बारिश का इश्क (भाग – 4) – आरती झा आद्या: Moral stories in hindi

लंच की व्यवस्था बगल वाले हॉल में हुई और हम सभी वहां पहुंचकर आश्चर्यचकित थे। लंच के लिए नीचे चादरें बिछाई गई थी, जो हमें गाँव के समारोह की याद दिला रहा था। खुशबूदार चादरों पर बैठकर हमने एक दूसरे के साथ खाना बाँटने का आनंद लिया। मेरे पास पहले से इस तरह के समारोहों में शामिल होने का अनुभव था, लेकिन इस बार यह अद्वितीय और प्रिय था क्योंकि हमने विद्यालय में कभी इस तरह पूरी कक्षा के साथ सहभोज का आनंद नहीं लिया था।

बहुत से छात्र ऐसे भी थे जिनके लिए यह व्यवस्था नई थी, वो टेबल कुर्सी के आदी थे, जिसमें संगीता भी आती थी, वो तो मुॅंह खोले बस चादरों को घूरे जा रही थी। जूनियर्स ने सभी को इज्जतपूर्वक सम्बोधित किया और सभी को बैठाया। टीचर्स की बैठने की व्यवस्था अलग थी और उनके लिए भी एक विशेष जगह बनाई गई थी। स्कूल के अन्य कर्मचारी के लिए भी व्यवस्था की गई थी, जैसे की माली, वाचमैन और कैंटीन कर्मचारी।

यह विशेष तरीके से व्यवस्थित एक दूसरे के साथ बनी दोस्ती को मजबूत कर रहा था और यह समय हमें एक-दूसरे के साथ और भी घनिष्ठ बना रहा था और हम सभी मिलकर स्कूल के माहौल का मजा ले रहे थे। सभी के चेहरे पर छाई मधुर स्मित देख कर समझ आ रहा था कि यह अनूठा प्रयोग और अनुभव सफल रहा।

“उसको” छोड़कर, हम सभी बैचमेट्स बैठ गए और हमने गौर किया कि जूनियर्स सभी चीजें “उसकी” सलाह लेकर कर रहे हैं। केले के पत्ते पर हर तरह का भारतीय खाना परोसा गया और यह नज़र आ रहा था कि हर बच्चा खुशी-खुशी अपना कार्य पूरे मनोयोग से कर रहा था।

जूनियर्स हाथ में डिशेज के बर्तन लिए बारी बारी से सभी को खाना परोसते हुए एक अद्वितीय महौल तैयार कर रहे थे। सभी विविध भारतीय व्यंजनों में लिट्टी चोखा से लेकर पूरन पोली… रसम तक… मुँह में घुलता जाए… ऐसा स्वाद.. फिर आजतक मेरे मुँह में वैसा स्वाद नहीं गया। 

जूनियर्स सब के सामने केला का पत्ता बिछा कर  व्यंजनों को बर्तन से निकाल कर परोसते हुए हर किसी को स्वादिष्ट व्यंजन की अनुभूति दिला रहे थे। सभी विविध भारतीय व्यंजनों में लिट्टी चोखा से लेकर पूरन पोली… रसम तक… मुँह में घुलता जाए… ऐसा स्वाद.. फिर आजतक मेरे मुँह में वैसा स्वाद नहीं गया। उस समय हर प्रकार के भारतीय भोजन का आनंद लेने का अवसर हमें दिया गया था और उन व्यंजनों के साथ जूनियर्स के द्वारा चुटकुले भी परोसे जा रहे थे। उन्होंने न केवल हमें स्वादिष्ट खाना प्रदान किया बल्कि महौल को मजेदार बनाने के लिए भी उत्सुक रहे।

लंच के बाद, टीचर्स हॉल में चले गए, वहाॅं जूनियर्स के द्वारा आयोजित इस उत्कृष्ट आयोजन की बहुत तारीफ हो रही थी। उन्होंने इस सांस्कृतिक महोत्सव को इतनी मेहनत और सजगता से आयोजित किया कि सभी को बहुत मजा आया। 

हमने सिर्फ खाने का स्वाद ही नहीं लिया, बल्कि एक-दूसरे के साथ मस्ती, मज़ाक और दोस्ती का आनंद लिया। इसमें सबका बैठकर खाना खाने का यह एक अविस्मरणीय अनुभव था, जहां नवीनता और नये विचार ने सभी को चौंका दिया था। सभी ने खूबसूरत भोजन का आनंद लिया और इस माहौल में रहकर नए-नए विचारों का जिया।

लंच के बाद जैसे हम सभी बाहर जाने के लिए आगे बढ़ने लगे “उसने” कहा, “हमारे जूनियर्स भी लंच करेंगे, तो आप में से जो भी उनके लिए खाना परोसना चाहें रुक सकता है।” इस वक्त मैंने महसूस किया कि मेरे लिए यह एक सुनहरा अवसर हो सकता है। मेरे मन में “उसका” सानिध्य पाने का उत्साह और लोभ दोनों बराबर थे और मैंने तुरंत रुकने का फैसला किया। लेकिन संगीता के मन में हिचकिचाहट थी।

“मैं रुक कर क्या करूँगी? मुझे तो समझ ही नहीं आएगा कि क्या करना है?” संगीता मुझे रुकते देख मेरे कान में फुसफुसाई।

मैंने संगीता को आश्वस्त करते हुए कहा, “मैं हूँ ना.. सब हो जाएगा.. एक बार करके तो देख.. जैसे खाने में मज़ा आया ना.. वैसे ही खिलाने में भी आएगा.. देखना।”

“चल तेरे लिए रुक जाती हूँ। क्या याद करेगी तू भी.. तेरी प्रेम कहानी में छोटा सी भूमिका मेरी भी थी।” उसकी ओर देखती संगीता अब शरारत पर उतर आई थी।

उसकी बात पर मैंने ऑंखें तरेरते हुए कहा, “चुप कर.. फिर शुरू हो गई तू।”

इतनी देर में जूनियर्स बैठ चुके थे। केले के पत्ते बिछ गए थे। हम ने परोसने के लिए बर्तन हाथों में ले लिए।

मैंने भी उत्साहपूर्वक औरों के साथ खाना परोसने का कार्य शुरू किया। साड़ी के कारण कुछ क्षणों तक दिक्कतें आईं। पल्लू सम्भालूँ या खाना परोसूँ, इस बीच कैसे सामंजस्य बनाएं, यह एक चुनौती थी। खुद पर नाराज होती मैं खीझ कर बर्तन नीचे रख कर खड़ी हो गई। उस समय फिर मुझे महसूस हुआ कि उसकी भी निगाहें मेरे पर ही टिकी होती हैं। पता नहीं तुरंत कहाँ से प्रकट हुआ और “पल्लू को कमर में दबा लो”, बोल कर चला गया। मैं तो देखती ही रह गई.. कोई इतना सुन्दर.. इतना स्मार्ट… इतना विनम्र भी हो सकता है।

पल्लू को कमर में दबा कर मैंने पुनः काम पर लग गई

ये तो नहीं कहूँगी कि दिक्कत नहीं हुई। साड़ी की आदत नहीं होने के कारण थोड़ी दिक्कत तो हुई। हॅंसी खुशी के माहौल में जूनियर्स का लंच भी सम्पन्न हो गया और साड़ी संबंधित चुनौतीपूर्ण पल में मैंने स्वयं को साबित करते हुए आत्म-समर्पण और उत्साह का अहसास किया। 

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फिर से कार्यक्रमों का आयोजन प्रारंभ हुआ और पहला प्रोग्राम मुशायरा का था। सभी जूनियर्स, सीनियर्स एकत्र हुए और शेरों शायरी का जादू शुरू हो गया। सभी एक दूसरे के शेर सुनने और सुनाने में लगे थे। मैंने और संगीता ने भी कई सुंदर शेर सुनाए। “उसने” ने भी खुद से लिखे कई शेर साझा किए, जिनसे हर किसी को जुड़ाव महसूस हो रहा था। उसका एक शेर कुछ यूॅं था, 

“एक तमन्ना मचल रही, देखूँ पीली साड़ी में,

हो जाओ शामिल मेरे जीवन की गाड़ी में।”

ये सुनकर तो मैं चौंक उठी और झटके से उसकी तरफ देखने लगी तो शरारती मुस्कान लिए वो मुझे ही देख रहा था। इस शेर के माध्यम से उसने अपनी ख्वाहिशों को मुझ तक बहुत सुंदरता से पहुॅंचाया, जो मेरे मन को गहरे तक छू गया था। “जीवन की गाड़ी में शामिल होने” की इच्छा उसकी तरफ से एक सकारात्मक और आत्म-समर्पण भरा संदेश था और यह मुझे भावनात्मक रूप से प्रभावित कर रहा था।

“मेरी नजरें खुदबखुद झुक गईं थी। उसकी निगाहों में प्यार का समंदर, भविष्य की कामना इस तरह हिलोरें ले रही थी कि फिर मुझसे कुछ नहीं बोला गया। मेरी झुकी ऑंखें शर्म से इतनी भरी हो गईं कि उसके बाद ना मेरी नजरें उठीं और ना ही मुझसे कुछ बोला जा रहा था।” वर्तिका अपने बेटी सौम्या से कहती हुई चुप हो गई और जाने किस कल्पना लोक में खो गई। उसकी आँखों में विचारों का संगम था, ऐसा लग रहा था जैसे मानो वह चुप होकर अपने अंदर छिपी भावनाओं को सुन रही थी।

“माँ! आगे क्या हुआ? फिर पापा से कैसे मिली आप कैसे और कहाॅं मिलीं। आपने अपने घर पर बताया नहीं।” वर्तिका के बोलने का इंतजार करती सौम्या धैर्य खोती हुई कहती है।

वर्तिका तो कल्पना लोक में थी, जिसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। वो तो अपने अतीत को बेटी और पति से बाॅंटती हुई उस अतीत में विचरण करने लगी थी।

“पापा.. आप जगाइए ना माँ को। इतनी सुंदर कहानी के मध्य ऐसे कोई चुप होता है क्या?” सौम्या सुधीर की ओर देखती थोड़ी नाराजगी से कहती है।

“ये तो तुम्हीं करो.. मेरी इतनी जुर्रत की तुम्हारी माँ को कल्पना लोक से बाहर ला सकूँ।” सुधीर मुस्कुरा कर बेटी से कहते हैं।

“ओह हो पापा, आप भी ना। मम्मी”.. सुधीर से बोलती हुई सौम्य वर्तिका का हाथ पकड़ कर झिंझोड़ती है।

“हाँ.. कहाँ थे हमलोग”, अचानक वर्तिका का ध्यान समय पर जाता है। “पाँच बज गए, माया नहीं आई है अभी तक और तुझे पियानो क्लास नहीं जाना क्या?”

तभी उसकी नजर माया पर पड़ती है… “तुम कब आई माया।”

“एक घण्टे तो हो गए दीदी। आपने घंटी की आवाज भी नहीं सुनी थी। कितनी सुन्दर कहानी सुना रही हैं दीदी आप। ये सच्ची आपकी कहानी है क्या दीदी?” माया अपने ऑंखों को आश्चर्य से बड़ी करती हुई पूरा ब्यौरा देती हुई वर्तिका से पूछती है।

“अब कोई कहानी-वहानी नहीं। अब सब अपने अपने काम पर लगो। सुधीर सौम्या को क्लास जाने कहें प्लीज।” वर्तिका खड़ी होती हुई सुधीर से कहती है।

“आज मैं पूरी तरह छुट्टी पर हूँ, किसी से कुछ नहीं कहूँगा।” सुधीर फैल कर बैठते हुए कहते हैं।

“आज सिर्फ आपकी कहानी मम्मी .. प्लीज ना”, सौम्या बच्चों की तरह वर्तिका का ऑंचल पकड़ कर मचलती हुई कहती है।

“नहीं, तुमलोगों ने इस चक्कर में लंच भी नहीं किया।” वर्तिका सौम्या को हल्के से डपटते हुए कहती है।

“अभी मैं फटाफट सैंडविच बना देती हूँ, फिर आराम से आप कहानी सुनाना दीदी।” माया कहानी सुनने के प्रति उत्सुकता दिखाती हुई कहती है।

वर्तिका, माया के विचार सुनकर कहती है, “क्या कह रही हो। तुम तो काम कर लो, और भी जगह तुम्हें जाना होगा ना काम के लिए।”

“मैंने सब जगह फोन कर बता दिया है कि आज नहीं आ सकूँगी और आप चिंता ना करें दीदी, आपकी कहानी बाहर नहीं जाएगी। साहब से इसी शर्त पर कहानी सुनने की आज्ञा मिली है।” माया रसोई की ओर रुख करती हुई कहती है।

“पहले सैंडविच चाय बना लो। पूरा दिन गुजर गया इसी में।” वर्तिका सबके लिए चिंतित होती हुई कहती है।

सुधीर उठ कर वर्तिका का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहते हैं, “कोई बात नहीं मेरी प्रिय, कहानी के साथ साथ तुम्हारे चेहरे की लुनाई देखना बहुत ही रोमांटिक सा लग रहा है।” 

“पेट पूजा तो हो गई। डार्लिंग, अब तुम्हारी कहानी द्वारा दिल और दिमाग की पूजा शुरू की जाए।” सुधीर पूरी तरह उस कहानी की गिरफ्त में आ चुके थे।

सुधीर द्वारा यह सुनने पर सौम्या और माया भी वही आकर बैठ गईं और वर्तिका की ओर टकटकी लगाकर देखने लगीं।

“आगे मम्मा”… इस कहानी के मोह में सौम्या अधीरता की परिचायक बन गई थी।

इस प्रोग्राम के बाद जूनियर्स की तरफ से उद्घोषक के द्वारा हमें अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर प्रदान करने के लिए पूछा गया… “क्या आप सब में कोई और भी प्रस्तुति देना चाहेंगे?”

वहाँ उपस्थित सारे विद्यार्थी टीचर्स शांत ही थे। लेकिन संगीता ने मुझसे कहने लगी, “तूने नृत्य के लिए अपना नाम क्यूँ नहीं दिया था?”

“बस इस बार एंजॉय करने की इच्छा थी।” मैंने संगीता को बताया।

“तेरा वो क्या सोचेगा, कैसी डफर है?” संगीता उसकी दिशा में देखती हुई कहती है।

कोई कुछ नहीं सोचेगा और कितनी बार तो देखा है सबने मेरा नृत्य।” मैंने कहा।

अच्छा ठीक है, कुछ नहीं तो शब्दांत अक्षरी के लिए पूछ ना सबसे। हम तुम खेलते हैं तो कितना मजा आता है ना, सबको वही खेलने बोल ना।” संगीता मेरी तरफ घूम कर मुस्कराती हुई कहती है और उसकी आँखों से खेल के लिए उत्साह स्पष्ट दिख रहा था। हमारे एक साथ बिताए गए समय की खुशियों को साझा करती हुई संगीता की बातों में खेल का मजा और मित्रता का रंग बसा हुआ था।

“अचानक, सभी को समझाने में ही समय बीत जाएगा।” मैं अपनी जान छुड़ाती हुई कहती हूॅं।

“हाँ.. तो यह अचानक का ही गेम तो है। सबकी रचनात्मकता बाहर आएगी, भले ही टूटी फूटी भाषा में आए।” संगीता बात मानने वालों में से कहाॅं थी।

“और अगर यह गेम किसी को पसंद नहीं आई तो।” मैं पेशोपेश में थी।

संगीता झल्ला उठी थी, “ऑफ्फ्हो.. कितना सोचती है तू और खड़े होकर बोलेगी या नहीं।” अपनी हथेली को मुट्ठी बनाती हुई संगीता मुझे धमकाती हुई कहती है।

“मेरी सहेली वर्तिका कुछ बोलना चाहती हैं। आप सब के साथ एक गेम खेलना चाहती है।” जब तक मैं संगीता को कुछ उत्तर देती वो मेरे नाम का ऐलान कर चुकी थी।

“मरता क्या ना करता.. अब मुझे बोलना ही पड़ा।” सोच कर मैं बोलने के लिए उठ खड़ी हुई। वहाँ उपस्थित सारे लोग मेरी ओर देखने लगे। उन सबको मुझसे एक डांस परफॉर्मेंस की उम्मीद थी लेकिन यहाँ तो मैं गेम की बात करने वाली थी।

“मेरे आदरणीय शिक्षक गण.. मेरे छोटे भाई और बहनों.. मेरे दोस्तों… मैं और संगीता अक्सर शब्दों के साथ एक गेम खेलते हैं। आज मैं चाहूँगी कि वो गेम हम सब मिल कर खेलें।” मैंने बोलना आरंभ किया, “उसकी” नजरों के ताव से मेरी आवाज़ लड़खड़ा रही थी। किसी तरह मैंने खुद को संयत किया और फिर से बोलना शुरू किया।

शब्दांत अक्षरी एक मनोरंजक गेम है जिसमें हम सिनेमा के गानों की जगह खुद की कविताएं बनाते हैं। हम खुद की दो, चार, छह पंक्तियों की कविता तत्काल रचते हैं और उस कविता के अंतिम शब्द से दूसरा साथी या समूह खुद की कविता तत्काल रचते हैं। यह एक मजेदार गेम है, जिसमें लोग अपनी कल्पना और शब्दों का उपयोग करके रचनात्मक हो सकते हैं। तो दोस्तों क्या आप सब शब्दांत अक्षरी खेलना चाहेंगे?” अपनी बात समाप्त कर मैंने चारों ओर नजर दौड़ाई।

“वो” उठकर बोलता है.. “साउण्ड अमेजिंग.. पहली बार ऐसा कुछ सुना है.. सो क्रिएटिव।”

“इस खेल को रचने वाली वर्तिका है।” संगीता ताली बजाती हुई खड़ी होकर कहती है।

संगीता के साथ साथ टीचर्स की ओर से मेरे लिए प्रशंसात्मक बातें कही जाती हैं और तालियाँ बजाई गईं थी। खुद पर उस समय गर्व हो आया था। तालियों ने मेरी उपस्थिति को गरिमामय बना दिया था और मेरे हौंसले को बढ़ाया। उस समय मुझे अपनी उपलब्धियों पर गर्व हुआ। यह बोलते हुए वर्तिका के चेहरे पर मुस्कान आ गई थी और यह मुस्कान बसंत के आगमन की तरह खिली खिली प्रतीत हो रही थी।

वर्तिका मुस्कुराती हुई आगे कहती है, “मुझे याद है कि तीन समूह तैयार किया गया था और वो समूह था एक शिक्षकों का, एक में हम सभी सहपाठी का और एक जूनियर्स का। बहुत जोर शोर से खेल शुरु हुआ था। सबको इतना मज़ा आ रहा था कि हमें समय के बीतने का पता ही नहीं चला। हर समूह अपने दम पर कविता रच रहा था और हर कदम पर रोमांच बढ़ता जा रहा था। शिक्षकों के समूह ने अपनी व्याख्यान कला का प्रदर्शन किया और जूनियर्स समूह एक रणनीति तैयार कर हम सभी को हैरान करते हुए बहुत ही प्रभावित किया। यह खेल अब एक शानदार स्पर्धा की तरह हमारे सामने थी।

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बारिश का इश्क (भाग – 5) – आरती झा आद्या: Moral stories in hindi

आरती झा आद्या

दिल्ली

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