एक मजबूत डोर-दोस्ती – तृप्ति शर्मा

अलमारी के सामने खड़ी पाखी हैंगर में टंगी साड़ियों को देख रही थी। ये वहीं साड़ीयां थी जो उसकी मां ने उसके लिए अपने आशीर्वाद और स्नेह के साथ इकट्ठी की थी।  तभी मोहित की नजर पाखी पर पड़ी,

“हां देखती ही रहा कर, पहन लेगी तो 5 गज की साड़ी 2 गज की ना हो जाएगी “

हंसते हुए मोहित ने पाखी से कहा। पाखी ने नजर घुमाकर उसकी तरफ देखा । पाखी  की उदास नजरें उससे सही नहीं जाती थी । पानी के बुलबुलों की तरह अनेक यादें उसके मन में उबलने लगी । पाखी  मोहित से 2 साल छोटी थी । दोनों भाई बहनों में अपार स्नेह भी था और बचपना लिए मासूम तकरार और मान मनुहार भी थी। भाई बहन का रिश्ता होता ही इतना प्यारा है । पर अचानक पाखी को क्या हो गया था कभी समझ ना सका मोहित।चिड़ियों सी चहकती रहती थी पूरे घर में पाखी पर अचानक शांत हो गई। बाहर से आती हुए गाड़ियों के शोर से मोहित सोच से लौटा तो देखा कि पाखी वहां नहीं थी।

बारिश भरी दोपहर के बाद चाय की तलब मिटाने मोहित रसोई में जाकर अदरक कूटने लगा तो दिमाग में फिर  यादों के हथौड़े बजने लगे। कैसी हुआ करती थी पाखी, सबके मन को लुभाने वाली प्यारी सी। कितनी शरारती , हंसी ठिठोली गूंजा करती थी घर में। मैं ,पाखी और वो       जिसके पास होने से मैं बेफिक्र सा रहता । जिसके पास जाकर,बतियाकर मेरा भारी मन भी हल्का हो जाता और जिसे, मैंने चुना था, अपने लिए एक दोस्त के रूप में, मेरा सबसे प्यारा दोस्त शुभम। मेरा ही प्रतिरूप था वह बिल्कुल मेरे जैसा घर के सभी सदस्य एक डोर से बंधे थे उसके साथ । वह डोर-जो मैंने और उसने पकड़ रखी थी मजबूती से विश्वास से । पर अब कहां था वो सब, न शुभम,न उसका साथ ।

हाथ से अदरक गिरा तो देखा सामने पाखी खड़ी थी। शायद चाय की खुशबू उसे यहां खींच लाई थी । मेरी नजर उसके शांत गंभीर चेहरे पर पड़ी जो अतीत के चेहरे से बिल्कुल मेल नहीं खा रही थी। तीस पार करने के निशान उसके चेहरे पर उतर चुके थे उसके चेहरे की इस मायूस उदासी ने मुझे शुभम की फिर से याद दिला दी । जिसने 2 दिन पहले ही कई साल बाद लंदन से लौटने की खबर मुझे दी थी। पता नहीं क्यों पर मुझे दोनों के निशान एक जैसे ही लगे। चाय हाथ में लेकर पीने बैठा पर मन फिर अतीत में चला गया ।


जब शुभम ने भरी आवाज़ में मुझसे बोला था,

“मैं कल लंदन जा रहा हूं आगे की पढ़ाई के लिए”

अचानक ऐसा क्या हो गया जो इंडिया से बाहर न जाने की बात करने वाला, मेरा साथ कभी न छोड़ने वाला दोस्त लंदन जाने के लिए तैयार हो गया था । एक बहुत अच्छा दोस्त जो हमसाए की तरह हो । अचानक ऐसी खबर दे तो दिल सकते में आ ही जाता है। खैर, ये उसका और उसके परिवार का फैसला था ,हम कह ही क्या सकते थे। पर पाखी, उसकी तो उड़ान ही किसी ने छीन ली हो जैसे। मां पिताजी उसकी शादी का सपना लिए इस दुनिया से चले गए पर सब बेकार। शादी से हर बार इंकार करती उसके जीवन की मंद पड़ी गति को कोई नहीं समझ पाया । पर अब तक मैं बहुत अच्छी तरह समझ चुका था कि पाखी  शुभम को अपना दिल दे बैठी थी ,दोनों के परिवार शुभम और पाखी के इस रिश्ते को स्वीकारेंगे या नही , मेरी और शुभम की दोस्ती में किसी भी तरह की कोई ख़लिश न आए  इस वजह से दोनों ने आपस में दूरी बना ली थी। पाखी के उदास रहने का कारण भी यही था।

दरवाजे की दस्तक ने मेरा ध्यान उस तरफ खींचा सामने शुभम खड़ा था। वेलकम पार्टी का इनविटेशन लेकर, पर उसकी आंखें जैसे किसी को ढूंढ रही हो। पाखी की आंखों में शुभम के लौटने की चमक तलाशने मैं उसके रूम में गया तो वो वहां नहीं थी । सब कुछ बिखरा हुआ पड़ा था ,सामने पड़ी एक फोटो पर नजर पड़ी जो कॉलेज में हमने एक साथ खिंचवाई थी उसके साथ ही पड़ा हुआ था एक मुड़ा तुड़ा सा कागज। घबरा गया मैं, कि ये क्या है? और उस कागज को लेकर चुपचाप अपने कमरे में आ गया। अगले दिन शुभम की वेलकम पार्टी थी। मैं जबरदस्ती पाखी को पार्टी में लेकर गया और बेसब्री से पार्टी खत्म होने का इंतजार करने लगा।

उस चिट्ठी में लिखे लम्हों को शब्दों में पिरोने लगा। पाखी और शुभम की आंखें आंसुओं से भर गई। एक ने अपने बहन होने की तो दूसरे ने दोस्ती की मर्यादा बचाने के लिए अपने इतने सालों के बसंत पतझड़ में बदल डाले थे। पर मैंने भी ठान लिया था कि इनके आने वाले जीवन में अब बसंत ही बसंत होगा और मेरी बहन और मेरा दोस्त जिन्होंने मेरे लिए अपनी खुशियां त्यागी थी उनके जीवन में अब खुशियां ही खुशियां होंगी। शुभम के परिवार ने भी सहर्ष पाखी को स्वीकार कर लिया। मोहित ने शुभम को गले लगाकर कहा,

“एक बार अपने मन की बात मुझसे कही तो होती ,जीजाजी”

और सब खिलखिलाकर हंस पड़े।

#दोस्ती_यारी

तृप्ति शर्मा

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