‘ बुरा वक्त ‘ – विभा गुप्ता

 ” ये वक्त भी ना,मुझसे ही इसे सारी दुश्मनी निकालनी थी।कितने आराम से मैं टाँग पसारकर बैठा रहता था,अब दिन-भर खटना पड़ता है..।” बड़बड़ाते हुए मनीष ने अपने जूते खोले, रैक पर रखे और खाना खाकर सोने चला गया।पीछे से पत्नी ने कहा,” सुनो तो..”

     ” अभी नहीं, आज बहुत थक गया हूँ।” कहकर उसने लिहाफ़ ओढ़ ली।मिनटों में ही वह खर्राटे भरने लगा।सपने में उसके सामने ‘वक्त’  आकर मुस्कुराने लगा।वक्त को मुस्कुराते देख मनीष गुस्से-से फट पड़ा, बोला, ” तुम बहुत खराब हो,आज तुम्हारी वजह से मुझे इतनी मेहनत करनी पड़ रही है।कितने अच्छे थे मेरे वो दिन!तुमने आकर मुझे ज़मीन पर पटक दिया और अब मुस्कुरा रहे हो।”

     वक्त उसी तरह से मुस्कुराता रहा, फिर बोला, ” याद करो,जब तुम्हारे पास पिता का धन था तो तुम्हारे आसपास मित्रों का जमघट लगा रहता था।तुम उनपर जीभर के रुपया लुटाते थे और वाह-वाही लूटते थे।पत्नी-बच्चों को समय न देकर क्लबों-पार्टियों में घूमते रहते थें।तुम्हारे बच्चे भी गैरज़िम्मेदार हो रहें थें।तुम्हारी पहचान पिता के नाम से होती थी।घर आकर भी तुम फ़ोन पर ही व्यस्त रहते थे।लेकिन जैसे ही मैं(बुरा वक्त)आया तो तुम्हारे सभी मतलबी दोस्तों ने तुमसे किनारा कर लिया,तुम्हारे पत्नी ही तुम्हारे साथ खड़ी थी।तुम्हारे अंदर की छिपी काबिलियत बाहर आई,तुमने काम करना शुरु किया तो तुम्हारी अपनी पहचान बनी।तुम्हारे बच्चे भी मन लगाकर पढ़ने लगे।पैसा कम ही सही पर ये तुम्हारी अपनी मेहनत के हैं।बच्चों के साथ समय बिताते हो, क्या तुम्हें अच्छा नहीं लगता?दिनभर मेहनत करते हो तो रात को समय पर चैन की नींद भी तो सोते हो।फिर भी, अगर तुम्हें मुझसे शिकायत है तो मैं चला जाता हूँ और पुराने वक्त को तुम्हारे पास…।”

    ” नहीं-नहीं, तुम मत जाओ, तुम्हारी वजह से ही मुझे अच्छे-बुरे की पहचान हुई है।मैं तुम्हारे पैर पड़ता हूँ …।” कहते हुए मनीष ने वक्त के पैर पकड़ लिए।

    ” अरे छोड़िये भी,मेरा पैर क्यों पकड़ रहें हैं।” पत्नी की आवाज़ सुनकर मनीष हड़बड़ा कर उठ गया।पत्नी ने पूछा, ” क्या हुआ? सपने में..।” ” कुछ नहीं ” कहकर वह काम पर जाने की तैयारी करने लगा।बुरे वक्त ने ही तो उसे मेहनत करना सिखाया है।उसे एक अच्छा पति, पिता और इंसान बनाया है।मन ही मन उसने उस बुरे वक्त को धन्यवाद दिया।

                  — विभा गुप्ता

                      स्वरचित
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