ढलती साँझ – संगीता अग्रवाल  : Moral Stories in Hindi

” नीता …नीता !” माधव ने चीख कर पत्नी को पुकारा ।

” क्या हुआ , आप इतने व्यथित क्यो हो ?” नीता जल्दी से रसोई से बाहर आई और पूछा ।

” सब बंद कर दो कोई खाना नही बनेगा और फटाफट कुछ कपड़े बैग मे डालो हमें अभी निकलना है !” अश्रुपूर्ण आँखों से नीता को देखते हुए माधव बोला।

” निकलना है , पर कहाँ और ऐसा क्या हुआ है कुछ बताइये तो ?” नीता पति का हाथ पकड़ पूछने लगी , तब तक नीता और माधव के दोनो युवा बच्चे भी वहाँ आ गये । 

” क्या हुआ पापा ?” दोनो का यही सवाल था। 

” बेटा तुम्हारी दादी !” ये बोल माधव रो पड़ा। सब समझ गये नीता बच्चो को इशारा कर जल्दी से बैग लगाने चल दी , दोनो बच्चे पिता को संभालने लगे। 

माँ से बच्चो का रिश्ता ही ऐसा होता है कि बच्चे किसी भी उम्र मे हो माँ का जाना एक ऐसी क्षति होती है कि आंसू खुद ब खुद बहने लगते है ( वो बात अलग है कि कुछ बच्चे माता पिता को बोझ ही समझते है ) 

आनन फानन मे चारों अपने गांव के लिए निकल गये दिल्ली से अलीगढ की दूरी बहुत ज्यादा भी नही इसलिए देर रात तक वो वहाँ पहुंच गये । जिस घर मे घुसते ही माधव को एक शीतल छाँव का एहसास होता था आज उसमे घुसने की हिम्मत ही नही हो रही थी उसकी क्योकि जिस माँ का आंचल उसे हर धूप से बचाता था वो आज बेजान पड़ी थी । कुछ देर को उसके कदम रुक से गये । दोनो बच्चे भाग कर अपने दादाजी के पास पहुंच गये और उनसे लिपट गये। 

” भैया माँ चली गई !” बहन के ये शब्द सुन मानो माधव नींद से जागे और भाग कर माँ के कदमो से लिपट ज़ार ज़ार रो दिये । उनका रुदन सुन सबकी उदास आँखे फिर से बरस पड़ी। 

” माँ क्यो छोड़ गई तुम ऐसे तुमने तो मुझे अपनी सेवा का मौका भी नही दिया । क्या इतना बुरा बेटा हूँ मैं ? कितना कहा था तुम्हे और पिताजी को शहर चलने को पर ..!” ये बोल माधव दहाड़े मारने लगे। 

” ना बेटा तू बुरा बेटा नही है बस हम लोग ही जीवन कि इस ढलती सांझ मे अपनी मिट्टी से अलग नही होना चाहते थे !” माधव को दिल्लासा देने को उनके पिता ईश्वरदयाल जी उठकर आये । 

” पिताजी !” माधव पिता से लिपट गया। नीता ननद के पास बैठी रोये जा रही थी । 

सारी रात यूँही रोते गुजर गई और सुबह की पहली किरण के साथ ही शुरु हुआ मृत शरीर को ले जाने की तैयारी का सिलसिला जी हां मृत शरीर क्योकि आत्मा तो कबकी परमात्मा मे विलीन हो गई अब तो बस शरीर ही वहाँ था। 

वक्त कोई गम कोई खुशी नही देखता वो सिर्फ अपनी रफ़्तार से चलता है । धीरे धीरे सब काम निमट गये और सब रिश्तेदार भी चले गये अब घर सूना सा हो गया वो घर जो कभी माँ की आवाज़ से चहकता रहता था। 

” पिताजी अब क्या करना है ?” माधव की बहन रीना ने अपने पिता से पूछा।

” करना क्या है कल पिताजी हमारे साथ दिल्ली चल रहे है !” जवाब माधव ने दिया । 

” बेटा मैं वहाँ जाकर क्या करूंगा , यहाँ तेरी माँ की यादें है उनके सहारे जिंदगी के ये बचे हुए कुछ दिन भी गुजर जाएंगे !” दुखी स्वर मे ईश्वरदयाल जी बोले।

” नही पिताजी अब हम आपकी कोई बात नही सुनेंगे जब तक माँ थी आप लोगो ने अपनी जिद कर ली पर अब नही , मैं आपका बैग लगवाता हूँ आप कल हमारे साथ चल रहे है !” माधव बोला। 

” बेटा जिंदगी की ढलती सांझ है ऐसे मे मैं वहाँ तुम लोगों पर बोझ ही बनूंगा । यहां बचपन , जवानी और बुढ़ापा भी कट गया अब बचा ही क्या है !” ईश्वरदयाल जी अभी भी जाने को मना करने लगे।

ईश्वरदयाल जी काफी देर तक ना नुकर करते रहे लेकिन पोते पोती , बहू और बेटे की जिद के आगे मजबूर हो गये । अगले दिन वो अपने जीवन की सारी यादों को ताला लगा निकल गये बच्चो के साथ मन मे एक शंका लिए कि कहीं बेटे के दर पर अपमानित ना होना पड़े जैसे उन्होंने अपने ज्यादातर मित्रों का सुना था । 

” पिताजी ये आपका कमरा है आप यहाँ अंश ( नीता और माधव का बेटा ) के साथ आराम से रहिएगा।” दिल्ली आ सबसे पहले माधव पिता को कमरा दिखाने लगा। 

” बेटा अंश को क्यो परेशान करना मैं तो कहीं भी रह लूंगा !” ईश्वरदयाल जी बोले। 

” अरे दादाजी कहीं भी क्यो आप मेरे साथ रहेंगे । कितना मजा आएगा !” अंश उत्साहित हो बोला। 

सब लोग नहा धोकर खाने की मेज पर आ गये नीता ने फटाफट खाना लगाया बेटी अदिति उसकी मदद कर रही थी । ईश्वरदयाल जी को जब खाना परोसा गया तो वो दंग रह गये सब उनकी पसंद की चीजे थी उन्होंने बहू की तरफ देखा । 

” पिताजी माँ जैसा स्वाद तो नही होगा मेरे हाथों मे पर कोशिश पूरी की है !” नीता उनके मन की बात जानकर बोली। 

सब खाना खाने लगे पर ईश्वरदयाल जी अभी भी संकोच से बाहर नही निकल पा रहे थे । उन्होंने खाना भी बहुत कम खाया। दिन बीतते रहे पर उनका संकोच कम नही हो रहा था। दोनो बच्चे , नीता , माधव सब उनका पूरा ख्याल रखते पर जाने क्यो वो सबसे घुल मिल नही पा रहे थे। 

” सुनिए मुझे लगता है पिताजी खुश नही यहाँ आकर !” एक रात नीता बोली।

” लगता तो मुझे भी यही है पर नीता उन्हे वहाँ कैसे छोड़ देता और अपने काम और बच्चो की पढ़ाई के कारण हम वहाँ ज्यादा रह नही सकते । करूँ तो क्या करूँ इस उम्र मे उन्हे देखभाल की जरूरत है इसलिए यहाँ लाया हूँ उन्हे पर वो खुश नही रहेंगे तो कैसे चलेगा !” माधव दुखी हो बोला। 

दोनो पति पत्नी बहुत देर तक बातें करते रहे पर उन्हे कुछ समझ नही आया। अगली सुबह नीता की नींद देर से खुली वो जल्दी से बाहर आई क्योकि पिताजी को सुबह चाय पीने की आदत थी । पर ये क्या पिताजी तो बाहर से आ रहे थे अंश के साथ । दोनो बात करते हँसते हुए। 

” अंश पिताजी को लेकर कहाँ गये थे ?” नीता हैरानी से बोली। 

” मम्मा हमने आज से सैर शुरु की है पार्क मे क्यो दादाजी !” अंश बोला ।

” पर बेटा पिताजी का इस उम्र मे इतनी सुबह बाहर जाना ठीक नही !” नीता बोली।

” नही बहू मुझे आज बहुत अच्छा लगा बाहर जाकर वरना तो सारा दिन कमरे मे पड़ा पड़ा बीमार सा महसूस करने लगा था !” ईश्वरदयाल जी बोले। 

” चलिए पिताजी आपके बहाने ही सही इस आलसी ने सुबह जल्दी उठना तो शुरु किया !” तभी माधव वहाँ आकर हँसते हुए बोला । नीता ने उनकी तरफ देखा तो उन्होंने आँख के इशारे से उसे चुप रहने को बोला। 

नीता के चाय लाने पर पिताजी उसे पी नहा धोकर नाश्ते को आ गये । अंश और अदिति नाश्ता कर कॉलेज और माधव ऑफिस चला गया। ईश्वरदयाल जी अपने कमरे मे चले गये और नीता घर के कामो मे लग गई । 

थोड़ी देर बाद वो पिताजी से पूछने आई उन्हे कुछ चाहिए तो नही । तब उसने देखा वो माँ की तस्वीर से बात कर रो रहे है ।

” पिताजी अंदर आ जाऊं ?” नीता ने बाहर से पूछा। 

” हाँ हाँ बेटा यूँ रोज रोज अपने घर मे पूछ कर क्यो आती हो ऐसे ही आ जाया करो !” ईश्वरदयाल जी फटाफट आँसू पोंछते हुए बोले। 

” आप यहाँ खुश नही है पिताजी ?” नीता ने पूछा। 

” ऐसा तो नही बेटा तुम्हे ऐसा क्यो लगा ?” ईश्वरदयाल जी ने उससे ही सवाल किया। 

” पिताजी जानती हूँ जीवनसाथी को खोने का दुख कोई कम नही कर सकता , पर हम भी तो आपके अपने है फिर आप क्यो हमसे कटे कटे से रहते है , खुल कर बात नही करते !” नीता भरे गले से बोली।

” नही बेटा ऐसा नही है मुझे बस यूँ लगता है जैसे मैं तुम लोगो पर बोझ सा बन गया हूँ , मेरे कारण तुम लोग परेशान हो गये । वहाँ अपने घर रहता तो तुम सबको कोई परेशानी ना होती !” ईश्वरदयाल जी बोले।

” ये आपका घर नही है पिताजी ? और अपने बच्चे क्या माँ बाप से परेशान होते है ? कितना सोचती थी मैं सास – ससुर की शीतल छाया मे रहूंगी , बच्चे दादा दादी के प्यार के साथ बड़े होंगे पर इनकी नौकरी के कारण ऐसा संभव ही नही हो पाया क्योकि ना हम ज्यादा दिन गांव रह सकते थे ना आप यहां आये। अब माजी तो रही नही पर आपके आने से एक तसल्ली सी मिली है दिल को ।” नीता आदर सहित बोली।

” बेटा मुझे पता ही नही था तुम लोगो के मन मे हमारे लिए इतना स्नेह है मैं तो दोस्तों से यही सुनता आया हूँ जीवन के ढलती सांझ मे माँ बाप बच्चो पर बोझ हो जाते है ! ” ईश्वरदयाल जी बहू की बात सुन उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले। 

” पिताजी उन बच्चो के लिए माँ बाप बोझ होते होंगे जिनको उनकी एहमियत नही पता । ये घर आपका है और आप हमेशा यही रहेंगे अपने अपनों के साथ !” नीता बोली । ससुर से बात करके वो समझ गई कि पिताजी को थोड़ा व्यस्त रखना जरूरी है वरना उन्हे अकेलापन खुश नही रहने देगा । 

” बेटा मैं थोड़ा बाहर घूम आता हूँ घर मे पड़े पड़े मन नही लगता !” ईश्वरदयाल जी वहाँ से उठकर जाने लगे। 

” रुकिए पिताजी मैं भी आपके साथ चलती हूँ मुझे कुछ काम है बाजार मे !” नीता कुछ सोच कर बोली और तैयार हो ससुर के साथ स्कूटी पर निकल गई। 

” बेटा तुम यहां क्यो आई हो ?” एक जगह नीता को स्कूटी रोकते देख बोले।

” चलिए तो पिताजी मुझे घर के लिए थोड़े पौधे लेने है बस वो ले लूं फिर चलते है !” नीता बोली। 

ईश्वरदयाल जी नर्सरी मे आ बहुत उत्साहित हुए जमीन से जुड़े इंसान थे , हमेशा पेड़ पौधो साथ रहे है तो यहाँ इतनी किस्म के पौधे देख उत्साहित थे । नीता ने उनकी राय से कुछ पौधे खरीदे और घर आ गई । 

” अरे बहू ये क्या ऐसे कैसे लगा रही हो तुम पौधे ऐसे नही लगते !” नीता को पौधे गमलो मे लगाते देख ईश्वरदयाल जी बोले। 

” पिताजी आप ही बता दीजिये मुझे तो इन सबकी कुछ समझ नही !” नीता बोली। 

अब ईश्वरदयाल जी बड़े जतन से एक एक पौधे को गमले मे लगाने लगे । साथ साथ नीता को उन पौधो के बारे मे , उनकी देखभाल के बारे मे बताते जा रहे थे । दोनो बच्चे जब कॉलेज से आये तो आज दादाजी को अलग जोश मे देखा वो भी अपने दादाजी की बाते सुनने लगे । 

” बेटा अब इनकी देखभाल अच्छे से करना जैसे एक बच्चे की करते है , तभी ये सही तरह से पनपेंगे !” सब पौधे लगाने के बाद ईश्वरदयाल जी बोले। 

” पिताजी मेरे पास इतना समय कहाँ अब इनकी देखभाल तो आपको ही करनी है !” नीता मुस्कुरा कर बोली।

” नीता ये क्या तरीका है तुम पिताजी को इस उम्र मे ऐसा काम कैसे सौंप सकती हो तुम्हे शौक है पौधो का तो तुम खुद देखो !” ऑफिस से लौटा माधव बोला।

” नही बेटा मैं कर लूंगा !” ईश्वरदयाल जी बोले और हाथ धोने चले गये। 

” आप भी ना कुछ नही समझते , पिताजी सारा दिन बोर से होते है , उदास रहते है ना ठीक से खाते पीते इसलिए मैं ये पौधे लाई हूँ जिससे उनका मन लगा रहेगा क्योकि पेड़ पौधो से बढ़कर कोई साथी नही होता इससे वो मांजी की यादों से भी कुछ समय को बाहर आएंगे !” नीता पति से बोली जिसे ईश्वरदयाल जी ने सुन लिया । उनकी आँखे नम हो गई क्योकि आज सच मे उन्हे पेड़ पौधो साथ वक्त बिता अच्छा लगा था। 

” वाह मम्मी आप तो ग्रेट हो ..चलो अब बढ़िया सी चाय पिला दो !” अंश माँ के गले मे बाहें डाल बोला।

” वो …बेटा कुछ खाने को भी ले आना थोड़ी भूख लगी है !” ईश्वरदयाल जी पीछे से बोले तो सब हैरान रह गये आज पिताजी ने खुद से कुछ मांगा था। नीता फटाफट पकौड़े और चाय बना लाई सब एक साथ खा रहे थे । 

” कितना नादान था मैं जो दूसरों की बाते सुन सुन ये सोचता था बेटे के घर मेरे जीवन की सांझ कैसे कटेगी पर जब बेटा बहू इतने अच्छे हो तो फ़िक्र की क्या बात !” नम आँखों से ईश्वरदयाल जी बोले । नीता समझ गई पिताजी ने उसकी बात सुन ली है । 

” और हम अच्छे नही है ?” अदिति और अंश एक साथ बोले। 

” तुम तो मेरी आँख के तारे हो बच्चो तुममें तो मैं तुम्हारे पापा और बुआ की छवि देखता हूँ । सच हमने यहाँ आने मे देर कर दी वरना तुम्हारी दादी भी परिवार का सुख देख लेती !” ये बोल ईश्वरदयाल जी ने दोनो को गले लगा लिया। सबकी आँख नम थी पर सब खुश थे आखिरकार पिताजी ने उन्हे अपना लिया था। 

अगले दिन से ईश्वरदयाल जी का काफी समय पेड़ पौधो के साथ बितने लगा । थकने की वजह से उन्हे भूख भी अच्छी लगती थी अब और वो अपने कमरे से निकल सबके साथ भी समय बिताने लगे। नीता के साथ जाकर पौधो के लिए जरूरी सामान लाते , नए पौधे लाते । अब जहाँ उन पौधो ने घर को खूबसूरत बना दिया था वही ईश्वरदयाल जी की जिंदगी भी फिर से खिल गई थी । 

दोस्तों जीवन की ढलती साँझ मे माता पिता को बच्चो के थोड़े से साथ की जरूरत होती है । बच्चो की उपेक्षा ना केवल उनका मन बल्कि तन भी थका देती है उन्हे वक्त से पहले बूढा बना देती है । वही जब बच्चे उनके बारे मे कुछ सोचते है तो उनका जोश देखते ही बनता है । यही तो चाहते है हमारे बुजुर्ग अपने जीवन की ढलती साँझ मे । 

आपकी दोस्त 

संगीता अग्रवाल

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