एक बार आ जाओ ना (भाग-1) – मीनू झा

खुशबू जैसे लोग मिले अफसाने में,एक पुराना खत खोला अनजाने में- पता नहीं ये ग़ज़ल थी,या किसी ने अपना सीना चीर कर उसे लफ्जों हर्फों में सजा दिया था,उसकी हर शाम इस गाने से शुरू होकर जाने कहाँ कहाँ भटकती हुई एक अंतहीन मोड़ पर जाकर रूक जाती,पर जीवट की दाद तो बनती है ना हारता ना टूटता….।

दुसरे रोज फिर वही सिलसिला,दफ्तर से लौटता चाय नाश्ते के बाद अपनी स्टडी में जाता तो पहला काम यही होता,इस ग़ज़ल को लगाकर अपनी आरामकुर्सी पर लेट जाता और अपने जीवन का वो खत खोलकर चलचित्र सा चला देता और डूबता उबरता रहता उसमें,गज़ब की पठकथा थी,हर बार नई सी लगती..वही पृष्ठभूमि, वही पात्र,एक ही घटना का दोहराव,पर रोचकता जस की तस..।

 

बीस साल पहले…वो छोटा सा गांँव, संँकरी गलियांँ,और उसकी जर्जर साइकल,शहर से चार पांँच किलोमीटर का सफर,शाम होते ही अपनी क्लास को खत्म कर जल्दी जल्दी हाॅस्टल जाकर किताबों को रखता और दौड़ पड़ता..।उसके जुनून के आगे कड़ाके की ठंड क्या और पिघलाती गर्मी क्या सब फीके पड़ जाते, “उसका” चेहरा दिखते ही एक शीतल बयार सी आती जो उसके पसीने के साथ साथ थकान को भी उड़ा देती,इतनी खुशी और जोश भर भर कर आते उसकी झलक पाते ही कि दो तीन दिन की खुराक हो जाती उसकी।मन में तो तस्वीर बसी ही थी,पर रूबरू होने का लोभ संवरण करना उतना ही मुश्किल था जितना अपने प्रेम के आवेग को प्रर्दशित हो जाने से रोक लेना..वैसे तो वो दो तीन दिन भी बड़ी मुश्किल से कटते,..पर रोज आने जाने लगता तो चाचाजी चाचीजी क्या सोचते, सहपाठी क्या कहते..उसने तो किसी से नहीं कहा था,सोचा था सबसे पहले उसे बताएगा फिर किसी और को..पर उससे कहता भी क्या..स्थिरता कहांँ थी उसमें,वो तो हिरणी थी लंबे लंबे कुलांँचे भरने वाली,नयन हिरणी से,चंचलता हिरणी सी, मासुमियत हिरणी सी और शायद कस्तुरी भी थी उसके अंदर जिसकी तीव्रता कभी कभी उसकी नींदों में भी सेंध लगाकर उसे चरम बल से अपनी ओर खींचती और वो गहरी नींद से छटपटाकर उठ के बैठ जाता।कैसे कहें उससे अपना हाले दिल..अच्छा कोई बात नहीं, हर बात का समय होता है उसका भी समय आएगा..वैसे भी पता नहीं अपना ही दिल जबरदस्ती पर क्यों उतारू है,सबकुछ जानते समझते हुए भी,सामाजिक,आर्थिक ही नहीं जातीय दीवार भी है दोनों के बीच पर दिल तो अंधा ही नहीं बहरा भी हो गया है..बस बढ़ता ही जा रहा है बिना कुछ सुने,बिना कुछ देखें,बिना कुछ समझे…बेलगाम सा।



वो चाय लेकर आती और उसके बगल में बैठ कर दुनियांँ भर की बातें शुरू कर देती..। बिल्कुल बेखबर उसके अंदर के तूफान से,उस चक्रवात को बाहर आने से रोकने में वो सवर्स्व झोंक देता अपना,पर कभी आंँखें तो कभी होंठ चुगली कर ही देते।

 

मैं इतनी गंभीर बातें कर रही हूं और आप मुस्कुरा रहे हैं-वो मुंँह बनाकर कहती

अरे….. वो मेरा क्लासमेट नंदू है ना,आया भी तो है एक दो बार मेरे साथ,उसी की कोई मसखरी याद आ गई-वो झेंप मिटाने के लिए कहता

 

अच्छा,आप बैठे मेरे पास है और याद नंदू को कर रहे हैं–मुंँह फुला लेती फिर वो

क्या कहता उससे,नंदू क्या,ये सारी दुनियांँ क्या, तुम्हारे पास तो मैं खुद को भी भूल जाता हूंँ।



उसकी बचकानी बातें कहांँ सुनता था वो,बस उसके चेहरे को भरता रहता अपनी आंँखों में,टुकुर टुकुर निहारते हुए,उसके लिए दुनियाँ की सबसे खूबसूरत लड़की,जिसकी आँखों में ही उसे अब अपना सारा जीवन दिखता था…।

फाइनल परीक्षाएँ नजदीक थीं,तो जाना भी चाहता तो सहपाठी उलझा लेते,ना उसके घर फोन था ना उसके पास मोबाइल..।चार सालों में पहली बार ऐसा हुआ पूरे पंद्रह दिन बाद गया उसके घर,पूरी तैयारी के साथ,सारी बात कह डालेगा आज चाहे जो हो जाए।

आधे घंटे हो गए पर वो दिखी ही नहीं.. कैसे पूछे चाचीजी से,शायद इधर उधर गई हो कहीं,पर और आधे घंटे बीत गए पर उसका कोई अता पता नहीं

जब वापस जाने को निकलने लगा तो बेचैनी पराकाष्ठा पर  थी..।

चाचीजी शुभा नहीं दिख रही-पूछ ही बैठा,पंद्रह दिन कैसे काटे उसने वहीं जानता था,और आज तो इतना कुछ सोचकर आया था, रिहर्सल करके आया था,सारी तैयारी जो व्यर्थ जाती वो तो जाती ही..पर सबसे ज्यादा जरूरी तो था उसको देखना…।(क्रमशः)

 

 

दोस्तों मेरी इस कहानी पर अपने विचार अवश्य दें,अगला भाग भी जल्द ही लेकर उपस्थित होती हूँबहुत बहुत धन्यवाद आपका

#चाहत 

मीनू झा 

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