डायरी – संगीता श्रीवास्तव

आंसू मेरे गालों को ही नहीं, हृदय को भी भिगो रहे थे। मैं मर्माहत थी। तुमने अच्छा नहीं किया। काश! तुम पहल किये‌ होते….

मुझे सब कुछ याद आने लगा। वह सामने वाली बर्थ पर था। मैं अपनी 2 साल की बेटी के साथ, पति के पास नौकरी पर जा रही थी। वह लगातार मुझे देख रहा था। जब कभी मेरी नजर उसकी तरफ जाती, वह मुझे ही देख रहा होता। मैं उसकी नजर से तंग आकर पत्रिका पलटने लगी। बेटी गोद में सो गई थी। उसका मेरी ओर देखने का क्रम न टूटा। मुझे घबराहट होने लगी थी, लेकिन अपनी घबराहट को जाहिर ना होने दी। बोगी में उतनी भीड़ नहीं थी पर उसके घूरते दृष्टि से मुझे बहुत पसीना हो रहा था। सोचा,यह किसी स्टेशन पर तो उतर ही जाएगा। आखिर, मैं किसी से इसकी शिकायत करूं तो क्या करूं? यही कि वह मुझे देख रहा है! यह भी कोई बात हुई! उसकी आंखें हैं, उसकी मर्जी, जिधर देखें!! उसके देखने का अंदाज़ क्या था; नजरिया क्या थी, पर मेरे तो रोंगटे खड़े हो जा रहे थे। न उसने कोई हरकत की और ना ही उसकी आंखों ने। किस भावना से वह मुझे देख रहा था; पता नहीं। खैर, मेरे उतरने का स्टेशन आ गया। मन ही मन मैं भगवान को धन्यवाद देने लगी ,चलो इससे छुटकारा मिला।

                मैं सामानों के साथ प्लेटफार्म पर आ गई। कूली ने सामानों को टैक्सी स्टैंड तक पहुंचाया। मैंने चैन की सांस ली। ट्रेन से उतरते समय मैंने पलट कर भी नहीं देखा कि वह कहां है। मैंने टैक्सी में सीट लिया और बेटी को गोद में लिए आंखें बंद कर ली। जब टैक्सी स्टार्ट हुई तो मेरी आंखें खुली। अरे,यह क्या!वह फिर मेरे सामने वाली सीट पर था। मैं पसीना -पसीना होने लगी।मैंने अपना चेहरा दूसरी ओर फेर लिया। कुछ देर बाद तिरछी नजरों से देखा। शायद ,वह मेरे भय मिश्रित भाव को जान गया था । उसके होंठ कुछ कहने के लिए फड़फड़ाने लगे थे, पर उसके शब्द होठों पे आने के बजाय हलक में ही दबकर रह गए थे। भगवान का शुक्र कि उसके शब्द अंदर ही रह गए। पता नहीं, क्या कहता वह!! मैंने डर से बेटी को सीने में भींच लिया था। कुछ ही देर में मेरा घर आ गया जो सड़क के किनारे ही था। शाम हो गई थी। पतिदेव फाटक पर खड़े थे। उन्होंने मुझे देखते ही कहा,”तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं क्या?चेहरे पर इतना पसीना क्यों?”




“हां, पता नहीं क्यों, चक्कर -सा आ रहा।”

  “अच्छा, तुम आराम करो,”कहकर उन्होंने गोद से बच्ची को ले लिया।

  मैं कमरे में जा बिस्तर पर बेतहाशा, धड़ाम से पड़ गई। सुबह उस समय नींद खुली जब उन्होंने मेरे सिर को सहलाते हुए पूछा,”अब कैसी हो? तबीयत ठीक है ना? मैंने तुम्हें रात में उठाना ठीक नहीं समझा।”

“जी ठीक हूं, कहते हुए मैं उठ बैठी।”

मैं घर के कामों में ही व्यस्त रहती थी सो पता ही नहीं चला कि 15 दिन कैसे बीत गए। मेरे पति 2 दिनों के लिए ऑफिस के काम से बाहर गए थे। शाम में, मैं बेटी को ले बाहर लॉन में टहल रही थी। अचानक, मेरी नजर सड़क की तरफ गई। मैं एकदम से सहम गई। देखा, वह युवक मकान के सामने वाले चबूतरे पर बैठा है जो राहगीरों की बैठने के लिए बनाया गया था। इधर ही वह देख रहा था। सोचा, पति से इसकी शिकायत करूंगी। पर, कुछ सोच कर मैंने पति से कुछ नहीं कहा। कहती तो पता नहीं क्या कर बैठते। मैं उसे गाली देती हुई बेटी को ले अंदर चली गई।

     ‌पर यह क्या! रोज शाम चबूतरे पर बैठना और मेरे मकान की तरफ देखना उसकी दिनचर्या मैं शामिल हो गया था। इधर देखता ही नहीं; कभी-कभी कुछ लिख भी रहा होता। उसने लॉन में मेरा टहलना मुश्किल कर दिया था।




   ‍ कभी-कभी उसकी नजरें बचाकर लॉन में टहलना छोड़कर, कुर्सी पर बैठी रहती और बेटी के क्रियाकलापों को देखती रहती थी। कभी-कभी तो डर के मारे उसे गालियां देती हुई अंदर चली जाती। ना चाहते हुए भी जब मैं बाहर आती, मेरा ध्यान बरबस उसकी ओर चला ही जाता और झट से आंखे फेर भी लेती।

उस दिन रविवार था। पति घर पर ही थे। शाम में हम दोनों पति पत्नी बाहर लॉन में बैठ चाय पी रहे थे। बेटी वही खेल रही थी। मेरे मायके से गोपी काका आए हुए थे। हम दोनों बातचीत में लगे थे, न जाने कब  बेटी खेलते हुए सड़क पर चली गई। जब तक हमारी नजर गई तब तक एक कार सामने से आ रही थी। मैं चिल्लाई। पति पहुंचते उसके पहले ही वह युवक दौड़ कर बेटी को कार दुर्घटना से बचा लिया पर स्वयं गंभीर रूप से घायल हो गया।

बेटी को मेरी गोद में पकड़ा, लोगों की सहायता से उस युवक को गाड़ी में बैठा मेरे पति हॉस्पिटल पहुंचे। पीछे से मैं बेटी को गोपी काका को सौंप कर पति के आदेशानुसार रुपए लेकर हॉस्पिटल पहुंची।

“हे भगवान!! इसे बचा लो। ” पहली बार मेरे मुंह से उसके लिए दुआएं निकली। अब तक तो गालियां ही देती रही थी। वह बेहोश था। डॉक्टर के अनुसार उसके सिर का कोई नस दब  गया था, जिसका विकल्प ऑपरेशन था। वह भी 50-50 चांस है बचने का ,डॉक्टर ने बताया। मैं उसके बेड के साथ की कुर्सी पर बैठ गई और मेरे पति ऑपरेशन के लिए दवा वगैरह लेने चले गए। अचानक, उसकी पॉकेट पर मेरी नजर गई जिसमें एक डायरी दिख रही थी। लोगों से नजरे बचा मैंने उसके पॉकेट से डायरी निकाल अपने पर्स में रख ली। कुछ देर के बाद उसे होश आया। होश आते ही मुस्कान बिखेरते हुए मुझे देखने लगा। मैं उसकी बेहुदगी से परेशान थी लेकिन मैं वहां से हट भी तो नहीं सकती थी।




  ‌ कुछ देर के बाद उसकी स्थिति बिगड़ने लगी। डॉक्टर के प्रयास नाकामयाब रहे और कुछ ही समय पश्चात उसकी मौत हो गई। उसके मरने का दु:ख नहीं हुआ मुझे। मैंने गंभीर सांस लेते हुए मन ही मन कहा, चलो, इससे छुटकारा मिली। पर मेरे पति , उसके मरने से बहुत दुखी हुए। परेशान हो उठे कि आखिर यह युवक है कौन? कुछ देर हम इसी उधेड़बुन में बैठे रहे कि अब क्या किया जाए…….।

तब -तक एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति इधर से गुजर रहा था और उसकी नजर हमारी तरफ पड़ी। जैसे ही उसकी नजर उस युवक पर पड़ी,”अरे, यह तो मोहन है! क्यों, क्या हो गया था इसे”,वह तड़प उठा।

तभी उसकी नजर मेरी तरफ गई। उसने घूरते हुए कहा -“तुम तो बिल्कुल शालिनी जैसी हो!”मैं उसकी बातों से अवाक् रह गई। मैंने उसे दुर्घटना के बारे में बताया। उस व्यक्ति के सहयोग से मेरे पति  उस युवक के मृत शरीर को उसके घर पहुंचाने की व्यवस्था करने लगे। मैं घर चली आई।

   मैं घर पहुंची तो रात्रि के 9:00 बज रहे थे। मैंने हाथ मुंह धोया और गोपी काका को खा लेने के लिए कह, स्वयं बिना खाए ; बिस्तर पर पड़ गई। बेटी सो रही थी। कांपते हाथों से मैंने उसकी डायरी खोली। प्रथम पृष्ठ पर नजर पड़ते ही सहम गई। उस पृष्ठ पर उस अजनबी के साथ अपना फोटो देख घबरा गई। मैं इस पृष्ठ को जल्दी से पलट उस डायरी को धड़कते दिल से पढ़ने लगी……..।

   “तुम मुझे छोड़ कर चली गई। क्यों किया तुमने मेरे साथ विश्वासघात….! उस दुर्घटना में मां – पापा चले गए और हम दोनों बच गए। कैसे – कैसे हम एक- दूसरे का सहारा बन जी रहे थे और एक दिन तुम ने भी बुखार में दम तोड़ दी। मैं तुम्हें नहीं बचा पाया। क्या -क्या सपने संजोए थे हमने, क्या- क्या वादा नहीं किए थे। कितनी खुश हुई थी जब मेरी नौकरी लगी थी।तुमने मेरे प्यार को ठुकरा दिया। लोग हमारे प्यार की मिसाल देते थे कभी और उस मिसाल  को मिटा तुमने मुझे मशाल बना दिया। क्यों मुझे अकेले जीने के लिए छोड़ दिया। जब कभी मुझे मामूली बुखार हो जाता था तब तुम कैसे बेचैन हो उठती थी और अब तप रहा हूं तो तुम्हें कोई चिंता नहीं। कितना अभागा हूं कि तुम्हें…….।”




“जब भी ऑफिस से आता हूं , मेरी नजरें तुम्हें और सिर्फ तुम्हें ढूंढती हूं। मैं तुम्हारे साथ ही चित्ता में कूद जाना चाहता था लेकिन लोगों ने मर- मर कर जीने के लिए मुझे उस चित्ता में जाने से रोक लिया।”,

       कितने दिनों तक मैं तुम्हारे बिना विक्षिप्त अवस्था में पड़ा रहा था। कुछ करीबी लोग और मेरे दोस्त की मां, जिसे हम अम्मा बुलाते थे , ने मुझे पागल होने से बचा लिया। अम्मा ने ही मेरी देखभाल के लिए निर्मला काकी को रख दिया है। अपने नाम के अनुरूप है निर्मल काकी!

“धीरे-धीरे मैं सामान्य होने लगा। तुम्हारी जगह अकेलापन ने ले रखा है। कभी-कभी यह अकेलापन मुझे काटने को दौड़ता है, तब मैं बहुत रोता हूं। तुमने अच्छा नहीं किया….., शालिनी!!”

‌ मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था, मैं आगे पढ़ती रही।

  “आज तो गजब हो गया शालिनी! मैं घबरा गया कि शालिनी कैसे…..।”मैंने अपने को समझाया फिर भी रोक नहीं पाया स्वयं को और उसके सामने वाली सीट पर बैठ गया। मैं चाह कर भी उससे  कुछ कह न पाया; उसे सिर्फ निहारता रहा। मुझे बहुत सुकून मिल रहा था।”

मैंने पीछा करते हुए उसका घर देख लिया है। मैं प्रायः उसके घर के सामने कुछ देर बैठता हूं और उसे निहारता हूं।

“कभी-कभी जी चाहता है, उसे बहन कह कर पूकारूं और उसमें तुम्हें ही स्थापित कर लूं, लेकिन नहीं; नहीं कर पाता वैसा। पता नहीं, वह कैसा सलूक करें। कहीं वह




मुझे पागल ना समझ बैठे।”

  अंत में लिखा था–

                     तुम्हारा भैया।

मुझे सारी बातें समझ में आ गईं। मैं फूट-फूट कर रोने लगी। तुमने अच्छा नहीं किया मेरे भाई, मैंने क्या-क्या सोच लिया था तुम्हारे बारे में। मुझे क्षमा करना……।

मेरे आंसू रुक नहीं रहे थे…………………।

#5वां_जन्मोत्सव 

स्वरचित, अप्रकाशित

संगीता श्रीवास्तव

लखनऊ।

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