एक मासूम ख़्वाहिश – दीप्ति मित्तल

पार्किंग में पहुँच कर जैसे ही स्नेहा ने अपनी छः साल की बेटी कुहू के लिए कार का बैक डोर खोला, वह मुँह चढ़ा कर फ्रंट डोर के सामने जा खड़ी हुई।

“कुहू बच्चे पीछे बैठते हैं, वहाँ मम्मा बैठेगी।” स्नेहा समझाते हुए बोली मगर कुहू कहाँ सुनने वाली थी। उसका गोलू सा मुँह फूल कर और कुप्पा हो गया। कुहू का रुआंसा चेहरा देख मयंक ने भीतर से अपनी बगल वाली सीट का दरवाज़ा खोल दिया। “पप्पा के साथ बैठना है प्रिंसेस को…आ जा” और वो छलांग लगाकर बैठ गई। बैठते ही उसने कार के म्यूजिक सिस्टम पर अपनी मनपसंद नर्सरी राइमस् लगा दी। रोज़ की तरह आज भी स्नेहा को पीछे बैठकर संतोष करना पड़ा।

हफ्ते भर से ये इस छोटे से परिवार का रोज़ का रूटीन हो गया था। डिनर के बाद कुहू का आइसक्रीम के लिए ज़िद करना,  स्नेहा का सर्दी का हवाला दे कर मना करना और मयंक का दोनों के बीच में आकर यह कहते हुए कुहू की ज़िद मान लेना, “आइसक्रीम तो पप्पा को भी खानी है…”

बैक सीट पर बैठी स्नेहा दोनों को हँसते-गुनगुनाते देख रही थी मगर वो चाह कर भी उनका हिस्सा नहीं बन पा रही थी। आजकल अज़ीब सी जलन महसुस करने लगी थी वो…कुहू के लिए…अपनी बेटी के लिए! ये एक ऐसा ख़याल था जो उसे भीतर ही भीतर शर्मिंदा भी कर रहा था मगर वो करे भी तो क्या! कैसे नकारे मीठे मातृत्व की ओट से लुकाछिपी खेल रही इस कसैली भावना को?


स्नेहा आजकल कुछ ज़्यादा ही नोटिस कर रही थी कि मयंक जब-तब कुहू की हर सही-गलत ज़िद के आगे सहजता से झुकने लगा था… और जब जब ऐसा होता, स्नेहा अतीत के उन गलियारों में भटकने चली जाती जहाँ छोटी स्नेहा कोई गलती या ज़िद करने के बाद अपने पिताजी के सामने अपराधिनी बनी खड़ी होती और वे उसे आँखें चौड़ी कर तेज़ आवाज़ में डाँट रहे होते।

उसे याद ही नहीं है कि कभी उसने अपने पिताजी का चेहरा नार्मल और हंसते हुए देखा हो… हमेशा ‘ये करो, ये नहीं करो’ की पट्टी पढ़ाते,  अनुशासन का ढोल बजाते, जरा जरा सी गलतियों पर डाँटते और मम्मी को सुनाते, ‘लड़की को ज़रा तमीज़ सिखाओ, इसे अगले घर जाना है…’ पिता के सामने स्नेहा ना कभी अपने मन की कह पाई, ना ही कर पाई। शुष्क हवाओं के बीच जैसे-तैसे ये बेल परवान चढ़ी और एक दिन ससुराल की क्यारी में रौप दी गई।

सख़्त परवरिश के असर से हर काम तमीज़ से करना, समय पर करना और अपनी हद़ में रहना स्नेहा के खून में आ गया था। मंयक अच्छा पति था। वो हर वह काम करता था जो अच्छे पति किया करते हैं मसलन घर की जरूरतों का ख्याल रखना, कभी कभी स्नेहा को सिनेमा, डिनर पर ले जाना,  बर्थ डे-ऐनीवर्सरी पर गिफ्ट देना…आदि।

दोनों में कभी किसी बात पर मतभेद नहीं हुए क्योंकि घर वैसे ही चल रहा था जैसे मयंक चाहता था। कार में वो ही गाने चलते थे जो मयंक ट्यून करता था। उसके हर निर्णय में स्नेहा की मौन स्वीकृति रहती।

सब कुछ सही चल रहा था। मगर उसकी बेटी ने, उसके भीतर दम तोड़ चुकी उस छोटी स्नेहा को फिर से जिंदा कर दिया था जिसे कुहू का बात-बात पर जिद़ करना अच्छा नहीं लगता था… और उससे भी ज्यादा बुरा लगता था उसके पापा का हर बार उसके सामने ख़ुशी ख़ुशी झुक जाना।

स्नेहा को यकीन नहीं होता था कि पिता ऐसे भी हो सकते हैं!  वह यह देख कर हैरान रह जाती थी कि यह वही मयंक है जिसे हर काम अपने मन मुताबिक करने की आदत है, जो किसी के लिए अपना रूटिन नहीं बदल सकता…मगर कुहू के सामने कैसा मोम सा पिघला रहता, वो जैसा चाहती, प्यार से ढल जाता।

आज रविवार था। लंच के वक्त स्नेहा ने अपनी और मयंक की थाली लगा ली। कुहू को एक कटोरे में दाल-चावल मिला कर दे दिये। मगर कुहू अपने हाथ से न खाने की जिद़ करने लगी। स्नेहा ने उसे ज़ोर देकर ख़ुद खाने के लिए कहा तो उसने ठिनकना शुरु कर दिया। “नई…आप ई खिलाओं…” स्नेहा नहीं मानी।

“आओं, पप्पा खिला देंगें।” मयंक ने झट से उसका खाना लिया और खिलाने लगा। बस आज स्नेहा से बर्दाश्त नहीं हुआ और वो फट पड़ी।

“इसकी हर सही-गलत बात मान कर तुम इसे बिगाड़ रहे हो मंयक!  इसकी उम्र में मैं खाना खाकर मेज़ भी पौंछ दिया करती थी।”

“अरे थोड़ा खिला दिया तो क्या हुआ, हमेशा हमारे हाथ से थोड़े ही खाएगी?” कहकर मयंक खिलाने लगा तो स्नेहा ने रोक दिया।


“नहीं, तुम आज खुद से ही खाओगी!” कहते हुए उसकी आँखें उतनी ही चौड़ी हो चली जितनी उसके पिता की हुआ करती थी, स्वर वैसा ही कर्कश हो गया जैसे उसके पिता का हो जाया करता था। फ़र्क बस इतना था, वो चुपचाप खड़ी रह जाती थी मगर कुहू दहाड़े मार कर रोने लगी।

इस पर मयंक चिल्ला पड़ा, “ये क्या ज़िद लगा रखी है तुमने!  वो तो बच्ची है ज़िद करेगी ही, मगर तुम तो बड़ी हो, तुम्हारा यू ज़िद करना अच्छा लगता है क्या?  देख रहा हूँ आजकल कुछ ज्यादा ही स़ख्त होती जा रही हो…”  कह कर उसने कुहू को गोद में बैठा लिया और पुचकारते हुए खाना खिलाने लगा।

स्नेहा सन्न खड़ी रह गई। आज मैं बड़ी हूँ इसलिए ज़िद नहीं कर सकती और जब मैं छोटी थी तब!  तब भी अपने मन की कहाँ कुछ कर पाई थी। उसे लगा जैसे पलकों पर बंधा बांध आज टूटने की कगार पर है, तो वह कमरे में चली आई।

स्नेहा आज खुद से ड़र गई थी। कुछ समझ नहीं आ रहा था उसे क्या हो रहा है। लग रहा था जैसे कंधे पर पिताजी की छाया आ बैठी हो जो उसे अपने जैसा बनाती जा रही हो। नहीं! ये सही नहीं है…मैं कुहू को दूसरी स्नेहा नहीं बनने दे सकती! उस दिन के बाद से  स्नेहा कुहू से संभल कर व्यवहार करने लगी।

एक ख़ामोश रात तारों की चादर ओढ़ सुस्ताने चली थी। मयंक पास सोई कुहू के बालों को सहला रहा था।  स्नेहा सोने से पहले हाथों पर नाइट क्रीम मलते हुए बिस्तर के सिराहने आ कर बैठ गई। मयंक ने उसे अपनी ओर खींच लिया और प्यार से बोला “दो दिन बाद तुम्हारा बर्थ डे है, बताओं क्या गिफ्ट लोगी इस बार?”

“क्या लूं? सब कुछ तो है मेरे पास”, स्नेहा ने उसके कंधे पर हौले से सिर टिका दिया।

“छोड़ो भी, अब इतना भी रानी बना कर नहीं रखा हुआ…कुछ तो होगा जिसे पाने को मन ललचता होगा?” सुन कर स्नेहा कहीं भीतर डूब गई जहाँ कुछ अधूरी ख्वाहिशें अधमृत पड़ी ऊंघ रही थी। कैसे कहूँ क्या चाहिए! मन क्या पाने को ललचता है आजकल! थोड़ा सा लाड़, थोड़ा दुलार, बेवज़ह की मनुहार…

“कहाँ खो गई, गिफ्ट के लिए इतना सोचना पड़ रहा है? अरे बोल कर तो देखो! तुम्हारे लिए तारें तोड़ कर न ले आऊँ तो कहना…” मयंक प्यार से उसकी आँखों में झांकते हुए उसकी उंगलियाँ सहलाने लगा।

“सुनो! बस एक वादा दे दो इस बार”, स्नेहा धीमे से फुसफुसाई।

“क्या?”

“अगर कभी कुछ ऐसी ज़िद करूं जिसमें तुम्हारी सहमति ना हो, जो तुम्हें ठीक ना लगे…तो ऐसे झुक जाना जैसे अपनी प्रिंसेस के सामने झुक जाते हो…बस यही चाहिए…” स्नेहा की सजल आँखे एक मासूम ख्वाहिश उभर आई। मयंक उसे अपलक देखता रह गया। उन आँखों से एक दमित बचपन झाँक रहा था जिसे देख वह सिहर गया। उसने स्नेहा के दोनों हाथों को कस कर थाम लिया।

“पहले तुम भी एक वादा करो, मुझसे उसी हक से जिद करोगी जिस हक से प्रिंसेस करती है”, सुनकर स्नेहा की आंखों से दो मोती लुढ़क गये, जो उसके नहीं उस छोटी स्नेहा के थे जिसे बरसों बाद अपनों से ज़िद करने का हक मिला था।

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