
बहुत दिनों से अंदर कुछ बर्फ सा जमा था, अब पिघलने लगा है।
सीमा वर्मा/ नोएडा