शहर की हलचल और भागदौड़ से भरी इस ज़िंदगी में समय जैसे पंख लगाकर उड़ता है। ऑफिस के लंबे घंटे, परिवार की जिम्मेदारियां और अपने सपनों के पीछे भागते इंसान को शायद ही यह अहसास होता है कि उसकी ज़िंदगी की घड़ी धीरे-धीरे ढल रही है।
यह कहानी एक ऐसे व्यक्ति, आदित्य मल्होत्रा की है, जो जीवन की “ढलती सांझ” में अपने मायने खोजने की कोशिश कर रहा था।आदित्य मल्होत्रा का जीवन बाहर से जितना सफल और शानदार दिखता था, अंदर से उतना ही खाली और अकेला था। दिल्ली के पॉश इलाके में उनका आलीशान अपार्टमेंट, गाड़ी और नामी बिज़नेस उनकी सफलता की कहानियां सुनाते थे। लेकिन उनकी आंखों के पीछे एक खालीपन छिपा था, जिसे शायद ही कोई देख पाता।
आदित्य 65 साल के हो चुके थे। उम्र के इस पड़ाव पर उन्होंने खुद को रिटायर कर लिया था। दिनभर घर में रहना, अखबार पढ़ना, और खिड़की से बाहर झांकना अब उनकी दिनचर्या बन गई थी। उनकी पत्नी, प्रिया, जो कभी हमेशा उनके साथ हर मोड़ पर खड़ी रही थी, बीमारियों से हारकर कम उम्र में ही उनका साथ छोड़ चुकी थी और उनका इकलौता बेटा, करण, सालों पहले अमेरिका में बस चुका था। करण से बात किए हुए महीनों बीत जाते थे। आदित्य की ज़िंदगी में सबकुछ था—धन, संपत्ति, और आराम, लेकिन अगर कुछ नहीं था, तो वह था अपनापन।
एक सर्द ढलती सांझ थी। आदित्य मल्होत्रा बालकनी में अपनी आरामकुर्सी पर बैठे थे। सूरज धीरे-धीरे क्षितिज के पीछे डूब रहा था। आसमान में नारंगी रंग की छटा फैल गई थी, जो मानो आदित्य के जीवन की सांझ का प्रतीक हो। उन्होंने गहरी सांस लेते हुए चाय का घूंट लिया और आंखें बंद कर लीं। उनके दिमाग में पुरानी यादें दौड़ने लगीं। वह अपनी पत्नी प्रिया को याद किया करते थे।
उन्हें याद आया कि कैसे उन्होंने अपनी ज़िंदगी का हर पल अपने बिज़नेस को सफल बनाने में लगा दिया था। उनके लिए ऑफिस, प्रोजेक्ट और मीटिंग ही सबकुछ थे। करण के बचपन की मुस्कान, उसकी मासूम शरारतें, और उसकी छोटी-छोटी ख्वाहिशें, सबकुछ काम की भागदौड़ में पीछे छूट गया था।
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आदित्य को वे दिन याद आते थे जब प्रिया अक्सर उन्हें समझाती थी, “आदित्य, ज़िंदगी सिर्फ पैसे कमाने के लिए नहीं होती। तुम्हारे पास करण के बचपन के पल वापस नहीं आएंगे।” लेकिन आदित्य हर बार यही जवाब देते, “प्रिया, मैं यह सब करण के भविष्य के लिए ही कर रहा हूं। एक दिन वह समझेगा।”
आज, इस उम्र में आदित्य को महसूस हो रहा था कि करण ने शायद कभी नहीं समझा या हो सकता है कि आदित्य ही उसे समझ नहीं पाए।
उसी शाम, आदित्य का फोन अचानक बजा। उन्होंने फोन उठाया और दूसरी ओर से आवाज आई, “आदित्य, मैं रघुवीर बोल रहा हूं। याद है, कॉलेज के दिन?”
रघुवीर उनका कॉलेज का सबसे अच्छा दोस्त था। लेकिन वक्त और जिम्मेदारियों ने उन दोनों को अलग कर दिया था। उस कॉल ने आदित्य के अंदर कुछ पुरानी यादों को जगा दिया।
“रघु! इतने सालों बाद! कैसे हो तुम?” आदित्य ने उत्साह भरी आवाज में पूछा।
रघुवीर हंसते हुए बोला, “बस, ज़िंदगी कट रही है। लेकिन तेरे बारे में सुना कि तू बड़ा आदमी बन गया है। कभी दोस्तों को भी याद कर लिया कर।”
आदित्य हंसा, लेकिन उस हंसी में वह पहले वाली खुशी नहीं थी।
रघुवीर ने कहा, “कल मिलते हैं, यार। मुझे तुझसे कुछ बातें करनी हैं।”
अगले दिन, दोनों पुराने दोस्त एक छोटे से कैफे में मिले। रघुवीर अब भी वही खुशमिजाज इंसान था, जैसा आदित्य ने उसे याद किया था। लेकिन आदित्य मल्होत्रा के चेहरे पर वही चमक नहीं थी। उनकी आंखों में एक खोया हुआ सन्नाटा था।
चाय का पहला घूंट लेते हुए रघुवीर ने कहा, “आदित्य, तू तो अब बड़ा आदमी बन गया है। तुझसे मिलने के लिए भी वक्त लेना पड़ेगा!”
आदित्य ने फीकी हंसी के साथ कहा, “बड़ा आदमी? हां, शायद। लेकिन रघु, बड़ा आदमी बनते-बनते मैं छोटा इंसान बन गया।”
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रघुवीर ने हैरानी से पूछा, “क्या मतलब?”
आदित्य ने गहरी सांस ली और बोला, “रघु, मैंने अपनी पूरी ज़िंदगी दौलत कमाने में बिता दी। लेकिन आज, जब मेरे पास सबकुछ है, तो मुझे समझ नहीं आता कि यह सब किसके लिए था। करण दूर है, प्रिया बीमार है, और मैं… मैं बस खाली हूं।”
रघुवीर ने उसकी आंखों में देखा। “यार, तूने अपने सपनों के पीछे दौड़ते-दौड़ते अपने अपनों को पीछे छोड़ दिया। अब जब सपने पूरे हो गए, तो अपने छूट गए।”
आदित्य की आंखों में आंसू आ गए। उसने कांपते हुए हाथों से अपनी चाय उठाई और कहा, “मैंने सोचा था कि पैसा सबकुछ सुलझा देगा। लेकिन पैसे ने मेरी ज़िंदगी और उलझा दी। अब मैं उस ढलते सूरज की तरह हूं, जो सिर्फ अपनी रोशनी खोता जा रहा है।”
रघुवीर ने उसकी बात सुनी और बोला, “आदित्य, ज़िंदगी की ढलती सांझ में सबसे बड़ी जरूरत अपनेपन की होती है। अगर करण से दूरी है, तो उसे कम करने की कोशिश कर। प्रिया के साथ वक्त बिता। अभी भी वक्त है।”
आदित्य ने धीरे से सिर हिलाया। उसने मन ही मन तय किया कि वह अपनी गलतियों को सुधारने की कोशिश करेगा।
उस शाम, आदित्य ने करण को फोन किया। करण ने फोन उठाते ही कहा, “डैड, सब ठीक है?”
आदित्य की आवाज थोड़ी भर्राई हुई थी। “करण, मैं तुमसे बात करना चाहता हूं। क्या तुम कुछ दिनों के लिए घर आ सकते हो?”
करण ने थोड़ी देर चुप रहकर कहा, “डैड, मैं बहुत बिजी हूं। लेकिन मैं कोशिश करूंगा।”
आदित्य ने फोन रख दिया। वह समझ गए थे कि यह वही जवाब था जो वह करण को उसकी जरूरत के वक्त देते थे।
लेकिन इस बार, आदित्य ने हार नहीं मानी। उन्होंने करण के पास एक लंबा ईमेल लिखा, जिसमें अपने दिल की हर बात कही। उन्होंने करण को बताया कि कैसे वह उसे याद करते हैं, और उन्होंने अपने अतीत की गलतियों के लिए माफी मांगी।
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कुछ हफ्तों बाद, करण ने अपने पिता के दरवाजे पर दस्तक दी। आदित्य ने जब दरवाजा खोला, तो उनके सामने उनका बेटा खड़ा था। उसके हाथ में फूलों का गुलदस्ता और आंखों में आंसू थे।
करण ने आदित्य को गले लगाते हुए कहा, “डैड, आपने कभी यह सब मुझसे पहले क्यों नहीं कहा? मुझे माफ कर दो। मैं भी आपका साथ नहीं दे पाया।”
आदित्य ने उसे गले लगाते हुए कहा, “करण, मैंने तुम्हें बहुत देर से समझा। लेकिन अब मैं तुम्हारे साथ हर पल जीना चाहता हूं।”
उस दिन आदित्य मल्होत्रा की ढलती सांझ में फिर से रोशनी आ गई। उन्होंने अपने रिश्तों को फिर से संजोने का वादा किया। अब उनके पास सिर्फ दौलत ही नहीं, बल्कि अपनों का प्यार भी था।
जीवन की ढलती सांझ में धन-दौलत से ज्यादा जरूरी अपनेपन और रिश्तों का होना है। जब तक समय है, अपनों के साथ समय बिताइए। क्योंकि ढलती हुई सांझ को वापस सुबह में बदलना मुश्किल होता है।
समाप्त
प्रस्तुतकर्ता
डा.शुभ्रा वार्ष्णेय