दिल से याद – कंचन श्रीवास्तव

तमाम रिश्तों से विमुख हो मन,  दीमाग को नज़रंदाज़  कर उस दिशा में भागता जहां जाने अंजाने दिल की जमीं पर मोहब्बत का पौधा उगा आया ।

एक तरफ तरुणाई यौवन को छू रही तो दूसरी तरह मन किसी अनजाने से बंधन में बंध रहा,

वो भी ऐसे कि उसके आगे सारे रिश्ते फीके हैं,लाख कोशिशों के बाद भी दीमाग की नही चलती।

और हार कर वक्त के इंतजार में चुप मार कर बैठ जाता है

कि एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब सिर्फ मेरी सुनी जाएगी

अब वो कब जब

पूरी बर्बादी हो चुकी होगी या ठोकर खाकर। क्योंकि प्यार अंधा होता है।सच जानते हुए भी उस पर विश्वास नहीं करता क्योंकि दीमाग नहीं दिल की सुनता है।

चाय की प्याली लिए अखबार पर नज़र गड़ाए रेखा सोच रही है कि किस तरह से घर वालों ने मेरे दोनों फैसले में मेरा साथ दिया।

एक तब जब मैं लव मैरिज करके आई तो सबने यही कहां कोई बात नहीं जाओ पर यदि कोई दिक्कत हो तो घर के दरवाजे हमेशा के लिए खुले हैं पर तब जब तुम हमेशा के लिए आ जाओगी।

फिर जब मैं तमाम झंझावातों को झेलकर घर आई तो किसी ने बिना कोई सवाल किए मुझे अपना लिया और दोबारा अपनी पसंद की शादी की।

वहां भी मेरी खास विधि नहीं रची पर बच्चों की जिम्मेदारियों ने वहां से मुझे बांधे रखा।


पर अब तक एक दिन वहां से भी मेरा तलाक हो गया।

मैं फिर वापस आई । पर इस बार आई तो सबने मुंह मोड़ लिया सिवा पापा के उन्होंने सीने से लगा कहा कोई बात नहीं मैं हूं ना एक पुरुष के रूप में तुम्हारे साथ, राहुल की तरह तुम्हारा भी मेरी जायदाद में पूरा हक है आओ रहो।

इस पर बस मैंने इतना ही कहा नहीं पापा नहीं मुझे आपके घर में नहीं दिल में जगह चाहिए जो मिल गई।

मैं पढ़ी लिखी हूं नौकरी करके अपना गुजर बसर कर लूंगी बस कुछ दिनों की मोहलत दे दीजिए।

और तब से आज तक मैं यही रह रही हूं पर अपने खर्चे पर स्वाभिमान के साथ ।आपने पापा के दिल में।

आज ऐसा लग रहा धन्य है पापा जिन्होंने कठिन परिस्थितियों में साथ खड़े होकर निकलने का सहारा दिया।

वैसे अब वो हमारे बीच नहीं हैं पर उनके धैर्य को अपने जीवन में उतारा और बहुत खुश हूं ,आज जो कुछ भी हूं मैं उन्हीं की बदौलत ।

दिल से याद पापा

बड़बड़ाई ।

और चाय की प्याली मेज पर रख किचन समेटने चली गई

स्वरचित

आरज़ू

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