दो अजनबी – विजया डालमिया

गली का संकरा मोड़ जिस पर अनायासा  ही सामने से आती गाय से घबराकर मैं भी भागी और घबराहट में किसी से टकरा गई ।मेरी पसीने से भरी तेज साँसें  उसकी परफ्यूम की खुशबू में घुल मिल गयी ।तुरंत ही खुद को संभाला और अलग होना चाहा। पर मेरे गले की चेन उसके बटन में उलझ गई ।मैंने उसे देखा तो वह धीरे से मुस्कुराती आँखों से चेन बटन से बाहर निकालने  लगा। जब वह यह कर रहा था तब कनखियों से मैंने उसे देखा। स्काई ब्लू कलर का लिनेन का शर्ट उसकी गोरी रंगत को और बढ़ा रहा था ।हाथों में महँगी घड़ी और उंगली में चमकती अंगूठी उसकी शान बता रहे थे। जैसे ही उसने मुझे देखा मैंने कहा….” नमस्ते और धन्यवाद “।मैं आगे बढ़ चली ।हम दोनों की दिशा अलग अलग थी ।तभी वह पलटा और कहने लगा …..”मैं पहली बार बनारस आया हूँ ।मुझे बाबा विश्वनाथ के दर्शन करने हैं ।आप यहीं  रहती है शायद…” कह कर वह रुक गया । मैंने अपनी लंबी चोटी जो लहरा रही थी उसे सामने किया और कहा …..”जी चलिए, मैं आपको मंदिर तक ले चलती हूँ “। हम साथ साथ चलने लगे ।तभी गरमा गरम पूरी की खुशबू से वह चहक उठा ।कहने लगा …

“मुझे पूरी बेहद पसंद है और भूख भी जोरों से लगी है”। उसकी यह बात उसके कपड़ों से बिल्कुल मैच नहीं कर रही थी ।पर कपड़े -कपड़े हैं और भूख- भूख है। मैं ठहर गयी।वहआगे बढ़ा। उस छोटी सी दुकान में बैठकर वह जिस अंदाज से खा रहा था मैं अपनी हँसी रोक नहीं पायी। मेरे हँसते ही वह शरमा गया। कहने लगा….” आप भी लीजिए”। मैंने नहीं कह कर सर हिलाया तो  वह खाना छोड़ कर मेरे हिलते हुए झुमके देखने लगा और शायद मेरा वह दाँत भी जो थोड़ा सा दूसरे दाँत पर चढ़ा हुआ था। जिसकी वजह से लोग कहते थे कि ….”यह हँसते वक्त तेरी खूबसूरती बढ़ा देता है “।मैंने उससे कहा…” अगर पेट भर चुका हो तो चले “?हम फिर साथ-साथ चलने लगे। मंदिर तक का सफर खामोशी के साथ ।जैसे ही वह भीतर जाने लगा मैं पलट गयी।उसने कहा… “मंदिर के अंदर तक साथ नहीं दोगी “?और अपना हाथ बढ़ा दिया। जैसे ही हमारे कदम भीतर पड़े प्रेम भी दिल में अपनी जगह बना गया ।

भीतर जाते जाते ही मैं अलग दुनिया में पहुँच गया ।




उसकी मासूमियत मेरी शरारत ले गई। उसकी खिलखिलाहट मेरी हँसी और उसकी सादगी  मुझे बेचैन कर गयी । मंदिर तक उसका साथ देना कितने खूबसूरत लम्हे हैं ये ….मैं यही सोच रहा था। भगवान के सामने हाथ जोड़कर यही प्रार्थना कर रहा था कि यह पल खुद को इसी तरह दोहराते रहें ।जल्दी खत्म ना हो। मंदिर से जब बाहर निकले तो वह बोलने लगी ….”अगर आप चाहें  तो मैं आपको घाट पर भी ले जा सकती हूँ “।अंधा क्या चाहे? दो आँखें। शायद भगवान ने मेरी सुन ली थी ।शायद मैं बनारस इसीलिए आया था। प्रेम कब ,कहाँ और कैसे जीवन में प्रवेश कर जाये कोई नहीं जानता। इस एहसास को हम चाहे तो भी रोक नहीं सकते। एकदम अनोखी और अलग दुनिया। इंसान खुद से ही जुदा हो जाता है किसी और का हो कर। खुद को उसी में पाने लगता है । जब हम घाट पर पहुँचे, शाम ढल चुकी थी ।गंगा की लहरों की तरह उसकी जुल्फें बार-बार उसके अधरों को स्पर्श कर रही थी।वो और मैं ।दूसरा कोई नहीं। बाहर कितना शोर था। पर ताज्जुब था मुझे उसकी चूड़ियों की खनक के आगे और कुछ सुनाई  ही नहीं दिया ।वह बार-बार अपनी लटों को पीछे करती और तभी उसकी चूड़ियाँ खनक उठती ।मैंने कहा ….”बड़ी गुस्ताख है आपकी  लटें “।उसने कहा ….”हाँ,जिस तरह आपकी नजरें और बातें गुस्ताख है। हमें अब चलना चाहिए “…जैसे ही उसने कहा मेरी हलक में जैसे साँसे  अटक गई ।भले ही हम खामोश थे पर हमारी खामोशियाँ आपस में बातें कर रही थी। तो क्या अब हम कभी नहीं मिलेंगे?मैं समझ नहीं पा रहा था कि अब किस तरह उसे रोकूँ?कैसे कहूँ कि यूँ ही पास बैठी रहो। वह एक झटके में उठी और उसका संतुलन फिर  बिगड़ा। मैंने फिर उसे थाम लिया और कहा…

“जिंदगी भर मैं तुम्हें इसी तरह थामे रहना चाहता हूँ “। उसकी ख़ामोशी रात की तरह गहरी हो गई ।वह चली गई ।मुझे लगा जैसे मेरी साँसे  भी उसके साथ चली गई ।

“मिल गयी  थी अनजानी राहों के सफर में दो रूहें और बाँध गयी थी  साँसो  से साँसों  का रूहानी एहसास ।

कुछ सालों बाद फिर बनारस आना हुआ अपनी जीवनसंगिनी के साथ। फिर वही तंग गली का मोड़ मुझे उसकी याद दिला गया ।पूरीयों की  खुशबू मेरे कदमों को रोक नहीं सकी।थके कदमों के साथ मैं आगे बढ़ चला अपनी पत्नी का हाथ थामे  जैसा उस दिन उसका हाथ थामा था। पर मैं अकेले कहाँ था ।मंदिर में हर जगह हमकदम बनकर वह जैसे मेरे साथ साथ ही थी। पहली बार महसूस हुआ कि प्रेम किस तरह अपनी जगह बना लेता है ।प्रेम कुछ चाहता ही नहीं। किसी भी भाषा में प्रेम को परिभाषित कर पाना कहाँ  संभव था । इसीलिए शायद ईश्वर ने रचा मौन। रात में गंगा की लहरों के शोर के साथ पत्नी के होते हुए भी जैसे मैं अकेला बैठा था ।अकेलापन सबसे खूबसूरत एहसास है ।लेकिन तब नहीं जब थोड़े वक्त के लिए ही सही किसी के साथ वक्त गुजार चुके हो ।उसका ना होना इस दौरान बेहद खटकता है ।उसकी जगह जो टीस  होती है वह भी बेहद खूबसूरत होती है। जिससे प्रेम था उससे प्रेम तो हर हाल में रहेगा ।उसके साथ रहने पर भी और अलग रहने पर भी ।कुछ प्रेम कहानियाँ कभी खत्म नहीं होती। राहें अलग और जुदा हो जाने के बाद भी, क्योंकि प्रेम में इंतजार और टीस दोनों  ही बेहद खूबसूरत और राहत देने वाले बन जाते हैं ।जाने क्या-क्या सोच रहा था। स्मृतियों के माया जाल को मैंने ही तोड़ना था और फिर बस एक तार के छिड़ने की देरी थी ।सारी स्मृतियाँ तितर-बितर हो गयी।सब कुछ रेत की तरह फिसलने लगा। अपनी पत्नी का हाथ थामा और हकीकत से रूबरू हो धीरे से कह उठा…

अब कहाँ कुछ खैर है।

तुम जो नहीं यहाँ तो इस शहर में सब गैर है।

विजया डालमिया 

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