धूप और छांव – आरती झा आद्या

आपने इतनी तकलीफें कैसे झेल ली मां.. नीना अपनी सासू मां सुपर्णा की गोद में सिर रखे पूछ रही थी और बाहर बैठा सुवास अतीत के गलियारों में विचरण करने लगा था।

अरे करमजली अपने पति को तो खा गई, अब क्या मेरे बच्चों को भी खाएगी… सुवास की मामी शोभा चिल्ला रही थी।

और ये तेरा बेटा जब देखो मेरे बच्चों की थाली में टकटकी लगाए क्या रखता है, निकल मेरी रसोई से। मेरे बच्चे खा लें तब खाना मिलेगा तुझे… शोभा सुवास को धक्के मार रसोई क्या घर की दहलीज से ही बाहर कर देती थी और सुपर्णा के द्वारा बने भोजन से सपरिवार पेट पूजा करता था।

सबके अपने अपने कमरे में जाते ही सुपर्णा दरवाजा खोल अपने जिगर के टुकड़े को कलेजे से लगा जार जार रोने लगती और जो भी बचा खुचा होता खिला कलेजे से लगाए हो रसोई में सो जाती। पति के देहांत के बाद ससुराल वालों द्वारा निकाल देने के कारण मायका ही एकमात्र सहारा रह गया था उसका। 

मां अब सुवास दस साल का हो गया है, भैया से कहकर इसका किसी सरकारी स्कूल में दाखिला करवा दो ना .. एक दिन अपनी मां से सुपर्णा धीमे धीमे शब्दों में कह रही थी और सुवास मां के पीछे से टुकुर टुकुर अपनी नानी को देख रहा था।

देख सुपर्णा हम तो भई बहू बेटे के बीच बोलते नहीं। तेरी ससुराल वालों की तरह तो हैं नहीं हम, जो बहू को इंसान ना समझे। जब उन्हें ठीक लगेगा करा देंगे दाखिला। वैसे भी कौन सा इसे कलक्टर बनना है… जब भी सुनाने का मौका मिलता सुपर्णा की मां गंवाती नहीं थी।

सुपर्णा को अपनी मां से इसी जवाब की उम्मीद थी सो उसे आश्चर्य नहीं हुआ।

तेरा दाखिला तो मैं करवाऊंगी। मेरे बच्चे जीवन के इस धूप में यूंही नहीं छोड़ सकती तुम्हें, तेर लिए छांव तो बनना ही है मुझे… उस रात सुवास को गोद में सुलाए सुपर्णा खुद से बातें कर रही थी।

कहां गई थी महारानी अपने राजकुंवर को लेकर… घर में बेटे की ऊंगली पकड़े आती सुपर्णा को देख शोभा की कर्कश आवाज़ गूंजने लगती है।

वो भाभी मैं यहां के सरकारी स्कूल में सुवास का दाखिला करवाने गई थी… सुपर्णा नीची नजर किए कहती है।

ओह हो ये देखो महारानी जी को घर का खाना पकाना छोड़ बेटे को लाट साहब बनाने गई थी.. व्यंग्य छोड़ती शोभा हंसने लगती है और हां हमारे पास इतने पैसे नहीं हैं कि इन साहबजादे के लिए कॉपी किताब ला सकेंगे… सुवास को घूरती शोभा कहती है और सुवास मां के पीछे खड़ा लाट साहब का अर्थ समझने की कोशिश कर रहा होता है।




सुपर्णा बिना कुछ कहे झाड़ू उठा अपने काम में लग गई।

सुपर्णा तेरे गले की चेन कहां गई… झाड़ू लगाती सुपर्णा को गौर से देखती उसकी मां पूछती है।

मां मैंने चेन गिरवी रख दी है, उससे जो पैसे आएंगे, उसी से सुवास की पढ़ाई का खर्चा उठाऊंगी… सुपर्णा यथावत अपना काम करती हुई कहती है।

ये लो जब भाई को जरूरत थी तो मेरे पति की निशानी है कहकर हाथ भी नहीं लगाने दिया था और आज देखो… सुनते ही सुपर्णा की मां बिफर गई।

मां जिसकी निशानी थी , उसकी जीती जागती निशानी के लिए ही गिरवी रख आई हूं…सुपर्णा शांति से कहकर सुवास को ले रसोई में चली गई।

मैडम जी कलेक्टर क्या होता है… मां के साथ स्कूल पहुंचा सुवास का अपनी मैडम से पहला सवाल था।

कलेक्टर माने राजा होता है.. हंसते हुए मैडम कहती है।

और लाट साहब मैडम… सुवास मासूमियत से पूछता है।

इसका भी मतलब राजा होता है… मैडम प्यार से सुवास के गाल सहलाती कहती है।

फिर राजा बनने के लिए क्या करना होगा मैडम… सुवास मैडम से सब कुछ जान लेना चाहता था।

अभी से मेहनत की ढ़ेर सारी पढ़ाई, तब बड़े होकर राजा बन जाओगे… मैडम ने समझाया।

मैडम आप मुझे पढ़ाएंगी, मैं राजा बनना चाहता हूं… सुवास मैडम का आश्वासन चाहता था।

जरुर बेटा.. तुम दिल लगाकर पढ़ोगे तो हम भी तुम्हें पढ़ाएंगे… मैडम की बात सुनकर सुवास आश्वस्त हो अपनी पढ़ाई में मन रमाने लगा।




मां के गिरवी रखे जेवर, यहां वहां से मिलने वाली छात्रवृत्ति, शिक्षकों के सहयोग से और कभी ट्यूशन, कभी कहीं छोटे मोटे काम कर सुवास सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ता कदम बढ़ाता गया।

मां मां सुवास आया है। कह रहा है कलक्टर की परीक्षा पास कर गया है। तुम्हारी बात सच हो गई मां सुवास कलक्टर हो गया… सुपर्णा खुशी में झूम उठी थी।

भाभी देखो सुवास सच में लाट साहब हो गया। कितना सच्चा आशीर्वाद दिया था तुमने भाभी, फले फूले तुम्हारे बच्चे… ऐसा लग रहा था मानो सुपर्णा बौरा गई थी।

सुवास की आंखों से अपनी बौराई मां की खुशी अश्रु झर रहे थे।

एक जोर की हंसी से सुवास की तंद्रा भंग हुई तो उसकी आँखें नम हो गई थी।

उन्हीं नम आंखों से उसने कमरे में देखा तो सास बहू किसी बात पर खिलखिला रही थी।

ये सब तो ठीक है मां… आपने बताया नहीं कि क्या कभी रिश्ते नातों पर किस्मत पर भगवान पर आपको गुस्सा नहीं आया।

बेटा जिंदगी कभी धूप कभी छांव ही है। गुस्सा आया, बहुत आया बेटा सब पर आया और वो सारी कसर मैंने सुवास को पढ़ाने में झोंक दिया। कभी मैं सुवास की छांव बनी थी और आज देखो तुम दोनों मजबूत दरख़्त की तरह मेरे छांव बने हो। तभी तो मैं आज मजलूम बच्चों और औरतों के लिए गृह खोल उनके लिए भी छांव का इंतजाम कर सकी।

 बेटा जब भी कोई लाचार मजलूम औरत मर्द या बच्चा तुमसे मदद चाहे तो उनके लिए छांव बनना। औरतों और बच्चों की पढ़ाई पर जरुर ध्यान देना। तुम दोनों अब उस जगह पर हो जहां समाज के लिए तुमदोनों का कर्तव्य बढ़ जाता है…सुपर्ण अपने आंखों से ऐनक हटाती हुई कहती है और नीना सुपर्णा के हाथों पर हाथ रख औरों के लिए भी छांव बनने का मूक आश्वासन देती है। उन दोनों को भावुक देख सुवास भी नम आंखों के साथ आकर अपने बलिष्ठ हाथ उनदोनों के हाथ के ऊपर रख हर धूप में संग चलने और छांव बन जाने का बिन बोले वचन देता है।

 

आरती झा आद्या

दिल्ली

 

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