भोज – रवीन्द्र कान्त त्यागी 

भोज – रवीन्द्र कान्त त्यागी 

“उठ जाओ जी। आज तो तड़के तड़के आप मंगला के लिए लड़का देखने जाने वाले थे। दूर जाना है। देर नहीं हो जाएगी।”

“रात भर नींद ना आई मंगला की माँ। क्या करूँ लड़का देखकर। सोचा था जब गेहूं की फसल उठेगी तो दो पैसे हाथ में आएंगे मगर। हाय री कुदरत की मार। ऐसा ओला पड़ा कि न गेहूं हाथ आया न भूसा। ब्याह क्या कौड़ियों में होता है। दो साल से जो भी थोड़ा बहुत गन्ना मील में डाला है उसका पैसा मिल नहीं रहा है। अरे क्यूँ रिशतेदारों के आगे बेज्जती कराना चाहती है। जब दो पैसे का जुगाड़ होगा, तभी देखेंगे लड़का।”

“अजी मन कमजोर मती करो मंगला के बाप्पू। ऐसे भले लोग भाग से ही मिलते हैं। आरती के ससुराल वालों ने तो पहले ही कह दिया। आरती के देवर के लिए प्रखर हमें लड़की चाहिए। दो कपड़ों में। दहेज वहेज की फिकर मत करना। और वैसे भी तो लड़का प्रखर लाखों में एक है। पान बीड़ी तक का भी ऐब ना है।”

“ये ही तो फिकर मुझे खाये जा रही है। ये लड़का हाथ से निकल गया तो फिर बिरदारी में न जाने कहाँ कहाँ धक्के खाने पड़ेंगे। किस किस के हाथ जोड़ने पड़ेंगे। … पर बात दान दहेज की ना है मंगला की माँ। अरे ब्याह के दस तरह के खर्चे होते हैं। चीज बस्त हैं, कपड़े लत्ते हैं। और फिर चार भाइयों का मुंह भी तो झूँठा कराना पड़ता है। छोरी का ब्याह है। कोई बालकों का खेल थोड़े ही है।”

“अजी कपड़े लत्ते और चीज बस्त की तुम परवा ना करो। लड़की की माँ होवै है ना मंगला के बाप्पू, जिस दिन से छोरी गोद में आवै उसी दिन से जोड़ जुगाड़ करने लगती है। जब मौका आया, कभी साड़ियाँ खरीद लीं कभी ठंडे गरम बिस्तर। रही बात गहने गाँठे की तो … पाव भर से ज्यादा चांदी तो मां जी की धरी है बक्से मेँ। हँसली है, कडूले हैं, तगड़ी है। दस बारह चांदी के पुराने सिक्के भी हैं। मेरे अपने ब्याह के सौने के कंगन हैं। गले का हल्का सा हार भी है। क्या करना है। एक ही बेटी है हमारी। सब तुड़वाकर उसकी शादी लायक जुगाड़ तो हो ही जाएगा। बाकी तो लड़की का धन है। जिंदगी भर देना ही होता है। आज हाथ तंग है तो क्या। कल को जब फसल अच्छी लगेगी तब दे देंगे। मैं तो कहूँ आज पहले सुनार के यहाँ ही चलो। देख तो लें कि … सब मिला कर लड़की के लिए दो चार चीज–बस्त जा जुगाड़ हो भी जाएगा कि नहीं।”



दोपहर का समय था। किसान दंपति ने पुराने चांदी के सिक्के, कडूले, तगड़ी, हँसली और सौने के दो चार गहनों की पोटली सुनार के आगे खोल दी। परिचित सुनार ने एक एक चीज को जांचा,परखा, कसौटी पर कसा, तेजाब लगाकर देखा और तोला। फिर देर तक कागज पैंसिल से कुछ जोड़ घटाव करता रहा। कई पल गंभीर मुद्रा मेँ बैठा रहा। फिर सोचकर बोला “सब मिलाकर … सारी चीजें तुड़वानी हैं तो तिरानवें हजार का माल बैठेगा।”

“ठीक है लाला जी। बेटी को लेकर आएंगे और उसकी पसंद के गहने ब्याह के लिए ले जाएंगे। तब तक हमारा रुपया आप जमा रखिए।”

दोनों पति पत्नी एक संतोष का सा भाव लेकर घर लौट आए कि चलो गहनों का इंतजाम तो हो गया। कपड़े लत्ते घर से निकल आएंगे। परमात्मा ने चाहा तो फागुन आते आते लड़की के फेरे फिरने का शगुन बन जाएगा।

हर मध्यम वर्गीय पिता की तरह विवाह के खरचों से डरे हुए परस राम बड़े उत्साह मेँ थे कि चलो आधा इंतजाम तो घर मेँ ही हो गया। कुछ पैसे मिलने चिलने वाले दोस्तों और रिशतेदारों को समय समय पर उनके बालकों की शादी के वक्त सहायता के लिए दे रखे हैं। उन से तकाजा करेंगे। क्या पता फागुन तक गन्ने का कुछ पेमैंट भी मिल जाए। लड़की अपने घर जाये तो सर से बड़ा बोझ सा उतर जाएगा।

परसराम का गाँव मेँ छोटा सा परिवार था। माता पिता बरसों पहले गुजर गए थे। बड़े लड़के की शादी हो चुकी थी और छोटा अभी दसवीं क्लास मेँ पढ़ रहा था। बस अब बेटी का ब्याह हो जाए तो चिंता खत्म हो। उनके एक चाचा जिनकी शादी नहीं हुई थी, उन्ही के साथ रहते थे। खेत किसान आदमी थे और परसराम के कृषी कार्यों मेँ हाथ बटाते थे।

दिन महीने गुजर रहे थे और धीरे धीरे फागुन का महीना निकट आ रहा था। जाड़ा अपने अंतिम दौर मेँ कहर डहाए ड़ाल रहा था। वैसे भी गाँव मेँ कहावत है कि काले माह (माघ महीना) की ठंड बुजुर्गों के लिए भारी होती है। रात भर बर्फीली हवा चलती और रोज अपने गाँव या पड़ौस के गाँव से किसी न किसे बुजुर्ग के मरने की खबर आती थी।

एक सुबह परसराम सुबह सुबह टुक्की चाचा के लिए चाय लेकर घेर मेँ गए तो पता चला परसराम के अस्सी साल के चाचा रात को किसी समय दुनिया छोड़कर जा चुके थे।

दिन भर शोक व्यक्त करने वाले ग्रामीणों का और रिशतेदारों का तांता लगा रहता। हुक्के की न जाने कितनी चिलम भारी जातीं और ठंडी हो जातीं।

शाम का समय था। घर कुनबे के कई मुअज्जिज बुजुर्ग मोटा खेस ओढ़े हुए मूढ़ों पर बैठे हुक्का गुड्गुड़ा रहे थे।

“भाई परसराम। सब रिस्तेदारों को चिट्ठी पतरी डाल दी है न। कौन सी तिथ की बैठ रही है तेहरामी। चार भाइयों का मुंह तो झूँटा करवाना ही पड़ेगा।” सब से उम्रदराज हंसराज जी ने कहा।

“अगले जुमेरात की सौलह तारीख बताई है पंडित जी ने। पर … पर मैं सोच रहा था चाचा … तेरह बामणों के अलावा अपने घर कुनबे और रिशतेदारों को ही बुला लेते हैं। असल में … इस साल लड़की के हाथ पीले करने की भी सोच रहा था … सो …। हाथ भी थोड़ा तंग है।” परसराम ने संकोच के साथ नीची निगाह करते हुए कहा।



“तू बावला हो गया है परसराम। अरे टुक्की ने जिंदगी भर तेरे और तेरे बालकों के लिए हाड़ तोड़ मेहनत करके कमाया और आज उसके गुजर जाने के बाद तू चार भाइयों के हाथ भी न धुलवाएगा। अरे गाँव समाज क्या कहेगा भाई। जब तेरा बाप्पू गुजरा था तो तेरे इसी चाचा की बदौलत सात गाँव की रोट्टी (गाँव में मृत्यु भोज को रोटी करना भी कहते हैं) करी थी। रंड मुंड था तो उसकी आत्मा की ऐसी बेइज्जती करेगा परसराम। ऐसा तो सोचना भी मत। अरे उसके भी बाल बच्चे होते तो क्या नहीं करते उसके लिए। और ये जो तेरे पास तीस बीघा पक्की जमीन है न, उसी की बदौलत है वरना बंटकर आधी रह जाती।”

“भई गाँव समाज का भोज तो करना ही पड़ेगा वरना पूरे कुनबे का समाज में बड़ा अपमान हो जाएगा। और तू तो कहीं मुंह दिखने लायक न रहेगा। अरे तेरे बुजुर्गों ने बड़ी मेहनत से ये मान सम्मान कमाया था और तू उसे एक पल में मिट्टी में मिला देना चाहता है।”

सुनार के यहाँ बेटी की शादी के गहनों के लिए तिरानवें हजार रुपये जमा थे। ऐसा भी नहीं है कि टुक्की चाचा के मृत्यु भोज में सारा पैसा खर्च हो गया। सात गाँव के तगड़ बंद (हर घर के सारे पुरुष) का भोज, सारे रिशतेदारों को परोसे (घर के लिए भोजन) दान दक्षिणा मिलकर अस्सी हजार में सारा काम निपट गया था।

अब बिटिया का ब्याह अनिश्चित काल के लिए टाल देने के अलावा कोई चारा न था। कुदरत ने चाहा तो अगली फसल आएगी। तब सोचेंगे।

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