भले घर की  बहू यह काम करेगी – गीतू महाजन

लॉकडाउन लगा तो मानसी का भी काम पर जाना बंद हो गया।

“चलो.. इसी बहाने तुम कुछ आराम तो करोगी मां”, बेटी तुली ने कहा।

 “बिल्कुल.. अब छोड़ दो यह सब मां… बहुत कर लिया तुमने.. अब किस चीज़ की कमी है.. या तुम्हें हम पर भरोसा नहीं”, बेटा किशोर भी बोला था।

” तुम तो मेरी जान हो मेरे बच्चों… तुम पर भरोसा क्यों नहीं होगा। बस सब पिछले 16 सालों से आदत सी हो गई है”, मानसी हंसते हुए बोली।

 सबकी बातें सुन पास बैठे मानसी के पति प्रताप और उसकी सास सुमित्रा जी भी मुस्कुरा उठे थे। मानसी और प्रताप की शादी को लगभग 26 बरस हो चुके थे। जब दोनों की शादी हुई थी तो प्रताप एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में काम करता था। घर में सास ससुर और बड़े जेठ जी थे जो दूसरे शहर में रहते थे।

सास-ससुर शुरू से ही प्रताप के साथ ही रहे थे। सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था। दोनों बच्चों की किलकारियों से आंगन गूंज उठा था। प्रताप और मानसी बच्चों के उज्जवल भविष्य के बारे में योजनाएं बनाते। इसी बीच ससुर जी का स्वर्गवास हो गया था। 

ज़िंदगी की गाड़ी सुख पूर्वक चल रही थी। तभी एक दिन एक कंस्ट्रक्शन साइट पर प्रताप के साथ एक हादसा हो गया। एक निर्माणाधीन बिल्डिंग का लेंटर गिर पड़ा और प्रताप की दोनों टांगे नीचे दबने से खराब हो गई।


पूरे घर पर जैसे बिजली गिर पड़ी हो।किशोर और तुली तब महज़ आठ और पांच वर्ष के थे। मानसी की शादी को दस बरस ही बीते थे।

प्रताप पूरी तरह से मोहताज हो गया था। लंबा इलाज चला मानसी के जेठ जी ने भी पूरी मदद की। कंपनी की तरफ से इलाज में पूरी मदद की गई पर ऊपर के खर्चे भी तो थे। घर में जो भी पैसा था वह भी धीरे-धीरे खत्म हो रहा था। मानसी की चिंता बढ़ती जा रही थी। खर्चा और बच्चे दोनों ही बढ़ रहे थे।

 कैसे होगा सब.. इसी चिंता में दिन-रात घुलती रहती। प्रताप व्हीलचेयर के सहारे था। खुद वह भी अवसाद का शिकार होता जा रहा था। कंपनी की तरफ से जो भी मदद मिली थी उसमें से काफी पैसा तो खर्च हो चुका था और अंदर से कितना और खर्च कर लेते। कहते हैं ना कि अगर अंदर से निकालते जाओ तो कुआं भी खत्म हो जाता है बस वही हाल मानसी और प्रताप का था।

बड़ा भाई भी कितनी मदद करता उसका अपना भी घर परिवार था। हां पर दोनों जेठ जेठानी ने हर संभव मदद की थी और आगे भी तैयार थे। मानसी के भाई और बड़ी बहन ने भी काफी मदद की थी पर बात तो वही थी कि कोई कितनी मदद कर सकता था।

“ऐसा कैसे चलेगा? बच्चों के खर्चे अभी और बढ़ेंगे… भैया भी कितनी मदद करेंगे ..तुम कहो तो मैं कोई काम करूं”, मानसी एक दिन बोली।

 “हां देख लो…कैसे दिन देखने पड़ रहे हैं… मेरी वजह से”, प्रताप उदास था।

“ऐसा क्यों सोचते हो.. हादसा तो किसी के साथ भी हो सकता है।तुम फिक्र मत करो… सब ठीक होगा”।


अगले दिन से मानसी ने एक दो जगह नौकरी की बात की स्कूलों में भी अपने एप्लीकेशन दे आई पर हर कोई बताने को बोलता पर कोई जवाब ना आता। दो-तीन महीने ऐसे ही बीत गए। फिर एक दिन मानसी ने सड़क के किनारे खड़े एक ठेले को देखा अच्छी खासी भीड़ थी वहां। दोपहर का समय था। घर में आकर उसने सोचा तो उसे लगा कि वह भी यह काम कर सकती है।

 घर में उसने अपना सुझाव बताया तो सबसे पहले सुमित्रा जी बोली,” लोग क्या कहेंगे भले घर की  बहू यह काम करेगी”?

“मांजी लोग कहां है? जब हमें पैसे की ज़रूरत है बच्चों की फीस भरनी है… प्रताप का इलाज कैसे होगा? हर बार बड़े भैया या मेरे मायके वालों को भी कहना कहां तक उचित है… और लोगों का तो काम ही कहना है। क्या सब हमारी मदद करने आएंगे और लोगों की बातों से ज्यादा मुझे अपने बच्चों की चिंता है।दूसरों से मदद लेकर कब तक हम अपना घर चलाते रहेंगे..अपना आत्मसम्मान भी तो कोई चीज होती है ना मां जी? मां जी को भी मानसी की बात उचित लगी और प्रताप ने भी उसका साथ दिया।

 बस फिर क्या था मानसी ने अपने जेठ जी को बताया। चाहते तो वह भी नहीं थे पर हालात और मानसी की हिम्मत देख मान गए। कुछ दिनों में उन्होंने आकर सब तय किया और साथ ही इस काम में मानसी के भाई को भी बुलाया उनके अनुसार मानसी के मायके वालों को भी बताना बहुत ज़रूरी था। 

 “देख मानसी… मैं नहीं चाहता तू यह सब करे। तुझे कोई ज़रूरत है तो मुझे बेझिझक बोल”, भाई ने फिर एक बार मानसी को कहा।

“नहीं भैया… तुमने बहुत किया है और मुझे पता है तुम आगे भी मदद करोगे पर मुझे भी तो कुछ करने दो। मैं खुद की और अपने घरवालों की मदद खुद ही करना चाहती हूं और अपने और अपने घर के आत्मसम्मान को भी बनाए रखूंगी तुम इस बात की फिक्र मत करो”, उसकी हिम्मत देख भाई फिर से चुप हो गया। 

“सब कुछ तय करने से पहले हमें अच्छी तरह से एक पूरा सर्वे करना चाहिए”, जेठ जी ने कहा।

 “देखो मानसी, घर से कुछ ही दूरी पर आमने-सामने दो कॉलेज हैं। ज़ाहिर है आसपास पीजी भी उपलब्ध हैं तो मुझे लगता है यही जगह सही रहेगी तुम्हें अपना स्टाॅल लगाने में”, उन्होंने आगे सुझाव दिया।

मानसी को उनकी बात बिल्कुल सही लगी और फिर कुछ ही दिनों में उसने सबकी मदद से वहां मैगी का स्टाॅल लगा लिया।शुरु शुरु में तो बहुत दिक्कतें आई कभी पुलिस वालों की, कभी निगम वालों की पर धीरे-धीरे सब सही होता गया।

 लोगों ने बहुत बातें बनाई,” देखो तो यह कोई काम है… ऐसे भले घर की बहू ऐसा काम करती हैं”। अक्सर ऐसी बातें मानसी के कानों में पड़ जाती जिन्हें वह पूरी तरह से अनसुना कर देती।

 उसका स्टॉल अब धीरे-धीरे चल पड़ा था।एक हेल्पर भी रख लिया था उसने। बच्चों की कोई दिक्कत नहीं थी घर पर मांजी उन्हें संभालती और पढ़ाई में प्रताप पूरी मदद करते। मानसी के हौंसले के आगे लोगों के मुंह बंद हो गए थे।उसका व्यवहार इतना मधुर था कि कॉलेज के बच्चों का झुंड  उसके स्टॉल पर हरदम खड़ा दिखाई देता और आसपास वाले भी पूरी मदद कर देते।


“यूअर मैगी इज़ बेस्ट आंटी”। अक्सर बच्चे उसे यह बात बोलते। धीरे-धीरे उसने अपने स्टाॅल पर पोहा और भेलपुरी जैसी चीज़ें भी रखनी शुरू कर दी थी। सफाई और क्वालिटी के साथ उसने कभी समझौता नहीं किया था।यही वजह थी कि बच्चे हरदम उसे घेरे रहते।

उसे वे मैगी वाली आंटी बुलाते थे और उसने अपने स्टॉल का नाम भी फिर यहीं रख लिया था। पिछले 16 वर्षों से वह स्टॉल… वह जगह मानसी का दूसरा घर थी। पूरे घर को  उसके स्टाॅल ने ही तो संभाला था।

 बच्चे भी अब बड़े हो गए थे। किशोर को नौकरी मिल चुकी थी। तुली कॉलेज में पढ़ाई कर रही थी।

 मानसी की सास गर्व से कहती,” मेरी बहू हीरा है हीरा सब कुछ संभाल लिया… घर को बिखरने से बचा लिया और अपना और हमारा आत्मसम्मान भी बनाए रखा”,कहते हुए उनकी आंखों में नमी और चमक दोनों दिखाई देती।


प्रताप भी खुश थे उनकी बीवी ने बच्चों को लेकर देखे सपनों को पूरा करने में जी तोड़ मेहनत जो की थी।

 मानसी अक्सर सोचती कि अगर वह लोगों की बातों पर ध्यान देती तो यह सब कैसे संभव हो पाता और आज वह मैगी वाली आंटी कैसे बनती और खुद ही मुस्कुरा उठती उसे खुद पर गर्व था कि उसने अपने आत्मसम्मान को बनाए रखने के साथ-साथ अपने बच्चों की परवरिश में कोई कमी नहीं छोड़ी थी।

#आत्मसम्मान

स्वरचित।

गीतू महाजन,

नई दिल्ली।

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