बिन मैहर मोहे ठौर नहीं – सरला मेहता

#मायका

चन्दन सेठजी व माधुरी की सर्वगुण सम्पन्न बेटी सुष्मिता की अपने घर में खूब चलती है। चले भी क्यूँ ना, छोटा भाई श्रवण ठहरा सीधा सा व शांत प्रकृति वाला। कोई भी उसे बुद्धू बना सकता है।  लोगों ने दबी ज़ुबान में उसे गोबर गणेश ही नाम दे दिया। सेठ जी अक्सर सेठानी को ताना मारते, “यह तुम्हारे कारण ही ऐसा हुआ। जब वो गर्भ में था, सेठानी जी को पूजा पाठ व दान धर्म से फुर्सत नहीं थी। महान विद्वानों व वीरों की  कहानियाँ पढने में तुम्हारा क्या जा रहा था। इससे तो अच्छा होता भगवान उसे हमारी बेटी बना देता और सुष्मिता को बेटा।”

सरलमना सेठानी बेचारी क्या बोले, ” अरे, मेरा बेटा सीधा सच्चा इंसान निकलेगा, देखना आप। आपको तो व्यापार के लिए चाहिए चालबाज चालाक बेटा। ईमानदारी के किस्से आपने पढ़े ही नहीं। राजा हरिश्चंद्र, गांधी जी, शास्त्री जी जैसे लोग अपने सुकर्मों के कारण अमर हो गए।”

      ” साध्वी जी अब प्रवचन बन्द भी करो। बढ़िया चाय बनाओ और सुष्मिता के लिए मेवे का केसरिया दूध। तुम्हारी बहादुर बेटी भी जिम से आती ही होगी। ” सेठ जी गुस्से में बोले।

तभी अपनी बाइक से सुष्मिता धड़धड़ाती हुई आती है। आते ही पूछती है, ” कहाँ गया मेरा भय्यू ? कल से उसे भी जिम ले जाया करूँगी। ज़रा बल्ले शल्ले बन जाएँगे। ” 

तभी भय्यू खाली थैला झुलाते बोला, ” माँ मैंने खाने के पैकेट्स गरीबों में बाँट दिए। हाँ, गौशाला में भी हरा चारा दान कर आया हूँ। “

सेठजी पत्नी को घूरते हुए चिल्लाए, ” बना दिया न सेठ की औलाद को पण्डित। अब बहुत हो गया। कल से सुष्मिता के साथ ये भी हिसाब किताब करेगा। कुछ तो घुसेगा इसके खाली दिमाग में। “



” बाबा, आज मैंने जुडो कराटे में दो पहलवान बन्दों को हरा दिया। ” सुष्मिता मर्दों सी मूछों पर ताव लगाने का अभिनय करते बोली। 

सेठ जी बेटी को शाबाशी देने लगे, ” यह हुई ना मर्दों वाली बात। उस गधे को भी बताओ ज़रा माँ का पल्लू छोड़े अब। वरना मैंने तय कर रखा है, यह कारोबार तुम्हें ही सम्भालना है। “

लेकिन विधि ने कुछ और ही लिख रखा था। पड़ोस में ही छोटे से घर में सुदर्शन अकेला रहता है। माता पिता का कोई पता नहीं। वह पढ़ाई के साथ लेखन में भी दख़ल रखता है। सुष्मिता उसके सुदर्शन व्यक्तित्व पर फ़िदा हो जाती है। लेखक महोदय के लिए भी वह एक दबंग नायिका है। विपरीत दिशाओं में रहते हुए भी दोनों ध्रुवों में एक चुम्बकीय आकर्षण है। 

         सुष्मिता का फैसला घर में तूफ़ान लाने के लिए पर्याप्त है। सेठ जी के सपने पूरे होने के पूर्व ही बिखर गए। बेटी को हर तरह से 0समझाते हैं, ” बेटा, तुमने गरीबी देखी नहीं है। प्यार पेट की भूख नहीं मिटा सकता।” 

इरादों की पक्की हठीली बेटी मानने को तैयार नहीं। वह कोर्ट से शादी कर बाइक पर अपना सामान लिए नए घर चल देती है। सेठ जी अब अपनी पत्नी को क्या जवाब  दे ? दुखी सेठानी अपने मन के गुबार निकाल ही देती है,     “और लड़कों जैसी परवरिश करो बेटी की। उसने आज तक मनमानी ही की है। “

 प्यार के चार दिन पलों में गुज़र जाते हैं। सुदर्शन की कोई बंधी हुई कमाई नहीं है। लून तेल लकड़ी के भाव पता चलते ही सुष्मिता अर्श से फ़र्श पर आ जाती है। कैसे गुज़ारा करे ? पढ़ाई भी अभी ही पूरी हुई थी। प्रशिक्षण लेना चाहती है किन्तु उसके लिए भी पैसा चाहिए। सुदर्शन ने अभी तक घर परिवार चलाया नहीं था। वह तो बस अपनी धुन में रहता। सेठानी जी से बेटी की हालत देखी नहीं जाती। वह चोरी छुपे किसी न किसी रूप में बेटी की मदद करती रहती है। सुष्मिता ट्यूशन करती है और पति को भी करने को कहती है। आटा भी मुफ़लिसी में ही गीला हो जाता  है। वह जुड़वाँ बेटियों तनु व मनु की माँ बन जाती है। 

लेखक महोदय तमाम दायित्वों के बोझ से छुटकारा पाने की सोचते हैं। एक रात सिद्धार्थ जैसे बुद्ध बनने की लालसा में निकल पड़ते हैं। सुष्मिता अपने रूहानी प्रेम व त्वरित फैसले पर पछताती है। सेठ जी से बेटी की दुर्दशा देखी नहीं जाती, ” माधुरी, जाकर अपनी बेटी को ले आओ। उसे बताना नहीं कि मैंने बुलाया है। ” 



सुष्मिता के पास लौटने के सिवा कोई चारा नहीं था। धीरे धीरे पिता से भी सम्बन्ध सामान्य हो जाते हैं।

एक नई ऊर्जा से वह पुनः भावी सपने बुनने लगी, बेटियों और अपने परिवार के ख़ातिर। उसने  पिता का संबल बनने का ख़ुद से वादा किया था कभी। भाई को काबिल बनाकर अपना वचन निभाना है।

भाई को हिसाब किताब के गुर सिखाने लगी। ख़ुद   पी एस सी की तैयारी में जुट गई। सेठजी ने याद दिलाया, ” मेरी नातिनों को जुडे कराटे आदि सीखने नहीं भेजोगी ? “

दोनों बच्चियों को नाना नानी व मामा का भरपूर प्यार मिलने लगा। श्रवण के लिए एक समझदार जीवनसंगिनी सुष्मिता ही ढूंढ सकती थी। वह भी अपनी जिम्मेदारी अच्छे से निभाने लगा, दीदी जो थी साथ में।

सुष्मिता की मेहनत रंग लाई। वह एक दिन पुलिस अधिकारी की वर्दी में आई व सेल्यूट ठोक कर बोली, ” बाबा अब मैं सब कुछ ठीक कर दूँगी। आप शान से कह सकते हैं कि मेरी बेटी मेरा अभिमान है।  जो ग़लती नादानी में मैंने की, मेरी बेटियाँ नहीं करेंगी, कभी नहीं करेंगी। सेठ सेठानी जी गर्व से फूले नहीं समाते हैं।

      नगर में नौरात्रि का दौर चल रहा है। जगह जगह सन्तों के प्रवचन हो रहे हैं। सुष्मिता मेम बोर्ड पर पहुँचे हुए सुदर्शन महंत का नाम पढ़ सकते में आ गई। चुपचाप पांडाल में पीछे जाकर बैठ जाती है। शब्द उसके कानों में ज़हर बुझे तीर से गूँज रहे हैं, ” एक गृहस्थ को सन्यासी बनने की आवश्यकता नहीं। पहले घर को ही आश्रम बनाए व बच्चों की एक माली की तरह देखभाल करें। अब एक एक बच्चियाँ आए और अपने अपने उपहार ग्रहण करें। “

सुष्मिता का खून खोल उठा। वह सीधे मंच पर पहुँची व माइक छीनकर बोलने लगी, ” यह इंसान ढोंगी है और मेरा भगोड़ा पति है। इसने कभी मुड़कर नहीं देखा कि  इसकी मासूम बेटियाँ किस हाल में हैं। “

जैसे ही घर पहुँची पिता स्वागत के लिए दरवाज़े पर ही खड़े हैं, ” बेटी ! तूने कभी ग़लती की थी। किन्तु आज तूने मेरा सिर गर्व से ऊँचा कर दिया है। 

अपनी तनु मनु के लिए तू एक आदर्श उदाहरण है।

सरला मेहता

इंदौर म प्र

स्वरचित

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