बीस साल पहले – मधु शुक्ला

नरेंद्र बाबू ने सामान का थैला सीमा को सौंपते हुए कहा, “बहुत मँहगाई बढ़ गई है। बीस साल पहले राशन का महिने भर का सामान तीन चार हजार में आ जाता था। जब कि बच्चे और अम्मा बाबूजी साथ रहते थे।और अब हम दो ही हैं, फिर भी दस हजार के ऊपर खर्च हो जाता है।

सीमा – अरे किराना तो फिर भी ठीक मिल रहा है। सोने चांदी का रेट तो 8-10 गुना बढ़ गया है। मध्यम वर्ग के हाथ से निकलता जा रहा है सोना। बहू बेटियों को त्योहारों पर जेवर बनवाने की लालसा अधूरी रह जाती है। कपड़े देकर ही काम चलाना पड़ता है।

नरेंद्र – सही कह रही हो तुम सीमा। रिटायर्ड होने के बाद पेंशन में भोजन, कपड़ा, दवा की व्यवस्था ही मुश्किल से हो पाती है। जेवर के बारे में सोचना तो गुनाह है। जब कि अभी पेंशन बीस साल पहले की तुलना में दुगनी से अधिक मिल रही है। हमारे बाबूजी को तो पूरे दस हजार भी नहीं मिलते थे। वक्त हमेशा एक जैसा नहीं रहता है। जब चीजें सस्तीं थीं। तो आमदनी कम थी। और आज आमदनी अधिक है। लेकिन मँहगाई उससे भी अधिक है। समय हमें हर परिस्थिति में ढलना सिखा देता है। जिदंगी धूप छाँव की अभ्यस्त हो जाती है। 

सीमा – आप सही कह रहे हैं। बच्चों की पढ़ाई लिखाई शादी व्याह कैसे होगें हमें यही चिंता रहती थी पहले। लेकिन देखो ईश्वर ने सीमित आमदनी में सब कुछ अच्छे से सम्पन्न करा दिया। आगे भी सब ठीक ही चलेगा। यदि हम वक्त के साथ चलते रहेंगे। 

नरेंद्र – हम  तो हमेशा वक्त के साथ ही चले हैं। कभी फिजूलखर्ची नहीं की है। वक्त के अनुसार अपने रहन सहन और विचारों को भी बदला है हमने । तभी तो हमारी बेटी और बहू आर्थिक सहयोग देतीं हैं अपने पतियों को। और उनके पति हाथ बँटाते हैं। गृहस्थी के काम में, जिसकी वजह से परिवार में खुशहाली रहती है। आर्थिक संकट और विवाद की स्थिति नहीं पैदा होती है। 

सीमा — ने हँसते हुए कहा लेकिन आपने हमारे लिए अपने विचार नहीं बदले थे। नहीं तो आज हमारी आर्थिक और शारीरिक स्थिति ज्यादा अच्छी होती। जरूरत से ज्यादा श्रम करने और बचत करने के चक्कर में अपने खानपान में कटौती करती रही थी । उसी का नतीजा है। बुढ़ापे ने जल्दी घेर लिया। और दवाओं पर निर्भरता बढ़ गई। 

नरेंद्र – सीमा अब पुरानी बातों को मत उछालो। क्या मेरा व्यवहार बीस पुराना ही है। तुम्हारे प्रति? 

सीमा – नहीं मैनें ऐसा तो नहीं कहा। वक़्त ने हमारे घावों पर मरहम लगाया है। लेकिन मैं यह कहना चाहती हूँ। कि कितना अच्छा होता अगर ये घाव न होते। 

#वक्त 

स्वरचित — मधु शुक्ला . 

सतना, मध्यप्रदेश .

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