एक ऐसी भी जिंदगी – बालेश्वर गुप्ता

अरे छमिया मान भी जा,क्यूँ अपनी जवानी खराब कर रही है।अब रामू नहीं आयेगा।मेरी बात मान चल मेरी खोली में चलकर रह,वही मजा करेंगे।

       देख गबरू मैंने तुझसे पहले भी कहा है,मैं नही तेरे साथ जाने वाली।देखना मेरा रामू जरूर आयेगा।

       खूब सोचले छमिया,मेरे साथ ऐश करेगी,कल ही अपनी खोली में टीवी भी लगवा लिया है।मेरा वायदा है तुझे जीवन भर साथ रखूंगा।

       गबरू के जाते ही छमिया अपने छः माह के गुल्लू को छाती से लिपटा कर दहाड़ मार कर रोने लगी। बता रामू तू मुझे छोड़ कर क्यूँ गया,मैं तो तेरे भरोसे अपने माँ बाप ,घर बार को छोड़ कर आ गयी थी, फिर तूने मुझे यतीम क्यों बना दिया,अपने गुल्लू का भी ध्यान नही किया?बेदर्दी,मैं अकेली  कैसे जियूँ?

        बिहार में गया के पास के एक गाँव मे झुम्मन काका अपनी पत्नी और बेटी छमिया के साथ रहता था।छमिया 18 बरस की हो गयी थी,सो वो भी अपने माँ बाप के साथ मजदूरी करने जाने लगी थी।झुम्मन काका छमिया के हाथ पीले करने की सोच रहा था,उसका मानना था कि जवान लड़की कब बहक जाये, पता नही चलता,अच्छा है, पहले ही हाथ पीले कर दो,पर कोई ढंग का छोरा तो मिले।

       कभी कभी अपना सोचा हुआ,इतना सटीक भी बैठता है, ये झुम्मन काका को नही पता था।एक दिन शाम को मजदूरी पर गयी छमिया वापस ही नही आयी।झुम्मन काका छमिया को ढूंढते ढूंढते थक गये, पर छमिया नही मिली।छमिया तो जहां मजदूरी करती थी,वही उसकी आंखें रामू से लड़ गयी और उस दिन दोनो ने गावँ छोड़ दिल्ली में आ गये, यहां रामू का एक दोस्त मजदूरी करता था,उसने एक झुग्गी रामू और छमिया को दिला दी और रामू को मजदूरी पर भी लगवा दिया।

     अब रामू और छमिया दोनो ही मजदूरी पर जाने लगे,दोनो कमाते थे तो झुग्गी का किराया देने के बाद भी उनके लिये खूब बच जाता था,मजे से जिंदगी कटने लगी।छमिया को इस बीच कभी अपने गांव की अपने माता पिता की याद नही आयी, वो तो बस रामू की दीवानी थी।साल भर होते होते छमिया की गोद में गुल्लू आ गया।दो महीने वो मजदूरी पर ना जा सकी,सो घर मे तंगी पडी।अब रामू पर छमिया के साथ गुल्लू का भी भार था,सो चिड़चिड़ाने लगा।छमिया कोई अब बच्ची तो रह नही गयी थी,वह सब समझ रही थी।दो महीने बाद ही उसने गुल्लू को एक कपड़े से कमर पर बांधा और मजदूरी करने पहुंच गयी।




       उसने सोचा था कि अब सब ठीक हो जायेगा, फिर पहले वाले दिन लौट आयेंगे, पर ऐसा हो नही पाया।एक दिन रामू अपनी ही झुग्गी बस्ती की एक औरत के साथ वैसे ही गायब हो गया जैसे कभी वो छमिया के साथ गायब हुआ था।

     छमिया समझ ही नही पायी कि रामू उसे और गुल्लू को ऐसे छोड़ कर कैसे जा सकता है।फिरभी उसे विश्वास था कि रामू एक दिन आयेगा जरूर।लेकिन रामू नही आया,अकेली छमिया अकेली खोली का किराया और गुल्लू का खर्च उठाने में परेशानी अनुभव कर रही थी,पर वो झूझ रही थी कि गुल्लू को निमोनिया हो गया। घर की बची खुची चीजो को बेच छमिया गुल्लू का इलाज करा ही रही थी कि एक दिन गुल्लू भी दुनिया से कूच कर गया।

         छमिया का दिल्ली से मोह भंग हो गया था तो उसे अपने माता पिता का ध्यान आया तब छमिया संकोच वश ही सही पर अन्य कोई मार्ग न देख वो अपने गांव पहुंच गयी।दुर्भाग्य से उसके माता पिता दोनो ही छमिया के भाग जाने के बाद गांव को छोड़कर चले गये थे,जिनका पता किसी पर नही था।

       छमिया फिर दिल्ली वापस आ गयी।गबरू ने ही छमिया को खोली दिलाई और मजदूरी पर भी लगवा दिया।गबरू ने छमिया की मदद तो की,पर उसे याद दिलाना ना भूला कि छमिया बेकार में अलग खोली ले रही है, मेरी खोली है तो,मान जा आजा साथ ही रहेंगे।

      छमिया ने कोई जवाब नही दिया और अपनी खोली में वापस आ गयी।छमिया हर दिन महसूस कर रही थी कि अकेली महिला का रहना कितना कठिन है? ऐसे ही मजदूरी पर जाने,अपने लिये खाना आदि बनाने में आदि में दिन तो बीत जाता लेकिन रात— रात काटनी मुश्किल होती जा रही थी,रामू जैसे उसके पास ही लेटा है उसे सहला रहा है,वो सिहर जाती।

       गरीब के पास पेट की भूख और शरीर की भूख ही तो होती है ।पेट की भूख का तो इंतजाम वो मजदूरी करके कर ही रही थी,पर शरीर की भूख के लिये रामू को कहां से लाये?

        सुबह सुबह एक कोलाहल से उसकी आंख खुली,अलसाई सी छमिया अपनी खोली से बाहर आयी तो अब्दुल की खोली के पास कुछ लोग खड़े थे।पता चला कि उसकी बस्ती की ही एक बेवा हसीना कल रात अब्दुल की खोली में चली गयी है।अधिकतर कह रहे थे अकेली बेवा और क्या करती,ठीक किया।

       बस्ती में ऐसा ही होता है, जिसका जिससे टांका भिड़ा, वो साथ रहने लगते हैं।सब देख छमिया वापस अपनी खोली में आ गयी। इन सब बातों से उसे रामू पर अब गुस्सा और खीज दोनो आने लगे थे।वो सोचने लगी थी जरूर रामू किसी के साथ कही खोली लेकर साथ रह रहा होगा।उसका धैर्य जवाब देने लगा था,लोगो की नजरें उसे चुभने लगी थी। 

        छमिया आज जैसे ही मजदूरी करके वापस अपनी खोली आ रही थी तो एक शोहदे ने रास्ता ही रोक लिया और हाथ पकड़ उससे अश्लील बातें करना लगा तभी गबरू आ गया और उसने उस शोहदे को हड़का कर भगा दिया।छमिया के सामने अंधेरा सा छा गया।गबरू बोला अच्छा छमिया चलता हूँ।छमिया धीरे से बोली गबरू क्या आज मुझे अपनी खोली में चलने को नही बोलेगा —?

       बालेश्वर गुप्ता, पुणे

स्वरचित, अप्रकाशित।

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