एक दिन का बादशाह  (हास्य रचना) –  -विनोद प्रसाद ‘विप्र’ 

“अजी उठिए, सात बज रहे हैं। और कितना सोएंगे ?”- शहद टपकती आवाज मेरे कानों में पड़ी तो मैं हड़बड़ा कर उठ गया। आँखें मलते हुए मैंने मुआयना किया कि मैं अपने ही घर में तो हूँ न। जब यकीन हो गया तब मैंने उन्हें गौर से देखा, यह सुनिश्चित करने के लिए कि सामने खड़ी भारी-भरकम कन्या मेरी श्रीमती जी ही हैं या कोई और। नाक-नक्श और चौड़ाई से तो बिल्कुल वही लग रही थी, फिर इतनी मीठी आवाज किधर से आई !

“अरे, घूर-घूर कर क्या देख रहे हो। मुझे कभी देखा नहीं है क्या।”

“हाँ…हाँ, बोलो क्या करना है”- मैंने लगभग हकलाते हए कहा। वैसे मैंने तो सोचा था कि आज छुट्टी का दिन है तो थोड़ी देर तक सोने का मजा लूंगा। लेकिन पत्नी जी के आदेश को ठुकराने की हिम्मत जो नहीं थी। और वैसे भी घर की साफ-सफाई का काम सुबह-सुबह ही हो जाना चाहिए। मैं आदतन रोज की भांति झाड़ू-पोछा करने के लिए बढ़ा, तभी पत्नी जी ने प्यार से कहा- “करना कुछ नहीं है, आप जल्दी से फ्रेश हो लो। तब तक मैं आपके लिए चाय बनाती हूँ।” 

अप्रत्याशित रूप से पत्नी जी का इतना प्यार भरा व्यवहार देखकर मैं सकते में आ गया। समझ में नहीं आ रहा था कि उनके इस व्यवहार पर मैं क्या प्रतिक्रिया दूँ। किसी अनहोनी की आशंका हो रही थी।

मैं अवाक् हो कर सूरज की दिशा देखने लगा। पूरब में ही तो उगा था सूरज…, फिर ये उल्टी गंगा कैसे बहने लगी।

अज्ञात भय का स्मरण करते हुए मैंने मन ही मन ईश्वर का ध्यान किया और “हे ईश्वर, मेरी रक्षा करना” बुदबुदाते हुए मैं फ्रेश होने चला गया। वापस आया तो चाय तैयार मिली साथ में नमकीन वगैरह भी। और दिन तो जब तक मैं पूरे घर की साफ-सफाई नहीं कर लेता था तब तक चाय तो दूर, पानी भी नहीं मिलता था। इतने व्यापक परिवर्तन का राज क्या हो सकता है, इसी उधेड़बुन में मैं पड़ा था कि उन्होंने फिर उसी प्यार से कहा- “आप अपनी रचनाएं लिखना चाहो तो लिखो या बाहर अपने दोस्तों से मिल लो।”

मैंने सोचा कि दहशत के इस माहौल में रचनाओं का सृजन क्या खाक होगा। सो मैंने बाहर ही जाने का तय किया। मैं भी इस अप्रत्याशित आजादी का हर पल खुशी -खुशी जी लेना चाहता था। दोस्तों के बीच पहुँचा तो वे भी आश्चर्यचकित होकर मुझे घूरने लगे। एक ने कहा कि बहुत जल्दी घर के काम निपटा दिए भाई। दूसरे ने तो यहां तक कह दिया कि आज भाभीजी ने बहुत जल्दी छोड़ दिया होगा। और इसी तरह हंसी-मजाक की बातें होती रही।

दोस्तों के साथ जी भर कर गप्पबाजी करने के बाद दोपहर तक घर लौटकर आया तो खाना तैयार मिला। खाना खाकर बिस्तर पर लेटा तो आँख लग गई। शाम को उठा तो चाय पीकर फिर बाहर घूम आने की छूट मिल गई। साथ में जल्दी वापस आने की हिदायत भी दी गई।



घूमघाम कर जब मैं घर लौटा तो देखा कि श्रीमती जी सोलहो श्रृंगार से सजी बिल्कुल नई-नवेली दुल्हन सी लग रही थी। सुर्ख लाल जोड़ा, गले में हार, माथे पर टीका, हाथों में मेहंदी, पांव में महावर…. मतलब ऊपर से नीचे तक भारतीय संस्कृति की प्रतिमूर्ति लग रही थी। ऐसे में भला कौन पति होगा जो अपनी पत्नी पर रीझ न जाए। पिछले दिनों की उनकी लेडी तानाशाह वाली छवि गायब हो चुकी थी। एकदम सभ्य, सुसंस्कृत और पतिव्रता हिन्दू नारी लग रही थी।

मुझे देखते ही बोली- ” जल्दी तैयार होकर छत पर आ जाओ।”

मैं आज्ञाकारी बालक की तरह उनके पीछे-पीछे छत पर पहुंचा। जब उनकी गतिविधियां शुरू हुई तब मुझे समझ आया कि आज तो करवा चौथ का व्रत है और यह करवा चौथ वाला प्यार था। खामख्वाह दिन भर मैं अज्ञात भय की आशंका से घबराता रहा।

 आसमान में चमक रहे चाँद को उन्होंने अर्ध्य दिया, पूजा-अर्चना की और फिर छलनी से मुझे और चाँद को देखा। मेरी आरती उतारी, चरण स्पर्श किया। मैंने भी अपने हक में ही उन्हें अखंड सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद देकर पानी पिलाया और व्रत का समापन कराया।

अब सारा मामला समझ में आ गया था।

मैं खुश था कि करवाचौथ के कारण एक दिन के लिए ही सही, बादशाहियत का सुख तो मिला। फिर कल से झाड़ू-पोछा, साफ-सफाई का दैनिक कार्यक्रम करते हुए अगले साल तक करवा चौथ की प्रतीक्षा करनी होगी।

 

“अजी उठिए, सात बज रहे हैं। और कितना सोएंगे ?”- शहद टपकती आवाज मेरे कानों में पड़ी तो मैं हड़बड़ा कर उठ गया। आँखें मलते हुए मैंने मुआयना किया कि मैं अपने ही घर में तो हूँ न। जब यकीन हो गया तब मैंने उन्हें गौर से देखा, यह सुनिश्चित करने के लिए कि सामने मेरी भारी-भरकम श्रीमती जी ही खड़ी हैं या कोई और। नाक-नक्श से तो  बिल्कुल वही लग रही थी। फिर इतनी मीठी आवाज किधर से आई !

“अरे, घूर-घूर कर क्या देख रहे हो। मुझे कभी देखा नहीं है क्या।”

“हाँ…हाँ, बोलो क्या करना है”- मैंने लगभग हकलाते हए कहा। वैसे मैंने तो सोचा था कि आज छुट्टी का दिन है तो थोड़ी देर तक सोने का मजा लूंगा। लेकिन पत्नी जी के आदेश को ठुकराने की हिम्मत जो नहीं थी। और वैसे भी घर की साफ-सफाई का काम सुबह-सुबह ही हो जाना चाहिए। मैं आदतन रोज की भांति झाड़ू-पोछा करने के लिए बढ़ा, तभी पत्नी जी ने प्यार से कहा- “करना कुछ नहीं है, आप जल्दी से फ्रेश हो लो। तब तक मैं आपके लिए चाय बनाती हूँ।” 

अप्रत्याशित रूप से पत्नी जी का इतना प्यार भरा व्यवहार देखकर मैं सकते में आ गया। समझ में नहीं आ रहा था कि उनके इस व्यवहार पर मैं क्या प्रतिक्रिया दूँ। किसी अनहोनी की आशंका हो रही थी।



मैं अवाक् हो कर सूरज की दिशा देखने लगा। पूरब में ही तो उगा था सूरज…, फिर ये उल्टी गंगा कैसे बहने लगी।

अज्ञात भय का स्मरण करते हुए मैंने मन ही मन ईश्वर का ध्यान किया और “हे ईश्वर, मेरी रक्षा करना” बुदबुदाते हुए मैं फ्रेश होने चला गया। वापस आया तो चाय तैयार मिली साथ में नमकीन वगैरह भी। और दिन तो जब तक मैं पूरे घर की साफ-सफाई नहीं कर लेता था तब तक चाय तो दूर, पानी भी नहीं मिलता था। इतने व्यापक परिवर्तन का राज क्या हो सकता है, इसी उधेड़बुन में मैं पड़ा था कि उन्होंने फिर उसी प्यार से कहा- “आप अपनी रचनाएं लिखना चाहो तो लिखो या बाहर अपने दोस्तों से मिल लो।”

मैंने सोचा कि दहशत के इस माहौल में रचनाओं का सृजन क्या खाक होगा। सो मैंने बाहर ही जाने का तय किया। मैं भी इस अप्रत्याशित आजादी का हर पल खुशी -खुशी जी लेना चाहता था। दोस्तों के बीच पहुँचा तो वे भी आश्चर्यचकित होकर मुझे घूरने लगे। एक ने कहा कि बहुत जल्दी घर के काम निपटा दिए भाई। दूसरे ने तो यहां तक कह दिया कि आज भाभीजी ने बहुत जल्दी छोड़ दिया होगा। और इसी तरह हंसी-मजाक की बातें होती रही।

दोस्तों के साथ जी भर कर गप्पबाजी करने के बाद दोपहर तक घर लौटकर आया तो खाना तैयार मिला। खाना खाकर बिस्तर पर लेटा तो आँख लग गई। शाम को उठा तो चाय पीकर फिर बाहर घूम आने की छूट मिल गई। साथ में जल्दी वापस आने की हिदायत भी दी गई।

घूमघाम कर जब मैं घर लौटा तो देखा कि श्रीमती जी सोलहो श्रृंगार से सजी बिल्कुल नई-नवेली दुल्हन सी लग रही थी। सुर्ख लाल जोड़ा, गले में हार, माथे पर टीका, हाथों में मेहंदी, पांव में महावर…. मतलब ऊपर से नीचे तक भारतीय संस्कृति की प्रतिमूर्ति लग रही थी। ऐसे में भला कौन पति होगा जो अपनी पत्नी पर रीझ न जाए। पिछले दिनों की उनकी लेडी तानाशाह वाली छवि गायब हो चुकी थी। एकदम सभ्य, सुसंस्कृत और पतिव्रता हिन्दू नारी लग रही थी।

मुझे देखते ही बोली- ” जल्दी तैयार होकर छत पर आ जाओ।”

मैं आज्ञाकारी बालक की तरह उनके पीछे-पीछे छत पर पहुंचा। जब उनकी गतिविधियां शुरू हुई तब मुझे समझ आया कि आज तो करवा चौथ का व्रत है और यह करवा चौथ वाला प्यार था। खामख्वाह दिन भर मैं अज्ञात भय की आशंका से घबराता रहा।

 आसमान में चमक रहे चाँद को उन्होंने अर्ध्य दिया, पूजा-अर्चना की और फिर छलनी से मुझे और चाँद को देखा। मेरी आरती उतारी, चरण स्पर्श किया। मैंने भी अपने हक में ही उन्हें अखंड सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद देकर पानी पिलाया और व्रत का समापन कराया।

अब सारा मामला समझ में आ गया था।

मैं खुश था कि करवा चौथ के कारण एक दिन के लिए ही सही, बादशाहियत का सुख तो मिला। फिर कल से झाड़ू-पोछा, साफ-सफाई का दैनिक कार्यक्रम करते हुए अगले साल तक करवा चौथ की प्रतीक्षा करनी होगी।

 -विनोद प्रसाद ‘विप्र’ –

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