चंदा का संघर्ष – पुष्पा पाण्डेय 

किसी-किसी की जिन्दगी संघर्ष का पर्याय बन जाता है। चंदा जब आठ साल की थी तभी से संघर्ष के साथ जीना सीख लिया था। माँ को बिमारी ने छीन लिया और एक साल बाद ही पिता ने चंदा के लिए नयी माँ ला दी। खिलौने से खेलती-खेलती चंदा कब किसी के हाथों की खिलौना बन गयी उसे पता भी नहीं चला। उसके जिन्दगी की डोर अब सौतेली माँ के हाथों में थी। डोर कब खींचनी है और कब ढीली रखनी है बखूबी जानती थी। 

चंदा अपने पिता से भी कुछ नहीं कह पाती थी,क्योंकि उसे धमकी मिली थी, यदि कुछ भी कहा तो पिता से भी हाथ धो बैठेगी। चंदा अपने पिता को खोना नहीं चाहती थी और विमाता की कठपुतली बनी रही। पिता उसे शिक्षिका बनाना चाहते थे। चंदा पढ़ने में भी होशियार थी, लेकिन भाई होने के बाद तो उसे स्कूल के अतिरिक्त घर में पढ़ने का मौका ही नहीं मिलता था। फिर भी चंदा पिता के सपनों को साकार करना चाहती थी। 

अब चंदा सबकुछ  समझने लगी थी। स्कूल से काॅलेज का सफर शुरू हुआ। घर की शान्ति और पिता की खुशी के लिए कभी किसी से कुछ भी नहीं कहा। अंतिम वर्ष तक आते-आते कई अच्छे-अच्छे रिश्ते आने लगे। सभी रिश्तेदार चंदा के शालीन स्वभाव से परिचित थे। अतः  रिश्तेदार अपने घर की बहू बनाने के लिए उत्सुक थे, पर पिता एक पढ़े- लिखे परिवार में अपनी बेटी देना चाहते थे। परीक्षा बाद ही चंदा की शादी एक व्याख्याता से कर दी। नये घर में चंदा को इतना प्यार मिला कि अब-तक की सारी कमी पूरी हो गयी। सगी माँ के रूप में सासु माँ मिली। पति का प्यार पाकर चंदा निहाल हो गयी। 

कुछ दिनों के बाद चंदा को अपने ससुर का व्यवहार  कुछ अजीब सा लगा। शुरू-शुरू में तो नजर अंदाज करती रही, लेकिन एक दिन अकेला पाकर ससुर ने अपना घिनौना रूप दिखा ही दिया। यदि वक्त पर सासु माँ सुशीला ने आकर हस्तक्षेप न किया होता तो चंदा में दाग लग ही जाता। सुशीला अपने पति के छिछोड़े स्वभाव से भलिभाँति परिचित थी। सुशीला इस घटना को अपने बेटा से छुपाना चाहती थी, ताकि बेटा अपने पिता के इस व्यवहार से दुखी न हो। सारी उम्र इस दर्द को अकेले ही झेलती रही, लेकिन चंदा इस बात को अपने पति से छुपा नहीं पाई। बाप-बेटे में विवाद इतना बढ़ गया कि क्षणिक  आवेश में आकर पति ने आत्महत्या कर ली। चंदा तो पत्थर की मूरत बन गयी। 

अब तो उसके अन्दर एक और साँसें चल रही थी। ऐसे मौके पर सुशीला ने उसे सम्भाला। चंदा मायके भी नहीं जाना चाहती थी और न वहाँ रहना। सुशीला ने जीवन भर पति की बेवफाई को सहती रही। घर की शान्ति और समाज की बेदी पर अपने स्वाभिमान की बलि चढ़ा दी, लेकिन आज बहू के साथ उसका आत्मसम्मान जागृत हो उठा। पति को छोड़ बहू का साथ दिया और उसे लेकर अपने मायके चली गयी, जहाँ उसे अपने पिता से सम्पत्ति मिली थी, क्योंकि वह एकलौती संतान थी। 

चंदा ने एक प्यारी- सी बेटी को जन्म दिया। बच्ची अपनी दादी की गोद में पलने लगी और चंदा अपनी पढ़ाई जारी रखी। पी.एच.डी.करने के बाद चंदा को एक काँलेज में नौकरी मिल गयी।   तब-तक बेटी मानसी पाँच साल की हो चुकी थी। इधर सुशीला के पति जो अपने एक विधवा बहन के साथ रहते थे दिल का दौरा पड़ने से चल बसे।  सुशीला अंतिम समय में पत्नी का  धर्म निभाकर वापस अपनी बहू और पोती के पास लौट आई।

मानसी अब स्कूल जाने लगी थी। चंदा भी अपने काॅलेज के कामों में व्यस्त रहने लगी थी। मौका देखकर सुशीला ने चंदा से कहा।

“चंदा! में दिनभर घर में अकेली रहती हूँ,क्यों न एक क्रेच खोल दूँ? आस-पास की कामकाजी महिलाओं के बच्चों की देखभाल करूँगी। मेरा समय भी बच्चों की किलकारियों के बीच गुजर जायेगा।”

चंदा की सहमति से सुशीला ने एक सहायिका के सहारे अपने जीवन का मकसद खोज लिया।

        नियति उन तीन पीढ़ियों की महिलाओं को पुरुषों की सहायता के बगैर रहने पर मजबूर कर दिया, लेकिन ये तीनों पीढ़ी आत्मविश्वास से परिपूर्ण स्वाभिमान के साथ जीवन का सफर तय कर रहीं थीं।

स्वरचित

पुष्पा पाण्डेय 

राँची,झारखंड।

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