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ढाई आखर – अमित किशोर 

शादी का मंडप सजा हुआ था। धूम धाम से शादी की तैयारियां थी। घर की पहली और एकमात्र बेटी की शादी के लिए प्रकाश जी ने कोई कसर न छोड़ रखी थी। एक एक चीज पर ध्यान खुद से से रहे थें। स्मिता के जाने के बाद से सुरभि को मां बाप दोनों का ही प्यार दिया था। और, आज जब सुरभि विदा हो रही थी, रह रहकर स्मिता याद आ रही थी। वो सब बातें, याद आ रही थी, जो प्रकाश जी और स्मिता ने सुरभि के जन्म के समय की थी। स्मिता ने कहा था, ” लो, आ गई, आपकी राजकुमारी। इसके लिए हम दोनों एक राजकुमार लायेंगे। देखिए तो बिटिया के जन्म के साथ ही उसकी विदाई की भी बात सोच रहे हैं, हम दोनों। यही बदलाव आता है, जब हम एक बेटी के मां बाप बनते हैं।”

बड़े नाजों से स्मिता के बिन सुरभि को पाला था प्रकाश जी ने। कहीं कोई कमी नहीं रखी। और सुरभि के लिए ही कभी दूसरी शादी के लिए नहीं सोचा। बस इतना ही सोचा कि बेटी के सहारे, बेटी की देखभाल में ही जिंदगी गुजार देंगे और अपने से किए हुए वादे को प्रकाश जी ने बखूबी निभाया भी। सुरभि मात्र उनकी संतान ही नहीं थी, मान सम्मान गुरुर सब कुछ थी। कभी कभी सोचते कि सुरभि के चले जाने के बाद आखिर वो कैसे रह पाएंगे !! ” पर दुनिया के रिवाजों के सामने मजबूर थें। न चाहकर भी उन्हें वो करना पड़ रहा था जिसे दुनिया में जग की रीत कहा जाता है। 

सुरभि एक मल्टीनेशनल कंपनी में बढ़िया जॉब करती थी। छह अंकों में उसकी तनख्वाह आती हर महीने। सैलरी वाले दिन दोनों बाप बेटी एक महंगे रेस्टोरेंट में जाते और बाहर का खाना खाते। ये एक नियम बना लिया था सुरभि और प्रकाश जी ने आपस में। जब सुरभि की शादी ठीक हुई तो प्रकाश जी ने मजाक में ही कहा सुरभि से, ” तुम्हारी शादी के बाद तो ये रीत तो खत्म हो जाएगी, बेटा।” ये सुनकर सुरभि की आंखों में नमी आ गई। प्रणव को ये सभी बातें पहले से ही मालूम होती थी। आखिर, गहरी दोस्ती ने ही आज सुरभि को जीवनसाथी स्वीकार करना चाहा था। प्रणव और सुरभि कई सालों से एक ही कंपनी में काम करते थें। दोस्ती हुई, फिर प्यार हुआ और अब शादी भी हो रही थी। ये प्यार कोई लैला मजनू वाला नहीं था और न ही एकतरफा ही था। ढाई आखर में सिमट जाने वाला प्रेम सात जन्मों का करार था। इस ढाई आखर के प्यार में एक दूजे के प्रति समझ, समर्पण और साथ का वादा था। ऐसा लगता था कि दोनों एक दूजे के लिए ही बने हो। स्कूल में साथ साथ पढ़े, कॉलेज में साथ साथ बढ़े और अब एक दूजे का साथ जिंदगी भर निभाने की कसमें थी। 




आखिरकार शादी का दिन भी आ पहुंचा। बरात द्वार पर लग गई। प्रणव दूल्हे के पोशाक में किसी राजकुमार से कम नहीं दिख रहा था जो अपनी सुरभि को लाने के लिए प्रकाश जी के पास आया था।सोलह श्रृंगार किए हुए सुरभि मुस्कुराती हुई प्रणव के सामने आई। प्रणव उसे एकटक निहारता ही रह गया पर कहीं न कहीं सुरभि के आंखों में उसे उदासी भी दिखी। बरसों का साथ था,एक झटके में जान गया कि उसकी सुरभि उसके साथ की खुशी के बजाय अपना घर छूट जाने से कहीं ज्यादा दुखी थी। उसे वो उदासी खल रही थी। 

जयमाल हुआ और शादी की शुरुवात हुई। अगले एक घंटे में शादी और फेरों की प्रक्रिया शुरू होने वाली थी।प्रणव बार बार सुरभि की आंखों में कुछ ढूंढने की कोशिश कर रहा था। पर वो चीज क्या थी, ये बस सुरभि को ही पता था।

जैसे ही फेरों की रस्में शुरू हुई, प्रणव ने बिना कुछ सोचे समझे सुरभि का हाथ थामा और सीधे पहुंच गया प्रकाश जी के पास। प्रकाश जी विवाह वेदी की तैयारियों को अंतिम रूप दे रहे थें तभी अपनी बेटी और दामाद को अचानक से अपने सामने पाया। एक दम से ताज्जुब में पड़ गए सभी कि ऐसा क्या हुआ या ऐसी क्या बात हुई कि प्रणव को ऐसे उठकर आना पड़ा। प्रणव ने हाथ जोड़कर प्रकाश जी से कहा, ” पापा, दहेज को लेकर तो अपनी बात हुई नहीं। मेरे पापा को दहेज नहीं चाहिए, ये बात सही है, पर, मुझे तो चाहिए दहेज। अभी शादी हुई नहीं है, तो, यही वक्त है कि हम सब इस बारे में जरूरी कुछ बातें कर लें।”




अजीब सा सन्नाटा पसार गया पूरे माहौल में। सुरभि का तो मन किया एक थप्पड़ जड़ दे प्रणव के गालों पर। इतने दिन की जान पहचान में कभी जान ही नहीं पाई या कभी सोच ही नहीं पाई कि प्रणव जैसा सुलझा हुआ इंसान ऐसी घटिया बातें भी कर सकता है। प्रकाश जी और सुरभि दोनों एक दूसरे का चेहरा देख रहे थें और दोनों को ही कुछ समझ में नहीं आ पा रहा था। इस सन्नाटे को तोड़ते हुए प्रणव ने कहा, ” पापा, सुरभि की आंखों में मैंने हमेशा ही एक खुशी, एक एहसास देखा है पर आज जब उसे अपने साथ ले जाने आया हूं तो उदासी मुझे साफ साफ दिख रही है। आप ही बताइए, मैं कैसे अपनी आधी अधूरी सुरभि को अपने साथ ले जाऊं ? हां, मुझे दहेज तो चाहिए पर दहेज में मुझे आप चाहिए, पापा। मैं सुरभि को मुस्कुराते हुए ले जाना चाहता हूं अपने साथ। आंसू बहाती सुरभि, मुझे बिल्कुल ही पसंद नहीं। ” 

सुरभि की आंखों में प्रणव के लिए इज्जत और भी बढ़ गई। प्रकाश जी ने महसूस किया कि बेटी को विदा तो किया उन्होंने पर एक बेटा भी घर आया। परिवार की अवधारणा को प्रणव ने अपनी सूझबूझ और व्यवहार से साकार किया था। जीवन साथी होने का दायित्व भी निभाया और एक दामाद होने का कर्तव्य भी बखूबी पूरा किया प्रणव ने। सुरभि ने भी अपने पिता से कहा, ” पापा, मना मत कीजिएगा। सैलरी वाले दिन मैं अकेले नहीं रहना चाहती। ये रीत हम दोनों ने बनाई है और इसमें दुनिया जहां की कोई दखलंदाजी नहीं मंजूर मुझे। आपको हमारे साथ चलना ही होगा।” प्रकाश जी बेटी और दामाद के इस आग्रह को नकार न सके। सच कहें, तो , नकारना ही नहीं चाहते थें। स्मिता को याद करते हुए , हां में गर्दन हिलाकर अपनी हामी भरी। सुरभि के मांग में जब प्रणव ने सिंदूर डाला तो एक साथ कई परिवार पूरे हो गए, एहसास ने फिर जिंदगी वाली सांस ली और एक नए मिसाल ने लोगों के सामने दस्तक दी।

स्वरचित मौलिक एवं अप्रकाशित

#5वा_जन्मोत्सव #जन्मदिवस_विशेषांक

बेटियां जन्मोत्सव कहानी प्रतियोगिता

कहानी : चतुर्थ

 अमित किशोर

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