एक फैसला – संगीता अग्रवाल

दिवाकर जी अपने घर के बरामदे मे बैठे वहाँ लगे आम के पेड़ो को देख रहे थे उनकी आँखे भरी हुई थी । एक अटूट रिश्ता था इस पेड़ो से और अब दोनो बेटे और एक बेटी घर का बंटवारा चाहते थे और ये पेड़ उस बंटवारे मे रोड़ा बन रहे थे तो तीनो बच्चे चाहते थे इन पेड़ो को काट दिया जाये। वैसे तो तीनो बच्चे शहर रहते है और दिवाकर जी पत्नी की मृत्यु के बाद अकेले यहाँ इस गांव मे रहते है पर अब जब बड़े बेटे को पैसो की जरूरत हुई तो उसने अपने भाई बहन से सलाह ले घर के बंटवारे की बात कर दी आखिर इतना बड़ा घर जो था वो भी गांव से थोड़ा बाहर की तरफ। वैसे उनके तीनो बच्चो को बहुत कम फुर्सत मिलती है पिता से मिलने आने की पर बंटवारे के लिए तीनो दो दिन से यही डेरा जमाये थे।

आज पंचायत मे फैसला था क्योकि दिवाकर जी पेड़ काटने के पक्ष मे बिल्कुल नही थे पक्ष मे तो वो बंटवारे के भी नही पर ये भी सच है कि बच्चे भले माता पिता की जिम्मेदारी ना उठाये पर उनकी संपत्ति पर अपना हक समझते है और माता पिता के प्राण भी अपनी संतान मे बसते है इसलिए वो उनकी बात मानने को मजबूर् हो जाते है। 

दिवाकर जी उठ कर एक पेड़ के पास आये और उसे सहलाने लगे । पेड़ पर लगे कच्चे , पक्के आम मानो दिवाकर जी को अपनी दौलत नज़र आ रहे थे। अचानक उनको ऐसा लगा जैसे उनके ऊपर कुछ पानी की बूँदे सी गिरी । उन्होंने आस पास देखा कोई नही था फिर उन्होंने सिर उठा कर पेड़ की तरफ देखा वहाँ भी कोई पक्षी नही था। 

” तू रो रहा है !” अचानक दिवाकर जी आश्चर्य से बोले और उसके लिपट कर खुद भी रो दिए। ऐसा लग रहा था मानों कोई पिता अपने पुत्र से लिपटा रो रहा हो। उन्होंने बारी बारी सभी पेड़ो को देखा जो उन्हे उदास से नज़र आये। जब इंसान किसी से दिल का रिश्ता बना लेता है तो उसकी हंसी गम सब पहचानता है दिवाकर जी का भी इन पेड़ो से वही रिश्ता था।

” चलिए बाऊजी पंचायत का समय हो रहा है !” तभी उनके बड़े पुत्र जीवन ने आवाज़ दी ।

” हम्म …..हाँ आता हूँ तुम चलो !” दिवाकर जी आँसू पोंछते हुए बोले। उनका चेहरा देख लगा वो मन ही मन कोई फैसला ले चुके है।

” हाँ तो दिवाकर जी क्या समस्या है आपके और आपके बच्चो के बीच !” सरपंच बोले।




” समस्या कुछ नही सरपंच जी बस पिताजी इस घर को ले शायद भावुक हो रहे है जबकि हम दोनो भाई इन्हे अपने साथ शहर ले जाने को तैयार है ये छह महीने भैया के छह महीने मेरे यहां रह लेंगे !” छोटा उमेश बोला।

” दिवाकर जी ये आपके बच्चे है अब इस बुढ़ापे मे आपको इनकी जरूरत पड़ेगी क्योकि यही तो जिम्मेदारी उठाएंगे आपकी फिर क्या दिक्कत आपको बंटवारे मे !” एक पंच बोला।

” कैसी जिम्मेदारी कौन सी जिम्मेदारी और अब तक कौन सी जिम्मेदारी उठाई इन्होने जो अब उठाएंगे !” दिवाकर जी बोले।

” अरे काका बेटा बेटी ही तो जिम्मेदारी उठाते है माँ बाप की ये लोग भी उठाएंगे फिर क्यो नही आप सब इन्हे सौंप चैन से जीते हो !” एक कम उम्र का पंच बोला।

” नही बेटा जरूरी नही बेटा बेटी जिम्मेदारी उठाये इन्होने तो कभी मेरी सुध भी ना ली आज भी जो ये बात बना रहे है ना जिम्मेदारी उठाने की इसमे इनका स्वार्थ है मेरा घर जो चाहिए इन्हे !” दिवाकर जी बोले। 

” अरे काका बच्चो के सिवा कौन जिम्मेदारी उठाता है भला आप भी ना कैसी बात करते हो !” पंच बोला।

” उठाता है ना बेटा …मेरी जिम्मेदारी तो मेरे आंगन मे लगे पेड़ उठा रहे है !” दिवाकर जी बोले । उनकी बात सुन सभी उनके बच्चो की तरफ देखने लगे। 

” हम पैसा भेजते तो है आपको !” दोनो बेटे एक साथ बोले। 

” हाँ सरपंच जी दोनो दो दो हजार रूपए भेज अपने कर्तव्य निभाते है जबकि वो रूपए तो मेरी दवा मे ही लग जाते है मेरे बाकी के खर्च वो पेड़ उठाते है उनके फल मेरी जीविका के साधन है। और वैसे भी क्या पैसा ही सब होता है एक इंसान के लिए। क्या उसे अपने बच्चो का साथ नही चाहिए। ” दिवाकर जी ये बोल चुप हो गये।




” हम ले जा तो रहे है ना आपको साथ !” उमेश बोला।

” जब तुम्हारी माँ गई थी तब भी लेकर गये थे ना एक कमरे मे बंद होकर रह गया था मैं क्योकि तुम्हारी पत्नियों को मैं देहाती लगता हूँ तुम लोगो के पास फुर्सत नही दो घड़ी मेरे पास बैठने की। फिर क्यो अपना अपमान करवाने को जाऊं वहाँ !” दिवाकर जी ने कहा।

” बाऊजी तब मे और अब मे बदलाव भी तो आ सकता है अब हम लोगो को आपकी फ़िक्र है बुढ़ापे मे आप कैसे रहेंगे ?” बेटी निशा जो अब तक चुप थी बोली।

” बेटा तुम तो रहने दो तुम्हारे पास अपनी बीमार माँ को देखने आने का समय नही था अब संपत्ति मे हिस्सा लेने को समय ही समय है ….सरपंच जी वो घर मेरी संपत्ति है और वो पेड़ मेरे सुख दुख के साथी जब अकेला होता हूँ तो कितनी बाते करता हूँ उनसे और वो सुनते है मुझे , जब किसी का सहारा ढूंढता हूँ तो उन पेड़ो से लिपट रो लेता हूँ उन पेड़ो ने मुझे बहुत संभाला है वो सिर्फ एक पेड़ नही मेरे बच्चे है जो मेरे बाकी बच्चो से ज्यादा मेरे करीब है उनको काटना यानि अपने जिस्म का हिस्सा कटाने बराबर है । वो घर मेरे बाद भी उसी का होगा जो मेरे उन बच्चो की देखभाल करेगा जो मेरे बुढ़ापे मे मेरी देखभाल कर रहे। अगर किसी को मंजूर नही होगा तो मैं अपना घर गाँव के विद्यालय को सौंप कर जाऊंगा जहाँ गाव के बच्चे शिक्षित होंगे और उन पेड़ो के फल भी खाएंगे !” दिवाकर जी ने अपना फैसला सुना दिया।

पंचायत ने , दिवाकर जी के बच्चो ने और उनके मित्रो ने उन्हे समझाने की कोशिश की पर उनके तर्क भी अपनी जगह ठीक थे । जिन बेटा बेटी ने उनकी सुध नही ली वो उनके लिए कैसे उस पेड़ को काट दे जो उनका सब कुछ है।

दिवाकर जी के बेटा – बेटी उसी दिन अपने अपने घर लौट गया क्योकि अब उन्हे पिता को ले जाने की फ़िक्र नही थी हिस्सा जो नही मिला था। 

दोस्तों क्या दिवाकर जी ने सही किया ? क्या सच मे कुछ औलादे अपनी जिम्मेदारी निभाती है ? क्यो कुछ औलादो को माँ बाप की याद बस हिस्से के समय आती है? क्या ऐसी औलादों को संपत्ति से हिस्सा मिलना चाहिए जो जिम्मेदारी नही उठाना चाहती ? क्या आपको भी लगता है दिवाकर जी के आंगन मे लगे पेड़ ही सही मायने मे उनकी जिम्मेदारी उठा रहे है ?

आपके जवाब की प्रतीक्षा मे आपकी दोस्त

संगीता। ( स्वरचित )

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