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एक रिश्ता ऐसा भी – अनु इंदु

“दुनियाँ में वफ़ा नाम की कोई चीज़ नहीं होती।असल में आदमी हो या औरत दोनों तब तक ही एक दूसरे के प्रति वफ़ादार रहते हैं जब तक कोई और option न हो। हर रिश्ता कुछ अरसे के बाद नीरस लगने लग जाता है।समाज़ के डर से कई बार बेजान रिश्तों को भी हम  जिंदगी भर ढोते रहते हैं” नंदिनी बोल रही थी और मैं उसकी बातें सुन रही थी।

मुझे यकीन नहीं आ रहा था कि यह वही नंदिनी है जिसे मैं बचपन से जानती थी।कभी हम घंटों बैठ कर प्रेम पर चर्चा किया करते थे। हम दोनों की एक ही सोच थी कि जिसे एक बार मन में  बसा लिया बस तन मन से उसी को चाहना ही सच्चा प्रेम है। किसी और के विचार मात्र से ही ख़ुद को अपराधी महसूस करते।

लेकिन क्या हकीकत में ऐसा हो पाता है?क्या सात जन्मों के ये बंधन निभ पाते हैं? जहाँ एक जन्म काटना मुसीबत हो ऐसे दौर में सात जन्मों के वादे  सब ढकोसला बन कर रह जाते हैं।

क्या जिंदगी एक व्यक्ति पर आ कर रुक जाती है? कोई भी व्यक्ति आपको तब तक ही आकर्षित करता है जब तक आप उससे  कभी कभार घंटे दो घंटे के लिये मिलते हैं।जब आप उसे हासिल कर लेते हैं तो आपको उसकी खामियां भी नज़र आने लगती हैं।

एक व्यक्ति में सारी खूबियां नहीं हो सकतीं।किसी में कोई खूबी होगी और किसी में कुछ और अच्छा लगेगा। लेकिन किसी और का अच्छा लगना क्या गलत है? यह ज़रूरी तो नहीं कि जो आपको अच्छा लगता है आप उसे पाना भी चाहें।




मेरी निजी राय यह है कि अगर प्रेम को जिंदा रखना है तो उस व्यक्ति से कभी शादी न करें जिसे आप प्रेम करते हैं।क्योंकि शादी से पहले ही आप एक दूसरे को इतना जान चुके होते हैं कि कुछ नया नज़र नहीं आता जिसे explore करना है।उसके बाद व्यक्ति सिर्फ़ एकदूसरे में कमियां ही निकालता है।यहाँ तक कि जो बातें शादी से पहले  अच्छी लगती थीं वही बुरी लगने लग जाती हैं।असल जिंदगी तीन घंटे की कोई फिल्म की story नहीं  होती जिसमें अंत में सब पात्रों को अचानक अक्ल आ जाती है और फ़िर सब कुछ नॉर्मल हो जाता है।

नंदिनी ने अपने परिवार वालों के विरुद्ध एक विजातीय लड़के विनय से शादी की थी।घरवालों ने भी उसकी इच्छा के सामने मजबूरी में उसकी शादी कर दी मगर अपने घरवालों के सामने न तो वो अपने पति को वो इज्जत दिला पाई जो एक दामाद को मिलनी चाहिये और न ही अपनी समस्याएं कभी अपने परिवार वालों को बता पाई।

नतीज़ा यह हुआ कि दोनों के बीच तनाव रहने लगा। इसी बीच विनय के office में ही एक औरत से उसके संबंधों की चर्चा जोर पकड़ने लगी।

नंदिनी ने भी सोचा कि कोई अगर मन से आपका नहीं तो उसे रोकने का कोई औचित्य नहीं बनता।उसने भी उसे रोकने की कोशिश नहीं की।

प्रेम के बारे में सारी धारणाएं ग़लत साबित हुईं।एक वक्त ऐसा आता है जब प्रेम या तो मजबूरी बन जाता है या फ़िर आदत। ऐसा ही नंदिनी के साथ भी हुआ।

न चाहते हुये भी एक छत के नीचे दो अज़नबियों की तरह रहने को मज़बूर थे दोनों।कुछ रिश्तों से फरार हासिल करना बहुत मुश्किल हो जाता है।

अनु*इंदु*

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