ब्रेकअप – जयसिंह भारद्वाज

शनिवार की एक धुंधलाती शाम… और आज आठवाँ दिन था जबसे उससे न तो बात हो सकी थी और न ही उसका कोई सन्देश ही आया था। बड़ी उहापोह में दिन बीत रहे थे। कभी हृदय में कोई आशंका उभरती तो मन उसे तुरंत शमित कर देता।

तभी उसका एक मैसेज आया… “पाँच मिनट में फाउंटेन पार्क में मिलो।”

जैसे मृतक को संजीवनी मिल गयी हो। मेरे शरीर में बिजली कौंध गयी और अगले साढ़े चार मिनट में मैं पार्क के कोने की एक बेंच पर था। वह वहीं थी।

मेरे बैठते ही वह मुझसे लिपट गयी और बोली, “सॉरी, मैं आपको कॉल नहीं कर सकी क्योंकि बुआजी के पास चली गयी थी। वहाँ फोन बुआ जी के पास जमा रहता था। किसी की कॉल आने पर ही मुझे मिलता था।”

उसके बालों में उँगलियों से कंघी करते हुए मैंने कहा, “क्या हम अब फिर से मित्र नहीं बन सकते हैं?”

झटके से वह मुझसे अलग हुई और घूरते हुए कहा, “क्यों भला!”

“वो मुझसे तुम्हारी जुदाई झेली नहीं जाती। मित्र बनने पर वह फीलिंग ही नहीं उभरेगी। इससे मेरा मन शांत रहेगा।”

“ओए सुन! ये तेरी दोस्ती तुझे ही मुबारक और भाड़ में गया तेरा मन और तेरी सोकाल्ड फीलिंग्स.. मेरी मोहब्बत की तरफ आँख भी उठाकर देखा न तो…. तो…. तो तू सोच नहीं सकता कि मैं तेरा क्या हाल कर दूँगी.. हाँ नहीं तो! दोस्ती करेंगे अब श्रीमान जी मुझसे।” उसके स्वर में आक्रोश जैसे पच्चीसवें माले पर था।

“लेकिन मैं अब प्रेम नहीं कर पाऊँगा तुझे। सच्ची में…” मैंने समस्त पीड़ा को उजागर करते हुए प्रतिवाद किया।

वह तनिक शान्त स्वर में बोली, “देख! तेरे दर्द को मैं समझ रही हूँ पर तू मेरी मजबूरी को भी तो समझ न!”

“न.. अब मै प्यार-व्यार के चक्कर से बाहर आना चाहता हूँ। दोस्ती करना हो तो ठीक वरना …” मैं तनिक कठोर हो चला था।

“वरना !! वरना क्या..” आशंकित स्वर में पूछा गया।




“वरना ब्रेकअप..!” कह कर मैंने अपना मुँह दूसरी तरफ कर लिया।

वह खिसक कर मेरे समीप आयी और मेरी ठुड्डी को पकड़ कर  चेहरे को अपनी तरफ घुमाते हुए बोली, ” देखो! आपकी आप जानें लेकिन मैं आपको कभी भी अपना मित्र नहीं बना पाऊँगी। मैंने आपकी आँखों में उदासियाँ देखीं हैं और अपने सानिध्य में उन उदासियों को चिन्दी चिन्दी होकर उड़ते हुए पाया है.. न मैं दोस्त नहीं बना पाऊँगी। मैंने आपके बेनूर और सादे से चेहरे को देखकर कुछ सपने देखे हैं… उन सपनों की खातिर मैं आपको दोस्त नहीं बना पाऊँगी। ठीक है आप मुझसे दूर होना चाहते हैं तो लो… मैंने मुक्त किया आपको और मैं दूर रह कर भी अपने प्रेम को मीरा बन कर निभाऊंगी किन्तु आपको दोस्त नहीं बना पाऊँगी। अच्छा सुनिए! ये जो मैं आपमें और आप मुझमें समा चुके हैं.. क्या दोनों को अब अलग-अलग कर पायेंगे आप! ये जो मेरी कमर में नन्हा सा तिल है उसे हवा की शरारत से पल्लू हटने पर देखकर क्या अपना आपा नहीं खो देंगे आप! सिनेमा हॉल में क्या गाहे बगाहे मुझे छूने के बहाने नहीं खोजेंगे आप! चलो मान लिया कि आप ऐसा करने में सफल हो भी गए तो पूनम की रात में चाँद को देखकर आपको मेरी याद नहीं आएगी… अच्छा! सच्ची सच्ची बताएं कि क्या आप अपने मोबाइल से मेरे सभी मेसेज, फोटो और वीडियो चैट्स आदि डिलीट करके  मुझे अपनी दोस्ती की परिधि में रख पाएंगे!”

मेरे नेत्रों से झर झर आँसू बह रहे थे। वह उठी और मेरे सिर को अपने पेट से चिपका कर बोली, “मुझे पता है कि आप बहुत अधिक संवेदनशील हैं किंतु सम्बन्ध जिये जाने के लिए बनाए जाते हैं। कम ऑन ‘जय’! आप कर सकते हैं।”

“सॉरी! मुझसे ब्रेकअप न हो पायेगा!” उसी दशा में मैं सुबकते हुए बोला।

“तुझसे क्या हो पायेगा और क्या नहीं.. मैं सब जानती हूँ। चलो उठो.. ,घर जाओ। कल मिलती हूँ कॉलेज में। कॉलेज के बाद रीटा में कुल्फी भी खिलाऊँगी। ओके.. बाय।” कह कर वह मुझे किंकर्तव्यविमूढ़ बना छोड़कर मुड़कर देखे बिना लंबे लंबे डग भरते हुए पार्क से बाहर निकल गयी। मैं सोचता रहा कि यह कभी तो मुझसे पैसे खर्च कराएगी।

-//अभी तो इब्तदा हुई है//-

स्वरचित: ©जयसिंह भारद्वाज, फतेहपुर (उ.प्र.)

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