बंद दरवाजा  –  सीमा वर्मा

” मम्मी आप इस दरवाजे को हर समय बंद क्यूं रखती हो ? ” ” तुम्हें इससे क्या ? तुम सीधी स्कूल से घर और घर से स्कूल आया – जाया करो बीच में कहीं आने-जाने की जरुरत नहीं है और ना ही किसी से मिलने-जुलने की ” “लेकिन क्यों मम्मी ? बाकी की सारी लड़कियां आपस में मिलती और एक दूसरे की हेल्प करती हैं। एक मैं ही अकेली मुझे आप किसी से मिलने भी नहीं देती हो सब मुझको ‘साइको’ कह कर चिढ़ाते हैं ” ” ओफ्फो… सच में ? ” — निशा हैरान हो गई। पति योगेन्द्र के जाने के बाद यूं ही उसकी नींद कम हो गई थी। पिछले कुछ सालों से सयानी होती सारिका की आंखों में फिर वही सवाल तैरते देख बची- खुची भी पूरी गायब हो गई है। सारिका भी हर समय उसे अपने बारे में सशंकित देख कर परेशान हो जाती है, ” क्या बात है मम्मी, आखिर हुआ क्या है आपको ? आप हर समय इतना घबराई सी क्यूं रहती हो ?” ” कुछ नहीं बेटा , कुछ भी तो नहीं! ” कहती हुई निशा का मन चकरी पर बंधा हुआ उसके बचपन में चला गया। बहुत छोटी थी। जब पिता सुबह ही काम पर निकल जाते और देर रात गए वापस लौटते। पापा को निशा से बहुत आशाएं थीं। कितने अरमान थे उनके निशा को लेकर उन्होंने बड़े-बड़े सपने पाल रखें थे। लेकिन एक दिन नियति के क्रूर हाथों ने उन्हें उनके परिवार से सदा के लिए अलग कर दिया। रोड ऐक्सिडेंट ने उनकी सारी देह को पीस कर रख दिया था। एक क्षण में पूरा परिवार शरर्णाथी बन गया था। अभी महीना भी नहीं बीता था कि उन्हें कम्पनी के क्वार्टर को छोड़कर किराए के छोटे से मकान में आ जाना पड़ा था। लेकिन मां हिम्मत वाली और दिलेर थीं। उन्होंने सिलाई-कढ़ाई का काम शुरू कर दिया था




इसके लिए उन्हें दिन भर अलग-अलग दुकानों के चक्कर लगाने पड़ते। खेलने-खाने की उम्र में निशा दिन भर अकेली बैठी उनकी राह देखा करती। थोड़े दिनों बाद ही पापा के जो साथी उनके रहते घर आया करते थे उन्होंने फिर से आना- जाना शुरु कर दिया था, कोई हमदर्दी दिखाने आया , कोई मिठाई लेकर आता , तो कोई जाते समय उसे सौ-पचास रुपये पकड़ा जाता था, कोई उसे सिर्फ प्यार से पुचकार कर चला जाता था। निशा तब बड़ी हो चली थी। सब समझने लगी थी। कौन कब , क्यों और किस निगाह से उसे देखता है इसका भान उसे हो जाता था। उस दिन इतवार था और मां घर पर ही थी। पिता के पुराने परिचित ‘ हरमुख अंकल ‘ आए हुए थे। मां उनके लिए किचन में चाय बना रही थी। उन्होंने निशा को जबरदस्ती गोद में बिठा लिया था फिर उसे भींच कर चूमने लगे थे। उसी वक्त मां चाय का कप लिए हुए आ गयी आ गई थी। चाय का कप उनके हाथों से छूट कर गिर गया था।

वे एकदम से बिफर गयीं , ” शर्म नहीं आती आपको, बेटी से इस तरह की हरकत …! ” अंकल पहले तो सकपकाए -खीसिआए , फिर कुछ रुक कर व्यंग्य बाण छोड़ते हुए बोले , ” शर्म किस बात की निशा की मां, बेटी ही तो है ? मैं तुम दोनों को ही अपने साथ ले जाने आया हूं” ” खबरदार जो आगे एक लफ्ज़ भी … ” आगे मां की विवशता रुलाई बन कर फूट पड़ी थी। वे सन्न रह गई थीं। उस दिन से उन्होंने घर की सारी खिड़कियां और दरवाजे बंद कर दिए। अब घर में कोई नहीं आता था। जिसे काम होता वह खिड़की से ही बातें करके चला जाता। बारहवीं पास करते ही मां ने खाते-पीते घर के योगेन्द्र से उसकी शादी कर दी थी। निशा तब महज गठरी बन कर मायके से ससुराल तक की दूरी तय कर कालांतर में सारिका की मां बन गई थी। यहां भी उसे योगेन्द्र का साथ अधिक दिनों तक नहीं मिल पाया था।

भरे- पूरे ससुराल की निशुल्क सहायिका बनी निशा, जहां उसकी मर्जी ना कभी पूछी जाती है, ना वह कभी अपनी मर्जी का कुछ कर पाती है। — खोई-खोई लगभग मुर्च्छित सी निशा के मुंह से गो-गो की आती आवाज से डर कर चौंक पड़ी सारिका ने निशा को झकझोरते हुए , ” उठिए -उठिए मम्मी , क्या हुआ आपको ? आप होश में तो हैं ? गहरी नींद से जग पड़ी है निशा ! क्या जवाब दे वह सारिका के सवालों के ? उसने तीव्र गति से उठ कर घर के सारे खिड़की -दरवाजे खोल दिए और सारिका के हाथ पकड़ , ” जा उड़, मेरी चिड़ियां जी खोल कर उड़ जब तक पंख फैला कर उड़ेगी नहीं जानेगी किस तरह कि शिकारी पग-पग पर जाल बिछाए बैठा है ” ” मैं ने अपने पापा के सपने पूरे नहीं किए , तुम तो पूरे करोगी ना ? तुम्हें भी स्वच्छंद हो कर जीने का अधिकार है मेरी बच्ची सबका सामना नीडर हो कर करना ” सारिका ने अपनी मां को आज से पहले कभी इतनी खुश और संतुष्ट नहीं देखा था , वह भी मुस्कुरा उठी।
सीमा वर्मा / नोएडा
# दर्द

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