बेटों की मां – शिप्पी नारंग : Short Hindi Inspirational Story

गाड़ी एक धचके से ‘आशा किरण’ के सामने रुकी, मैंने चौंक पर आंखें खोली, बेटे की तरफ देखा और पूछा “आ गए क्या हम?” बेटे ने हां में सिर हिलाया तब तक ड्राइवर ने आकर मेरी तरफ का दरवाजा खोला और मुझे सहारा देकर उतारा बेटा भी तब तक मेरे पास आया और मेरा हाथ पकड़ कर ‘आशा किरण’ भवन की तरफ बढ़ा ।

  ‘आशा किरण’ एक वृद्धाश्रम है जहां अपने जीवन संध्या के शेष दिन वृद्ध लोग बिताते हैं.. कुछ अकेले कुछ अपने जीवन साथी के साथ । आज मेरे पति अरविंद जी का 70 वां जन्मदिन था वे पांच वर्ष पहले हमें अकेला छोड़ कर चले गए थे तबसे हम लोग उनके जन्मदिवस और पुण्यतिथि पर यहां आते थे और सामर्थ्यानुसार आश्रम में सेवा प्रदान करते थे।

 हर साल मेरा बेटा, नमन व मेरी बहू शिल्पा आते थे पर इस बार पता नहीं क्यों मेरा दिल हुआ कि मैं खुद यहां आऊं और आज मैं यहां बेटे के साथ खड़ी थी हालांकि जब मैंने बेटे से यहां आने के लिए कहा तो पता नहीं क्यों मुझे लगा कि बेटा कुछ क्षण हिचकिचाया लेकिन फिर उसने हामी भर दी और आज मैं यहां खड़ी थी।

हम लोगों ने गेट के अंदर प्रवेश किया आश्रम के संचालक गेट तक आए हमारा अभिवादन किया । बेटे ने कहा “मम्मा मैं ऑफिस होकर आता हूं आप यहां बैठ जाइए 4-5 सीढ़ियां चढ़नी होंगी आपको मुश्किल होगी।”  मैंने हां में गर्दन हिला दी और वही बेंच पर बैठ गई । चारों तरफ देखा खूबसूरत सा बगीचा था रंग बिरंगे फूल खिले हुए थे,  




हल्की सी ठंडक थी हरी हरी घास आंखों को शीतलता प्रदान कर रही थी, चारों और हरियाली सी छाई हुई थी कुछ वृद्ध धूप में बैठे अखबार पढ़ रहे थे,  कुछ आपस में बातें कर रहे थे और एक बुजुर्ग चार पांच बच्चों को पढ़ा रहे थे तभी आश्रम का सेवक चाय लेकर आया मैंने उससे पूछा तो उसने बताया यहां जो सेवादार हैं ये उनके बच्चे हैं ऐसे तीन बुजुर्ग और भी हैं जो इन बच्चों को शिक्षा प्रदान करते हैं । 

मुझे सुनकर बहुत अच्छा लगा फिर मैं इधर उधर नजर दौड़ाने लगी तभी एक कुर्सी पर बैठी एक महिला पर नजर पड़ी जो आंखों में चश्मा चढ़ाए अखबार में डूबी हुई थी उन्हें देखकर मेरे जहन में किसी की तस्वीर आ गई और फिर मैंने अपने आप ही “ना” में सिर हिला दिया वो भला यहां क्यों…? पर पता नहीं क्यों…. और मैं धीरे धीरे चलती उनकी और बढ़ी शायद उन्हें भी कुछ आभास हुआ । 

उन्होंने अखबार सामने से हटाया और दोनों के मुंह से एक साथ निकला “कांता” “प्रभा” सच में वह कांता थी कभी हम पड़ोसी हुआ करते थे तकरीबन 45 वर्ष हमने साथ साथ बिताए थे उनके चार बेटे थे,  बेटी कोई ना थी मेरा एक ही बेटा नमन था कांता जी के पति की कोई बहुत अच्छी नौकरी ना थी। 

वे खुद एक मेहनती और स्वाभिमानी महिला थी अच्छी परिस्थितियां ना होते हुए भी उन्होंने कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया । कांता जी और उनके पति ने शिक्षा के मामले में कभी कोई समझौता ना किया वो  खुद इतना पढ़ी थी कि अखबार वगैरह पढ़ लेती थी बस । अखबार पढ़ने का उन्हें जैसे चस्का सा था । बच्चे पढ़ने में बहुत अच्छे नहीं तो बहुत बुरे भी नहीं थे ।




 बच्चे बड़े होते गए,  पढ़ाई भी  कर ली और धीरे-धीरे नौकरियों में भी लग गए । घर के हालात सुधरते गए । घर भी धीरे-धीरे अच्छा बनवा लिया और ये बदलाव मेरे सामने ही हुए । कांता जी को अपने चारों बेटों पर बहुत गर्व था वो अक्सर  मुझे कहती थी “प्रभा,  मेरे तो चार बेटे हैं एक नहीं तो दूसरा,  दूसरा नहीं तो तीसरा कोई तो संभाल लेगा तेरा तो एक ही बेटा है क्या करेगी ? देख तो रही है जमाना कितना खराब है।” मुझे कई बार बहुत बुरा लगता था पर सामने से मैं शांत चित्त होकर जवाब देती थी कोई नहीं मेरी किस्मत,  जो होगा देखा जाएगा।”  

उनके बेटों की शादी हो गई बच्चे भी हो गए पर चार चार बहुएं और वो भी सब कामकाजी। कांता जी के पति का स्वर्गवास अपने दूसरे बेटे की शादी के बाद ही हो गया था ।एक घर में अब सबका गुजारा मुश्किल से हो रहा था तब तय हुआ कि यह मकान बेचा जाए चार हिस्से किए जाएं और सब अपना अपना हिस्सा लेकर अलग-अलग घर ले लें।

 मैंने उनसे कई बार कहा भी कि “चार नहीं पांच हिस्से करो। अपना भी  हिस्सा मांगो, कल को क्या हालात होंगे पता नहीं, सिर पर छत होगी तो कम से कम किसी पर निर्भर तो ना होगी”। पर उनका वही जवाब “मेरे तो चार चार बेटे हैं कोई ना कोई तो रखेगा ही।” चार चार बेटों की मां, जिनपर उन्हें बहुत गर्व था आज यहां?” कांता जी सबके बारे में पूछती रही।




 मैं कुछ पूछना चाहती थी पर हिम्मत ही ना हो रही थी। अचानक उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया और बोली ” प्रभा आज मुझे तुझसे माफी मांगनी है, कहते हैं न वक़्त और किस्मत कब पलट जाए कुछ पता नहीं। मुझे अपने चारों बेटों पर बहुत घमंड था। तुझे जब भी देखती थी तेरे लिए ‘बेचारी’ शब्द ही मेरे मन में आता था और आज देख चार चार बेटों के होते हुए भी मैं इस ‘आशा किरण’ में न जाने कौन सी आशा, ना जाने कौन सी किरण की उम्मीद में ज़िंदा हूं। 

चारों ने मेरा आशियाना बेचकर अपने अपने घर बनवा लिए। उनके घर में उनके कुत्तों के लिए जगह है वो पूरे घर में जहां चाहे घूम सकते थे लेकिन मेरे लिए एक कमरा भी उन चारों के पास नहीं था। तीन तीन महीने मैं पेंडुलम की तरह कभी एक के पास कभी दूसरे के पास डोलती रहती थी। 

चलो मैं इसमें भी खुश थी पर जब तक उनके घर का काम करती, उनके बच्चों का ख्याल रखती तब तक ठीक था। पर एक बार मैं बाथरूम में फिसल गई, पैर में फ्रैक्चर हो गया बस मैं सब पर भारी पड़ गई। डॉक्टर को दिखाना, दवाई लाना सब पर बोझ बन गया। जो भाई किसी भी मुद्दे पर एक नहीं होते वो मेरे मामले में एकजुट हो गए।

 छोटी बहू, अलका फिर भी तीनों से अच्छी थी वो मेरा ध्यान भी रखती थी, दवाई वगेरह भी वही लाती थी पर जब अपने ही सिक्के खोटे हों तो मैं बहुओं को क्या दोष दूं वो तो फिर भी दूसरे घरों से अाई थी। मुझे तेरी बहुत याद आती थी तू कहती थी ना अपना हिस्सा भी लेना और देख मेरी हालत कहां से कहां पहुंच गई। तू बता कैसी है? 




भगवान नमन जैसा बेटा सबको दे। तुझे पलकों पर रखा हैं और वो तो मेरी गोदी में भी खेला है वो उसको याद है। आज भी हर महीने आता है। मेरे हाथ में पैसे रख कर जाता है, हर दीवाली पर मेरे लिए नए कपड़े लाता है। दिल से उसके लिए दुआ निकलती है । भगवान चार बेटे न दे बस एक नमन जैसा बेटा ही दे दे तो इन वृद्धाश्रमों की जरूरत ही न हो।”

 और मैं चकित थी कि नमन यहां हर महीने आता था यानी वो जानता था कि उसकी चाची यहां पर है पर उसने मुझे कभी जाहिर नहीं किया। और फिर मुझे याद आया कि क्यों वो सुबह थोड़ा हिचकिचाया था जब मैंने आज साथ आने के लिए कहा था ।

 मुझे उस पर गर्व हो आया जानता होगा न कि मम्मा ये सुन कर दुखी हो जाएगी आखिरकार बरसों का साथ था। मैंने मन ही मन भगवान से उसकी सलामती की दुआ मांगी और ऊपरवाले का कोटि कोटि धन्यवाद् किया जिसने एक हीरा मेरी गोदी में डाल दिया था।

शिप्पी नारंग

नई दिल्ली

#नियति

Ser

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