धूप-छाँव का खेल – शकुंतला अग्रवाल ‘शकुन’

लखपति,करोड़पति तो उसको कहना बहुत छोटा शब्द है। वह तो धनकुबेर है।

तभी उसकी नजर सदा गगन को छेदती रहती है, जमीन पर तो कभी पड़ती ही नहीं।

 ऐसा हो भी क्यों नहीं ,पंछी की तरह उसने तो आकाश नापना ही सीखा है।

पर कहते है ना कि धरातल से जिसकी पकड़ छूट जाती है, उसको एक दिन ठोकर लगती ही है। इसी वजह से सुयश ने धरातल से रिश्ता बनाए रखा है। 

मर्शड़ीज गाड़ी से बाहर कदम रखते ही, सुयश की नजर गार्ड के मायूस चेहरे पर पड़ी तो पूछ बैठा—–

“क्या हुआ? लक्ष्मण!” 

“कुछ नहीं? साहब!”

“देख! बताएगा नहीं तो किसी समस्या का समाधान भी कैसे होगा?”

मालिक की सांत्वना पाकर लक्ष्मण रुंधे कंठ से बोला—-

“साहब! माँ बहुत बीमार है।”

“पगले ! तू यहाँ क्या कर रहा है? जा अपनी माँ के पास। माँ के आँचल की शीतल-छाँव नसीब वालों को मिलती है।”

लक्ष्मण तो चला गया लेकिन सुयश के अतीत के तार झन-झना उठे।





सुयश की पढ़ाई पूर्ण हो चुकी थी उसके पापा चाहते थे कि

वो व्यापार सँभाले, लेकिन सुयश को मौज-मस्ती से ही फुर्सत नहीं मिलती थी। जब घर आता तब ममता की शीतल-छाँव तले खुद को

 सुरक्षित पाता। 

माँ (सुनीति) उदार स्वभाव की थी, किसी असहाय की मदद करने के लिए सदैव तत्पर रहती थी। 

सुनीति की उदारता का ही प्रतिफल था कि महरी की बेटी आज शिक्षिका पद पर आसीन हो गयी। उसकी पढ़ाई का समस्त भार सुनीति ने ही वहन किया था। सुयश के पिता (कल्पेश) जी ने नाराजगी भी जताई थी तब सुनीति ने समझाया कि इन सबकी दुआओं की वजह से ही हम आज फल-फूल रहे हैं। सुयश यह सब देखता था तो उसके भीतर भी संस्कारों की पौध निरोपित हो रही थी।

ऐसी बात भी नहीं थी कि माँ उसे काम पर ध्यान देने की नहीं कहती थी, जब भी मम्मा उसे कहती “बेटा! बड़े हो गए हो, पढ़ाई भी पूरी हो गई अब व्यापार पर ध्यान दो।अपने पापा का हाथ बटाओ।” तब वो यही कहता—–

मम्मा! व्यापार भी सीख लूँगा, आप चिन्ता मत कीजिए। कुछ समय मुझे आपकी गोद में सुकून से सोने दीजिए।

इस तरह वक्त पंख लगाकर उड़ता रहा पर सुयश सीरियस नहीं हुआ।

एक दिन काल ने अपने हाथ पसार लिए और सुयश की माँ काल का ग्रास बन गई।

कुछ समय बाद भी जब सुयश सदमें से बाहर नहीं निकला तब उसके पापा ने उसको समझाया—–

बेटा! यह तो नियति है। जो आया है, उसे एक दिन जाना भी है,यही सृष्टि का नियम है। 

जीवन धूप-छाँव का खेल है। जिसको केवल छाँव की तलब है, धूप की तपिश नहीं सह सकता वह कभी कनक के सम नहीं निखर सकता।

तुम्हारी मम्मा, तुम्हें बुलंदी पर देखना चाहती थी। तुम उसका सपना साकार नहीं करोगे?”

“करूँगा, पापा!” यह कहकर सुयश पापा के गले लग गया।

लेकिन सुयश की दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं आया। जिन्दगी उसी ढर्रे से चलती रही। कल्पेश भी जब समझाकर थक गए तो चुप्पी धार ली।





समय अपनी गति से दौड़ रहा था वैसे ही आज कल्पेश जी की कार भी दौड़  रही थी, अपने ही ख्यालों में खोए हुए।

 उनको ध्यान ही नहीं कि गाड़ी की रफ्तार 100 से ऊपर है, और अचानक सामने किसी जानवर के आ जाने से एक्सीडेंट हो जाता है।

जैसे ही सुयश को खबर लगती है वो अस्पताल पहुँचता है, तो देखता है कि पापा बेहोशी की हालत में भी कुछ बोल रहे हैं। 

तब सुयश डॉक्टर से पूछता है “पापा ठीक हो जाएँगे ना?”

हो जाएँगे, चोट ज्यादा नहीं है, ये चिन्ताग्रस्त है। बेहोशी  में भी बोल रहे थे “सुयश कब समझोगे मेरी बात को? आप इन्हें चिन्तामुक्त रखिए ,नहीं तो आप इनको कभी खो दोगे।”

कुछ दिन बाद कल्पेश जी  ठीक होकर जब ऑफिस जाने लगते हैं—–

“पापा! मैं भी आपके साथ चलूँगा।” सुयश के इन शब्दों ने कल्पेश जी को एक नई उर्जा से भर दिया।





 सुयश पापा के सान्निध्य में व्यापार की बारिकियाँ समझने लगा। जल्द ही अपनी मेहनत व जुझारूपन से, वह राह के हर रोड़े को पार करते हुए, एक सफल व्यापारी बन गया।

लगातार उन्नति के सोपान चढ़ता हुए, आज वह व्यापारिक आकाश पर ध्रुव-तारा बन चमक रहा है।

फिर भी एक कसक है। दौलत का भण्डार है, पर शीतल-छाँव नसीब नहीं है। 

माँ की याद आते ही आँखों से सावन की झड़ी लग गई।

यकायक उसकी जीवन-साथी (उत्तरा) ने देख लिया तो—-

“यह क्या देख रही हूँ? माँ को याद कर आप कब तलक योहिं—–।”

“उत्तरा! एक माँ ही ऐसी होती है, जिसका प्यार निस्वार्थ होता है। उसके आँचल की छाँव तले बच्चा खुद को महफूज समझता है। “

“समझती हूँ, पर विधि के विधान के आगे किसकी चली है?  हम सब कठपुतली हैं। 

आप यह क्यों नहीं देख पाते कि हम किस्मत वाले हैं, ममता की शीतल-छाँव नहीं है, पर बरगद की छाँव तो है हमारे पास।”

✍स्व रचित व मौलिक 

शकुंतला अग्रवाल ‘शकुन’

   भीलवाड़ा राजस्थान

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