“एक रुपये का सिक्का” – सेतु कुमार 

सात फेरों के बाद अब रंजीता की विदाई की रस्म भी सम्पन्न हो गयी थी.विवाह भवन अगले तीन चार घण्टो में खाली करना था.इसलिए लड़की पक्ष के मेहमान अब अपने अपने कमरों में अस्त व्यस्त पड़े कपड़ो और दूसरे सामानों को पैक करने में लगे थे.

रंजीता के पिता गोविंद बाबू और माँ चन्दना देवी मिठाई के डब्बे और तोहफे एक एक कर सारे मेहमानों को सधन्यवाद प्रदान कर रहे थे.

अभी तक तो विवाह की तैयारियों की व्यस्तता में

समय कट गया था पर अब इकलौती पुत्री की विदाई के दर्द की चुभन मां पिता को महसूस होने लगी थी.

गोविंद बाबू की आंखे तो सूखने का नाम नही ले रही थी.

पर चन्दना देवी ने हिम्मत रख रखी थी.वो जानती थी कि अगर वो भी टूट गयी तो गोविंद बाबू को संभालना और भी मुश्किल होगा.फिर विवाहोपरांत का इतना सारा काम कैसे निपटेगा.

सारे मेहमानो की विदाई के बाद अब बस गोविंद बाबू के पारिवारिक मित्र सार्थक मिश्रा सपत्नीक रह गए थे.

उनकी ट्रेन देर रात की थी इसलिए विवाह भवन से वो गोविंद बाबू के संग ही उनके घर आ गए.

समधीजी का गोविंद बाबू के फोन पर कुछ देर पहले का मैसेज था कि बारात और बेटा -बहू अच्छे से घर पहुँच गए है.

रंजीता बिटिया और उसके सामानों से कल तक भरा भरा लगने वाला घर आज एकदम खामोश सा हो गया था. माता पिता का बार बार मन तो कर रहा था कि वीडियो कॉल कर के एक बार रंजीता को देख ले उससे बाते कर ले पर फिर लगता था कि अभी तो बिटिया के ससुराल में  सारे लोग नई बहू के स्वागत में होने वाली रस्मो को निभाने में व्यस्त होंगे.

तभी समधी जी के नम्बर से गोविंद बाबू के वाट्सएप्प पर वीडियो कॉल की घण्टी बजी.




गोविंद बाबू की आँखे चमक उठी थी.जरूर रंजू बिटिया से बात कराने के लिए समधी जी ने वीडियो कॉल लगाया होगा.चन्दना देवी भी वाट्सअप कॉल की आवाज सुनकर पतिदेव के फोन की स्क्रीन के सामने टक टकी लगाकर बैठ गयी थी.

” समधी जी और समधन जी को मेरा प्रणाम “

उधर से समधी जी विवेकानन्द जी ने हाथ जोड़ते हुए कहा .

“हमसब का प्रणाम भी स्वीकार कीजिये विवेकानन्द बाबू.”

अभिवादन के आदान प्रदान के पश्चात विवेकानन्द जी थोड़े गम्भीर हो गए थे.

“गोविंद बाबू दरअसल बहू ने हमें असमंजस में डाल दिया है.उसने मुंह दिखाई में जो मांगा है उसे लेकर हम कोई निर्णय नही ले पा रहे है.”

विवेकानन्द जी की बातों ने गोविंद बाबू और उनकी पत्नी को अचानक से बेहद चिंतित कर दिया था.रंजीता जैसी समझदार लड़की आखिर ऐसा क्या मांग बैठी थी.

“गोविंद बाबू दरअसल दो दिनों के बाद आनन्द और रंजीता को हनीमून के लिए निकलना था.पर रंजीता बिटिया जिद्द कर रही है कि घूमने फिरने के लिए वो बाद में कभी जाएगी.अभी तो वो अपने नए घर की रसोई संभालेगी.कहती है कि  कही आने जाने की बजाय अपने नए परिवार के सारे सदस्यों के साथ कुछ समय आराम से रहना चाहती है.सास ससुर को अपने हाथों का बना खाना खिलाना चाहती है .अपने नए घर के कोने कोने को महसूस करना चाहती है.और तो और आनन्द भी उसकी बातों से सहमत है.”




विवेकानन्द जी बोलते बोलते भावुक हो गए थे.

उधर चिंता में घुल रहे  रंजीता के माता पिता बेटी की बेहद प्यारी सी जिद्द पर फुले नही समा रहे थे.

“गोविंद बाबू हम बिटिया का ये आग्रह स्वीकार तभी करेंगे जब आप दोनों हमारा एक निवेदन मान लेंगे.”

विवेकानन्द जी ने पुनः समधी और समधन को दुविधा में डाल दिया था.

“हां हां आदेश कीजिये समधी साहब …”

“क्यों न कुछ समय के लिए आप दोनों भी यहां आ जाईये रहने को.जानता हूँ आप दोनों काफी सिद्धान्तवादी है.बिटिया के ससुराल का पानी भी पीना स्वीकार नही है आपदोनो को.पर आप समधी समधन की बजाय हमारे परिवारिक मित्र के रूप में तो आ सकते है न.

फिर भी आपदोनो का मन न माने तो मुझे यहां रहने के बदले एक रुपये का एक सिक्का दे दीजिएगा.”

विवेकानन्द जी की बातों का कोई जवाब गोविंदबाबू को नही सूझ रहा था.

सामने स्क्रीन पर अब समधनजी और दामादजी भी नजर आने लगे थे. दोनों जैसे बस बेसब्री से हाँ की आस देख रहे हो.

“बस पापा अब कुछ मत सोचिए मैं अभी निकल रहा हूँ आपदोनो को लेने के लिए ” दामाद आनन्द की आवाज थी जिसे चाह कर पर भी गोविंद बाबू और चन्दना देवी ना न कर सके थे.

विवेकानन्द जी और उनकी पत्नी के चेहरे की खुशी देखते बन रही थी पर स्क्रीन के एक कोने में चुपचाप खड़ी दिख रही रंजीता की आंखों ने खुशी के आंसुओ को छिपाने से जैसे इनकार कर दिया था.पहले तो ऐसा मायका और अब ससुराल में ऐसे अनोखे परिवार को पाकर वो स्वयं को दुनिया की सबसे भाग्यशाली महिला समझ रही थी.

सेतु

गोरखपुर

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