दर्द अपना-अपना * –   पुष्पा जोशी

‘कुछ नहीं होने दूंगा मैं आपको।’ बिना सम्बोधन के ही उसने कहा था ‘अभी जीना है आपको,पोते पोतियों को गोद में खिलाना है, आप चिंता न करें कुछ नहीं होने दूंगा मैं आपको।’ क्या था उसकी आवाज में, और उसकी आँखों में कि मैं उसे देखती रह गई।पहली बार ही मिली थी मैं डॉक्टर अविनाश से,अब तक सिर्फ नाम सुना था।

मोहित ने कहॉ – ‘डॉक्टर साहब मेरी माँ बहुत हौंसला रखती है, वे किसी बात की चिन्ता नहीं करती ।’ ‘आपसे कुछ नहीं कहेंगी ये,माँ है ना, मैंने इनकी आँखों में देखा है। चिन्ता तो ये……करती हैं।….करती हैं न आप चिंता ?’ फिर तनिक हँस कर,उसने बात पलट दी, और मोहित से कहा – ‘सात दिन की दवा लिखी है,सात दिन बाद देखते हैं, फिर मुझसे बोला – ‘आप परेशान न हों।’ मैं कुछ कहना चाह रही थी,मगर कैसे कहती, मैं बोल ही तो नहीं पा रही थी, और यही समस्या लेकर मैं डॉक्टर अविनाश के पास आई थी। मेरी आवाज मुझसे रुठ गई थी। कण्ठ से आवाज नहीं निकल रही थी।

अविनाश कान,नाक,गले का स्पेशलिस्ट था। मैं सोच रही थी मेरे मन की बात डॉक्टर ने कैसे जान ली।जैसे कोई जादूगर हो। मैं सात दिन बाद उससे फिर मिली। डॉक्टर अविनाश ने कुछ टेस्ट लिखे। मोहित ने सारी टेस्ट करवाकर रिपोर्ट डॉक्टर को दिखलाई। वह बोला – ‘कुछ भी नहीं हुआ है आपको ।आप सात दिनों में फिर बोलने लग जाएंगी।’

उसने मोहित से कुछ बातें की। दूसरे दिन मोहित मुझे फिर डॉक्टर के पास ले गया बोला, ‘माँ एक जांच और करवानी है।’ मन में कुछ खटका हुआ,मगर तभी वे शब्द कानों में गूंजे – ‘कुछ नहीं होने दूंगा मैं आपको।’ डॉक्टर ने मुझे धीरे से कहा -‘एक छोटा सा आपरेशन करना पड़ेगा माँ! आप चिंता मत करना, मैं हूँ ना, मैं कुछ नहीं होने दूंगा आपको।’ मैं अवाक देखती रही, उसका मुझे माँ कहना एक असीम शांति से भर गया ।

मैंने शांति से आँखें मूंद ली, उसके बाद मुझे कुछ नहीं मालूम क्या हुआ।जब आँखें खोली तो मैं अस्पताल के एक कमरे में थी, डॉक्टर ने कहा- ‘परसों आप घर जा सकेंगी, आपरेशन बहुत अच्छे से हो गया है।’ दो दिन अस्पताल में रही। डॉ.अविनाश आता और अपनी बातों से मेरे हृदय के तार झनझना कर चला जाता। अस्पताल से छुट्टी हो गई और मैं घर आ ग‌ई।

आज चार साल हो गए उस घटना को। मगर उसे भूल नहीं पाई हूँ, मेरी आवाज लौटा कर मेरे जीवन को खुशियों से भर दिया उसने।यह संगीत ही तो है जिसने मुझे मधुर से मिलाया था। यह आवाज ही तो थी जिसके कई दिवानेे थे। कॉलेज समय में जब मैं गाती थी, तो हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठता था,मेरा हर गीत मधुर रिकार्ड कर लेते थे, यह तो मुझे तब मालुम हुआ जब एक बार उन्होंने कहॉ- ‘स्वरा मैंने कुछ गीत लिखे हैं, क्याआप इन्हें स्वर दे सकती है?

मैं आपकी आवाज में अपने गीत को ढालना चाहता हूँ।’ सुन्दर,ऊंचे पूरे, गौर वर्ण, चमकीली आँखें, लम्बे बाल, और चेहरे के ऊपर दाढ़ी। प्रभावशाली, आकर्षक व्यक्तित्व।एक पल के लिए मुझे अपनी आवाज पर गर्व हुआ, मैंने पूछा- ‘आपने मेरी आवाज…..’ वाक्य पूरा भी नहीं कर पाई थी, और वे बोल पड़े- ‘आपके सारे गीत रिकार्ड कर रखे हैं मैंने’ मन जैसे उछल पड़ा सोचा भी नहीं था, कि मेरी आवाज को कोई रिकार्ड करेगा, मैं मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की जिसके घर,टेपरिकॉर्डर तो क्या ट्रांजिस्टर भी नहीं था।स्मार्ट फोन तो चलते ही नहीं थे, उस समय। मैंने सकुचाते हुए कहा- ‘मैं कोशीश, करूँगी।’




फिर एक सिलसिला चल पड़ा।मधुर के गीत और स्वरा की आवाज। संगीत की लहरियों के साथ दिल के तार भी जुड़ गए, और दोनों एकसूत्र में बंधने के ख्वाब देखने लगे। मधुर कॉलेज में हिन्दी के व्याख्याता के पद पर नियुक्त हुए, और मैं एक सरकारी स्कूल में शिक्षिका बन गई। हमारे विवाह में कोई अड़चन नहीं थी।

विवाह हो गया, हमारा वैवाहिक जीवन सफलता से चल रहा था,एक बेटा है हमारा, मोहित जो उस समय, एम.एस सी की पढ़ाई कर रहा था। बहुत आज्ञाकारी । कहते हैं ना कि हम अपने कर्मों के परिणाम से नहीं बच सकते।

जाने अंजाने में किए अपराध का दण्ड, और अच्छे कर्मों का पुरस्कार, यह विधान है, जिसे सभी को समझना चाहिए। वक्त अपनी चाल चलता रहता है,दो वर्ष पहले मधुर के शरीर पर पेरालिसिस का अटैक हुआ, आधा शरीर जैसे सुन्न हो गया था। वे न चल सकते हैं,ना ठीक से बोल सकते हैं,ना लिख सकते हैं,न ठीक से खाना खा सकते हैं।

बस एक आराम कुर्सी पर बैठे हुए शून्य में निहारते रखते हैं।और आँखो से अनवरत आँसू बहते रहते . मैंने क‌ई बार अपने गीतों से उनका मन बहलाना चाहा, मगर उनकी उदासी दूर नहीं हुई। दिन पर दिन निकलते जा रहै थे। अब मेरी उम्र भी ढलती जा रही थी, तरह-तरह की बिमारियां होने लगी थी।

जब भी तबियत खराब होती कानों में यही आवाज गूंजती ‘कुछ नहीं होने दूंगा मैं आपको’ और उदासी में भी मन में खुशी की लहर दौड़ जाती। आज मुझे डॉक्टर अविनाश की बहुत याद आ रही है।पर मेरे पास न तो उसका पता है न कोई फोन नंबर ।

इच्छा हुई, काश वो एक बार मिल जाए। मोहित की शादी हो गई है,कल बहू को लेने उसके मायके वाले आने वाले हैं, सोचा कुछ फल और मिठाई ले आऊं. मैंने मोहित से कहा- ‘बेटा चलो बाजार से कुछ सामान लेकर आते हैं।’मिठाई कि दुकान पर अनायास अविनाश से भेंट हो गई,वह उसकी पत्नी के साथ मिठाई लेने आया था,उसके साथ उसका बेटा भी था।उसने भी मुझे और मोहित को पहिचान लिया था,

वह प्रसन्नता से मुस्कुराता हुआ आया, एक मिठाई का डिब्बा मेरे हाथ में दिया और बोला बहुत अच्छा लगा, आपको देखकर, ये मेरी पत्नी रिया,और यह मेरा बेटा अमय। कल इसका जन्मदिन है, घर में कोई बड़ा तो है नहीं ,आप इसे आशिर्वाद देने के लिए आएंगी ना। मैंनै आपको माँ माना है,अमय को भी दादी मिल जाएगी’ वह धारा प्रवाह बोले जा रहा था और मैं…… मैं विस्मित सी उसे देखती ही जा रही थी। मोहित ने कहा- ‘हम जरुर आऐंगे’ उसने अपना पता बताया।कितना कुछ कहना चाह रही थी उसे, धन्यवाद देना चाहती थी,उस बच्चे को प्यार करना चाह रही थी,मगर बुत बनी खड़ी रही।

वह खुशबू बिखेरता चला गया। अमय के जन्मदिन की पार्टी थी, पार्टी में सिर्फ हमें बुलाया था। एक उपहार लेकर हम उसके घर पहुंचे, आलिशान फ्लेट था, और उसकी सजावट भी बहुत तरीके से की गई थी। दोनों पति-पत्नी ने हमारा अच्छा स्वागत किया,अमय भी दादी- दादी करता आसपास घूमता रहा,उसने अपने खिलौने बताए।दिवाल पर एक तस्वीर लगी थी, बिल्कुल सीधी-सादी, सुंदर सी महिला की तस्वीर।

अविनाश ने कहा- ‘यह मेरी माँ है,अब दुनियाँ में नहीं है,आपको देखता हूँ, तो मुझे मेरी माँ की याद आती है।’ मैंने अनायास पूछ लिया बेटा तुम्हारे पिताजी कहाँ है।’ मैंने देखा उसकी आँखों की नमी को। कुछ देर बाद वह संयत होते हुए बोला- ‘मेरे पिताजी को मैंने कभी नहीं देखा,माँ से एक बार पूछा था,

मगर उनकी हालत और आँखों के आँसू देखकर, हिम्मत नहीं हुई दौबारा उनसे पूछने की।एक बार मैंअपने पिता को उल्टा सीधा बोल रहा था, तो उन्होंनेे मुझे बहुत डांट लगाई कहा – ‘वो हमारे अन्नदाता है, उनके बारे में कुछ भी ग़लत मत कहो।’फिर उसके बाद मैंने माँ से उनके बारे में कभी कुछ नहीं पूछा, मैं पूछकर उन्हें और तकलीफ देना नहीं चाहता था।




मेरे पिताजी ने जिन्हें मैंने कभी नहीं देखा,हमें पैसों की कमी कभी नहीं होने दी। पति के प्रेम से वंचित मेरी माँ को मैंने क‌ई बार अकेले में आँसू बहाते हुए देखा।वे ज्यादा पढ़ी – लिखी नहीं थी।पति के द्वारा भेजा गया मनिआर्डर लेना उनकी मजबूरी थी और आवश्यकता भी। मैंने सारा ध्यान अपने भविष्य पर केन्द्रित किया और आज डॉक्टर बन गया,

मैं माँ को सारे सुख देना चाहता था।माँ चाहती थी,मेरी शादी हो,वे दादी बने मगर मेरी डॉक्टर की परीक्षा का अन्तिम साल था।मेरी शादी का अरमान मन मे लिए, वे मुझे छोड़कर चली गई,जाते समय उन्होंने पिता की एक तस्वीर देते हुए कहा था, ये तेरे पिता हैं, मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं है,तू भी अपना मन मैला मत करना। माँ का अकेलेपन का दर्द ,पिता का साया सिर पर न होने का दर्द मैं चाह कर भी भूल नहीं पाता हूँ, कोशिश करता हूँ, उन्हें माफ कर दूं मगर……।’अविनाश की आँखें, आँसुओं से लबरेज थी।

उसने जेब से रूमाल निकाला साथ में उसका बटुआ भी जेब से गिर गया, उसमें से एक तस्वीर भी गिरी, देखकर मैं चौंक गई, मधुर की तस्वीर,तो क्या अविनाश मधुर को पहचानता है? उत्सुकता वश पूछ ही लिया मैंने ‘ये तस्वीर किसकी है बेटा’ ‘? ये मेरे पिता की तस्वीर है, हमेशा साथ में रखता हूँ, पता नहीं, किस मोड़ पर मुलाकात हो जाए।’

मेरे पैरो के नीचे से जैसे जमीन ही खिसक गई थी,अपने आप को संयत करके बोली। ‘अगर मुलाकात हुई तो क्या करोगे?क्या माफ कर सकोगे उन्हें।?’ ‘जब माँ ने कभी कोई शिकायत मन में नहीं रखी तो मैं ….. मैं मन से ऐसा कुछ नहीं करूंगा जिससे माँ की आत्मा को दुख हो।’ समय बहुत हो गया था ।

मैं अन्तस में एक तूफान को संजोए, मोहित के साथ घर आ ग‌ई,कुछ समझ में नहीं आ रहा था, क्या करूँ, दिल में एक ज्वालामुखी उठ रहा था। लग रहा था फट पड़ेगा। दिल चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा था कि मधुर से कहूँ, इतना छलावा,इतनी बड़ी बात छिपाई तुमने मुझसे, इतने गिले,शिकवे मचल रहै थे, बाहर आने के लिए, मगर कहै तो किससे मधुर की हालत ऐसी थी, कि वह कोई भी तनाव बर्दाश्त नहीं कर सकता था।

मन के भाव प्रस्फुटन के बिना रह नहीं सकते।मेरी आँखों के रास्ते बहने लगे,लग रहा था, ये अश्रु के धारे जीवन की सारी खुशियों को बहा ले जाऐंगे।रात भर अश्रु बहते रहै,मेरी हालत देख कर, या किसी और कारण से सुबह मधुर की हालत बहुत बिगड़ गई,लग रहा था कि वे कुछ कहना चाह रहे थे मगर….।

उनकी हालत देख मैं वर्तमान धरातल पर आई,जिस तरह समुद्र की एक लहर पर दूसरी चढ़ती है और पहली विलीन हो जाती है, वैसे ही मधुर से शिकवे, शिकायत के ऊपर, उनके स्वास्थ की चिंता की लहर सवार हो गई। मोहित ने डॉक्टर को बुलवाया, दवा दी तो कुछ आराम हुआ रात भर सोए नहीं थे शायद, इसलिए नींद आ गई।

मधुर जब आराम से सो गए तो मन में न‌ये विचार उठने लगे, मधुर ने यह राज मुझसे छिपाया जरूर, मगर मुझे कभी कोई तकलीफ़ नहीं दी,शायद इसलिए नहीं बताया हो, कि मैं सहज रह सकूँ, या शायद वे मुझे खोना नहीं चाह रहै हो।

कहीं इस राज को मन में अकेले समेटे रहने से तो इनकी यह हालत नहीं हुई है?कहीं ये उसे बताना तो नहीं चाह रहै?इनके निरन्तर बहते आँसू कहीं इसी कारण से तो नहीं है? इस सच को अविनाश को बताना चाहिए या नहीं? उससे छुपाना उसके साथ अन्याय तो नहीं होगा?अनेक प्रश्न थे जो मेरे मानस को झकझोर रहै थे।




मन में विचार आया कि जो इन्सान अपने पापा की तस्वीर जेब लेकर घूम रहा है, कि ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर उनसे मुलाकात हो जाए,उसे उसके पापा से मिलवाना चाहिए। फिर परिणाम चाहे जो भी हो,वो भले ही हमसे नफरत ही क्यों न करें,यही सोच कर मैं मन को कड़ा करके अविनाश के यहाँ ग‌ई।

मुझे अचानक देख कर उसे आश्चर्य हुआ,मुझे प्रणाम करने के बाद वह बोला -‘ अच्छा लगा माँ ! आप आई,मगर आप परेशान दिख रही हैं,क्या रात भर सोई नहीं।’ कैसे जान लेता है, यह मेरे मन की बात।मैंने कहा – ‘बेटा जब से तुम्हारे घर से ग‌ई हूँ।एक बैचेनी सी है मेरे मन में,समझ में नहीं आ रहा कैसे कहूँ तुमसे।’ कहते-कहते मेरा गला रुंध गया । उसने कहा- ‘आप बिना किसी संकोच के कहैं, क्या हमने आपका मन दु:खाया,कुछ गलती हो गई हो तो हमें माफ कर देना।’ ‘नहीं बेटा !

गलती तुमसे नहीं किसी और से हुई है। यकीन मानो मुझे भी इस बारे में कल पता चला। रात भर एक कशमकश चलती रही दिल में ।तुम्हें बताऊँ या नहीं बताऊँ। मगर सच जानने का तुम्हारा अधिकार है।’ वह मेरी ओर आश्चर्य से देखे जा रहा था।

उसने मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में ले रखे थे,जिससे मुझे अपनी बात कहने की ताकत मिल रही थी। बड़ी हिम्मत करके मैंने कहा – ‘बेटा अपने पापा, जिनकी तस्वीर तुम साथ में लेकर घूमते हो,वो और कोई नहीं, वो है कॉलेज के प्रोफेसर मधुर श्रीवास्तव मेरे पति ,यकीन मानो, मधुर ने मेरे आगे अपनी पहली शादी का जिक्र कभी नहीं किया।

कल जब यह सच इस तरह मेरे सामने आया, मैं हैरान रह ग‌ई,तुमसे बिना कुछ कहै घर चली गई,मन कह रहा था कि चिल्ला-चिल्ला कर मधुर से पूछूं कि उन्होंने मेरे साथ ऐसा क्यों किया,मगर बेटा वे इस हालत में ही नहीं है कि कुछ सहन कर सके।’ ‘क्यों क्या हुआ उन्हें?’ मैंने मधुर की हालत उसे बताई,और कहा तुम्हें दिल से बड़ा बेटा माना है, जीवन की यह उलझन सिर्फ तुम सुलझा सकते हो। तुमसे सिर्फ मधुर की ओर से माफी मांग सकती हूं, निर्णय तुम्हारे हाथ में है माफ करो या……। अविनाश स्तब्ध रह गया था, कुछ नहीं बोल पाया ।

मैं घर आ ग‌ई मन से एक बोझ उतर गया था, अविनाश को सच बताकर मैं हल्कापन महसूस कर रही थी। मधुर की तबियत और ज्यादा खराब हो गई थी,कुछ न कह पाने की तड़प उनकी आँखों से बरसते आँसू में और उनकी बैचेनी में दिख रही थी। मैं जैसे संज्ञा शून्य सी बैठी थी,नजरें दरवाजे की ओर लगी थी, कि शायद अविनाश आ जाए।

अविनाश आया अपनी पत्नी और बच्चों के साथ।उसे देखकर मुझमें जैसे न‌ई ऊर्जा आ गई। मैंने मधुर के पास जाकर कहा- ‘कुछ कहना चाहते हो?’ उसने गर्दन हिलाई पर अपनी लाचारी पर फिर आँसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा। मैंने कहा – ‘तुम कुछ मत कहो।’ फिर मैंने अविनाश को बुलाया और कहा- ‘ये अपना बड़ा बेटा है,ये बहु और यह नन्हा पोता।

सुमति बहिन अब नहीं रही।यही कहना चाह रहै थे ना, मुझे सब मालुम हो गया है,मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है।’ मधुर ने मेरे हाथों को कसकर थाम लिया,वे बार-बार हाथ जोड़ रहे थे। मधुर की नजर अविनाश पर टिक गई,क्या था इन नजरों में कि अविनाश का सिर उनके क़दमों में झुक गया,उसने रिया और अमय से भी कहा कि वे प्रणाम करें।

दोनों ने प्रणाम किया, एक पल के लिए उनकी आँखों में चमक आ गई,यह चमक उस दिये की तरह थी, जो बुझने के पहले अपनी तेज रोशनी बिखेरता है।उनके हाथों में न जाने कहाँ से इतनी शक्ति आ गई, कि उन्होंने अपने हाथ को उन तीनों के सिर पर रखा और एक दृष्टि मुझ पर डाली और…….. पंछी उड़ गया।चेहरे पर संतुष्टि का भाव था।

कुछ समय बाद पार्थिव शरीर चिता पर लेटा था। मैंने मोहित से बात की उसने मेरी इच्छा पर सहमति जताई, फिर, अविनाश से कहा -‘बेटा तुम बड़े बेटे हो मैं चाहती हूँ, चिता को अग्नी तुम दो।’ उसने अपना फर्ज निभाया। सबकी आँखो में पानी था, अपना अपना दर्द था और थी अपनी-अपनी कहानी,धुएं के साथ क‌ई गिले, शिकवे, अरमान,सपने, भावनाऐं उड़ कर अनन्त में विलीन हो रहै थे। प्रेषक- पुष्पा जोशी स्वरचित, मौलिक
# दर्द

4 thoughts on “ दर्द अपना-अपना * –   पुष्पा जोशी”

  1. बहुत ही सुंदर रचना…पात्रों को जिस सकारात्मक तरीके से आपने
    शब्दों में पिरोया है वो प्रशंसनीय हैं

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