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दर्द जो समय के साथ मरहम बन गया – शुभ्र बेनेर्जी

अभी पिछले साल ही मंगला (काम वाली दीदी)ने कुछ पैसों की मांग की थी,बेटी की शादी के लिए।सुधा ने जब सुमित को बताया ,उन्होंने तुरंत हां कह दी।दस हजार रुपए दे दिए मंगला को।मंगला‌ ने खुश होकर कहा कि वो जल्दी लौटा देगी पैसे।सुधा ने अलग से कपड़े और बर्तन भी दिए अपनी तरफ से।दो दिन के बाद ही मंगला‌ के बेटे की भी शादी हो गई।कितनी उत्साहित थी मंगला।बेटे की तारीफ़ करते नहीं थकती थी।हमेशा कहती दीदी देखना मेरा बेटा बाहर काम करने जाएगा,बहू घर संभाल लेगी।जैसे-जैसे दिन‌ बीतते गए,मंगला की कहानी में नए-नए मोड़ आते रहे।मंगला के दुख और दर्द से भीतर तक जुड़ी थी सुधा।मंगला के चेहरे में विषाद की रेखाएं सिमटने लगीं।आंखें निष्प्राण सी होने लगी।बहुत पूछने पर बोली एक दिन ,दीदी बेटा बहू को लेकर चला गया।यहां बहू का मन नहीं लगता।

रुपयों की बात करी तो बोला तुमने लिया है तुम ही जानो। सुधा कोसने लगी मंगला के बेटे को।मां ने कितने चाव से शादी की थी और नालायक ऐसा बोला।सुमित भी उसका मजाक उड़ाते कि किस कदर जुड़ गई है वह मंगला से।अचानक एक दिन सुमित की तबीयत खराब हुई।जांच करवाने पर पता चला किडनी में परेशानी है।शुगर की वज़ह से खराब हो गई है एक किडनी।सुनकर सकते में आ गई सुधा।किडनी की बीमारी तो गंभीर होती है।सुमित की हालत भी अच्छी नहीं थी सुनकर।एक सुई से डरने वाले इंसान को डायलिसिस की प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा।ये तो आत्मबल था सुमित का कि कुछ महीने रोके रखा अपना डायलिसिस।पर आखिर में करवाना ही पड़ा।सुधा ने जी जान लगा दिया पति के इलाज में।बेटे के साथ बाहर भी ले जाकर दिखा लाई।सभी जगह से एक ही जवाब मिला-डायलिसिस।बेटे के ऊपर घर-बाहर की जिम्मेदारी आ गई।सुधा का स्कूल भी था।जैसे तेसे सब संभाल रही थी वह।बीच में पैसों की तंगी भी आ गई।मंगला‌ को एक दिन याद भी दिलाया पैसे वापस करने का वादा।मंगला निरुपाय थी।हर रात रोटी बनाते समय मंगला एक नई कहानी सुनाती बेटे की।सुधा को उसका दर्द अपना ही लगता। बेटी बाहर पढ़ रही थी।कोशिश में घर आने पर उसने जब पापा को देखा तो सरल शब्दों में सुधा को समझा दिया‌ था कि हालत अच्छी नहीं है।मम्मी अपने आप को मजबूत करो।तुम्हें तैयार रहना है आने वाले संकट के लिए।सुधा सन्न‌ रह गई।ऐसा नहीं था कि वह हकीकत से अनभिज्ञ थी।कहीं ना कहीं मन में मगर इस भी थी कि सुमित ठीक हो जाएंगे।जब सुधा हायर सेकंडरी में थी तब उसके पापा गुज़र गए थे।

घर में पांच भाई -बहनों में सबसे बड़ी होने के कारण,पापा के जाने के बाद घर की जिम्मेदारी उसी ने उठाई। खूबसूरती को उसने अनुशासन के खोल में छिपा लिया था।बचपना विदा‌ ले चुका था और यौवन को उसने करीब आने ना दिया।सारा दर्द भूलकर स्कूल की नौकरी और ट्यूशन करने लगी थी।बहुत नाम था उसका।कभी किसी के पास हाथ नहीं जोड़े उसने। स्वाभिमान से पैसे कमाकर घर चलाया था।दर्द संभालने का हुनर अपने आप आ गया था।आज बेटी भी उसी दर्द के सम्मुख है,यही दर्द सताता रहा उसे।उसकी बेटी दर्द की राजदार थी।वैसे वो बदनाम थी कि बेटा लाड़ला है पर उसके अंतर्मन को बेटी समझती थी।उसके दर्द का अहसास मुझे नहीं तो किस को होगा।



सुमित का डायलिसिस शुरू हो चुका था।मंगला का बेटा घर छोड़कर जा‌ चुका था।सुमित की लंबी बीमारी के कारण सुधा के लिए घर चलाना बहुत मुश्किल हो रहा था।जब-जब सोचती आज तो मंगला से पैसों की बात करके ही रहेगी,उसका दर्द से कराहता चेहरा देखकर हिम्मत ही नहीं हुई।सुना है आजकल‌ मंगला के पति भी बीमार हैं।बेटे ने पहले ही हांथ खड़े कर लिए।ओह!मेरा बेटा तो श्रवण कुमार है।कितने सहज रूप से पापा की देखभाल करता है,घर की जिम्मेदारी मेरे साथ हंसकर उठा रखा है।मैं गर्व से कह सकती हूं अपने बच्चों को दर्द से सींचकर अच्छा इंसान बना पाई । सुमित दिन-प्रतिदिन कमजोर होते जा रहे थे।ऊपर से एक दिन सासू मां बगीचे में ऐसी गिरीं कि हिप्स इंज्यूरी हो गई।आपरेशन करवाना पड़ा ,बेटा अकेला ही लेकर गया।सुमित को सुधा छोड़ नहीं सकती थी अकेले।अब घर में दो मरीज़।सासू मां और सुमित ।बेटी ने सुधा का काम आने से ज्यादा अपने सर ले लिया था।बहुत हिम्मती थी।लोग कहते हैं बिल्कुल मां की तरह है। सुमित को फिर से रायपुर ले जाना पड़ा।बेटा अकेला गया इस बार।सुमित के चेहरे में निराशा और दुख की रेखा देख सकती थी सुधा।कोई भी पिता अपनी औलाद‌के सामने लाचार नहीं दिखना चाहता,पर सासू मां के बिस्तर में होने की वजह से सुधा नहीं जा पाई साथ।ऐसा पहली बार हुआ था।सासू मां रोकर बोलीं भी कि तुम साथ होती हो तो सावित्री की तरह मेरे बेटे को वापस लेकर आती हो।

इस बार मेरी वजह से तुम नहीं जा पाई। सुमित को हास्पिटल‌ पहुंचते ही वैंटिलैटर पर डाल दिया गया।बेटे के लिए यह किसी सदमें से कम ना था।पापा से उसकी आंखों में बात होती थी।रोज़ एक ही बात बोलता मम्मी एक बार आकर मिल लो,देख लो‌ पापा को।तुम्हें ढूंढ़ती रहती हैं उनकी आंखें,और मेरे दर्द की इंतिहा थी कि सासू मां को छोड़कर जाना मुनासिब ना था।बेटी ने जिद‌ करके कुछ दिनों बाद मुझे भेज ही दिया सुमित के पास।वैंटीलेटर में पड़े उस असहाय आदमी को तो नहीं पहचानती थी सुधा,जिसके नाक में गुस्सा रखा रहता था।जिसके सामने सुधा मिमियाती रहती थी।जो एक हड्डी का शरीर लिए हांथी के बराबर काम करता हो,उसे इस तरह मशीन के सहारे देखना असह्य था सुधा के लिए।वैंटीलेटर की आवाज से मानों उसके कानों में सीसा घुल रहा था।बेटे ने समझाया पापा के कान के पास बोलो,वो पहचान जाएंगे।सुधा ने डरते-डरते जैसे ही सुमित के कानों में कहा मैं आ गई हूं ना,अब घर चलेंगे हम।सुमित ने तुरंत आंखें खोली। निर्जीव से शरीर में हरकत होने लगी।आंखें चमकने लगीं उनकी।इस इंसान के साथ २८ साल गुजारें हैं।हर सुख में दुख में साथ ही रही।

इन्होंने भी मेरे मायके की हर जिम्मेदारी को अपना समझा।मेरे भाई -बहनों को सहारा दिया।आज उस इंसान को इस अवस्था में देखने के लिए कहां से आई हिम्मत मुझमें।सुधा कुछ दिन रुककर घर वापस आ चुकी थी।ठीक दूसरे दिन बेटे ने अपनी बहन को फोन पर बताया पापा नहीं रहे।मम्मी का ही रास्ता देख रहे थे।बेटी ने हिम्मत दिखाते हुए सुधा को बताया साथ में हिदायत भी दी कि रोना नहीं ,दादी को पता चला तो वो सह नहीं पाऊंगी।उनका दर्द क्या हमारे दर्द से कम है?कितनी बड़ी बात कही थी बेटी ने।वो तो मां है,हमसे ज्यादा समय बिताया है उन्होंने सुमित के साथ।अपनी कोख में रखा था उन्हें।आज फिर मेरा दर्द दूसरे के दर्द से हार गया।सुमित को श्मशान ले जाते समय सासू मां का डायपर बदल रही थी सुधा।पूरा घर भरा था लोगों से।स्कूल से सारे टीचर्स आए थे।एक ने तो झिंझोड़ कर कहा रो लीजिए आप प्लीज। आज फिर मेरे दर्द ने मुझे हिम्मत दी।



नहाने के समय बेटी ने हल्के रंग की सलवार कमीज़ देकर कहा मम्मी ,सफेद मत पहनो,इसे ही पहनो।और हां आपके माथे का सिंदूर कोई और नहीं पोंछेगा,आप खुद ही पोंछो,हिम्मती हो ना तुम।लाल और सफेद शंख की चूड़ियां ख़ुद ही उतारोगी तुम।सुधा ने किया भी।ख़ुद अपने हाथों से स्वयं को विधवा वेष पहनाया।रोकर बेहोश होने की इजाज़त नहीं दी उसे वक्त ने ,ना तब जब पापा गए और न अब जब पति गए।पहाड़ जैसा लगता था दिन।ना स्कूल,ना सुमित के काम।यही सोचती रही सुधा कि उसके दर्द ने उसे जीना सिखा दिया।मर तो नहीं गई पति के जाने के बाद।हर‌दर्द ख़ुद मरहम बन जाता है एक वक्त के बाद।आज सुधा अपने दर्द को सहेजे जी रही है ना।मंगला की कहानियों में जैसे बदलाव‌आ रहें हैं,उसके जीवन में भी आएंगे।बेटे को नौकरी मिल‌ गई।बेटी की भी जॉब लग गई।सुधा के तो सुख के दिन आ गए।पर सुधा‌ अपने दर्द का अहसान मानना नहीं भूलती।कितना कुछ नया सिखा दिया इस दर्द ने।अब बड़ी आसानी से माफ़ कर देती है ,किसी बात को दिल से नहीं लगाती,बेटे से अपेक्षाएं जो बहुत ज्यादा थीं अब शून्य रह गई।सच कहती थी दादी जितना जोर अपने पिता और पति पर रहता है, औरत का उतना किसी और पर नहीं।अभी तो अप्रत्याशित ऐसे बहुत सारे कड़वे सत्य हैं जो उसके जीवन में आएंगे।मंगला की कहानी सुनकर वह भी तो तैयार करती रही ख़ुद को।

स्कूल छोड़कर कितना रोई थी सुधा,पर बेटी ने समझाया मम्मी अब ईश्वर ने कुछ समय तुम्हें दिया है , सिर्फ तुम्हारे लिए।तुम लिखो ,पढ़ो अपनी पसंद के शावर, टहलने जाओ शाम को रोज़।अपना ध्यान रखो सिर्फ अपना।हां रे बेटी की दार्शनिक बातें सुनकर सुधा हंस देती।सच ही कहा बेटी ने ये उसके जीवन का अल्पविराम है पूर्ण विराम नहीं।उसके पुराने दर्द अब इतने पक्के हो गएं हैं कि अब और कोई नया दर्द दर्द नहीं देगा।इसी दर्द में ही तो सुख का स्वाद चखा उसने।यह दर्द उसे आत्मा का मंथन करना सिखा देता है,जीवन भर की भटकन समाप्त हो गई। अभिलाषा , आकांक्षाओं की मानो विदाई हो गई है उसके मन से।मेरा “अहं”अब दूसरों के अहं को संतुष्ट नहीं करता।यह दर्द जमते-जमते समय के साथ कब मरहम बन गया ,सुधा भी अनभिज्ञ थी। आध्यात्मिक ज्ञान यही है शायद।हां मैंने स्वयं को पा लिया। पूर्ण हो गई मैं।सुधा अमरत्व का वरदान पाई हुई है।,् ।
शुभ्र बेनेर्जी
# दर्द

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