चिराग दिल का जलाओ – नीरजा कृष्णा

उस दिन बेटे का फोन आया था,

“मम्मा, तुम्हारी बहुत चिंता होती है। तुम्हारी तबियत भी ठीक नहीं रहती। अब जिद छोड़ो और अपने पोते के साथ यहाॅं दिल्ली में आराम से रहो।”

उनका मन बहुत द्रवित सा हो गया। वाकई अब अकेले रहने में बहुत परेशानी होने लगी थी। दस साल पूर्व पति के देहांत के बाद वो जिद पकड़ गई थीं….अपनी देहरी नहीं छोड़ सकती। यहां पूरा जीवन बिता दिया ,अब दूसरी जगह कैसे मन लगेगा। यहीं इसी घर में डोली में बैठ कर आई थी और यहीं से अर्थी भी उठेगी।”

सबने बहुत समझाया था। खूब ऊॅंचनीच भी बताई थी पर  अखबारों में पढ़ा हुआ, उपन्यासों में जिया हुआ और पास पड़ोस में देखा हुआ सामने था। हिम्मत ही नहीं हुई।

उस दिन जब बेटे ने फिर कहा तो सोच में पड़ गई थीं। पड़ोस की कमली बहन सामने बैठी सुन रही थीं। वो धीरे से उनके पास आकर फुसफुसा कर बोली थीं,

“देख श्यामा! बेकार की जिद छोड़ दे। अभी बेटा बहू मनुहार कर रहे हैं…बाद में थकहार कर वो भी छोड़ देंगे। वो ही  तेरे अपने हैं। अब यहां अकेले गुजारा भी नहीं हो पा रहा है। इस मौके को हाथ से मत जाने दे।”

वो स्वयं भी इसी लाइन में सोचने लगी थीं। थोड़े आत्ममंथन के बाद बेटे को फोन करके साथ ले चलने के लिए कह दिया। 

आज वो बैठे बैठे सोच रही हैं…”कितना अच्छा बेटा है, बहू प्रज्ञा तो बेटी से बढ़ कर है और पोता दिव्य तो वाकई दिव्य ही है।असली स्वर्ग तो यहीं दिल्ली में अपने बच्चों के पास है। समय के थपेड़े का खाकर उनकी ममता का स्त्रोत भी तो सूख गया था, अब बच्चों का निश्छल प्यार पाकर वो फिर हरा भरा हो गया है।”

तभी प्रज्ञा की आवाज़ सुनाई दे गई। वो शायद तुरंत ही ऑफिस से लौटी थी। उनको अंधेरे कमरे में बैठी देख कर नाराज़गी से बोलीं,

“फिर किस सोच में डूबी हैं। लाइट भी नहीं जलाई,अंधेरे में मत बैठिए ना। चाय भी नहीं पी होगी ना। रुकिए, अभी बना लाती हूॅं।”

वो चैतन्य होकर उठीं,

“अरे बेटी, तू थकी हारी आई है। मैं चाय लाती हूॅं, साथ में स्टफ्ड कटलेट भी। तू फ़्लैश होकर आजा।”

फिर खूब हॅंसते हुए दोनों चाय का लुत्फ़ उठाने लगीं। तभी वो भावुक होकर बोलीं,

“सच्ची प्रज्ञा! हमलोग बेटे बहू में ही कमियां निकालते रहते हैं। उनसे ही सारे त्याग और सामंजस्य की उम्मीद रखते हैं। अगल बगल के लोग भी चढ़ाए रखते हैं। सुख और दुख, स्वर्ग नरक सब यहीं इसी जन्म में मिल जाता है। मैंने बेकार की जिद में अपने जीवन के  कितने अनमोल साल व्यर्थ गॅंवा दिए। अब कितना सुख मिल रहा है। चिराग तले अंधेरा कर रखा था।”

प्रज्ञा मुस्कुरा दी और बोली,”सभी बेटे बहू खराब ही नहीं होते। हमलोग झूठमूठ ही कुंठा पाल लेते हैं। जीवन में कभी खुशी तो कभी गम तो आता जाता है।अब आप अपने दिल का चिराग जला लीजिए।”

#कभी_खुशी_कभी_ग़म 

नीरजा कृष्णा

पटना

 

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