हमारे समाज में व्याप्त सकारात्मक सोच और नकारात्मक सोच के अनुसार “बहु का बेटी होना” यह कथन भी विचारणीय है । यह कहावत अक्सर महिलाओं के मुख से सुनने को मिलती है कि “एक बहु भी बेटी होती है !” जबकि यह कहावत व कथन केवल कहने मात्र ही है क्योंकि एक बेटी जब मायके पक्ष को छोड़कर ससुराल पक्ष की ओर गमन ( विदाई ) करती है तो उसके जीवन में बदलाव के साथ साथ अनेकों रिश्ते और ज़िम्मेदारियाँ जुड़ जाती हैं । उन्हीं रिश्तों में एक बेटी को सभी रिश्तों में जोड़ दिया जाता है ।
जब वह अपने ससुराल पक्ष में होती है तो उसे बताया जाता है कि ये तुम्हारी ननद , जेठानी , देवरानी और ये तुम्हारी सास है । इसके अलावा ये तुम्हारे जेठ जी , देवर जी , ससुर जी आदि हैं । ये सब रिश्ते उसे वहाँ सबके द्वारा बार बार अवगत कराए जाते हैं और वह एक ही जैसे रिश्तों को लेकर उलझ जाती है लेकिन उसे कभी नहीं बताया जाता है कि “प्यारी बहुरानी ! जो तुम्हारी सास है न वो तुम्हारी माँ , तुम्हारी ननद, जेठानी और देवरानी सब तुम्हारी सखी सहेली जैसी हैं !”
क्योंकि ससुराल पक्ष की मानसिकता में वो बेटी उस घर की बहु होती है और पड़ोसियों भी उसे बेटी न कहकर बहु कहकर संबोधित करते हुए अपने अपने रिश्ते से पुकारते हैं । हमारे समाज में व्याप्त जब वो बेटी उन्हीं रिश्तों में कुछ उथल पुथल कर दे तो उसे यह कहकर ताना दिया जाता है कि “मायके वालों ने सब पढ़ा लिखा कर भेजा है , जबकि मायके पक्ष से बेटी को यह सब कुछ सीखना पढ़ाना तो दूर , उसे तो यह सब बताया भी नहीं जाता है । एक बेटी सब कुछ अपने ससुराल पक्ष के वातावरण से सीखती है।
पाकिस्तान के मशहूर शायर और लेखक “खलील उर रहमान साहब” ने कहा है कि – “हमारे घर की अधिकतर महिलाऐं लड़ाई झगड़ा करना बंद कर सकती हैं अगर उनको ससुराल पक्ष के रिश्तों से रूबरू न कराकर उन्हें बेटी समझा जाए !!”
अफसोस ! सामाजिक आवरण में ऐसा कभी नहीं हो सकता है क्योंकि हमारा समाज “सास भी कभी बहु थी” वाली परंपरा पर निर्भर है।
आधुनिक युग में एक दूसरे को रिश्तों में जकड़ कर रखना भी अपराध के योग्य होना चाहिए जिससे कि आने वाली पीढ़ियों में सकारात्मक सोच का विकास हो ।
संदेश :
शर्म झलक रही नयनों से !
शोभा झलक रही गहनों से !
घर की ज्योति प्रज्वलित हुई ,
माँ, बेटी, पत्नी, बहनों से !!
लेखक :
डॉ. शशि कान्त पाराशर “अनमोल”
नारी प्रधान लेखक
मथुरा, उत्तरप्रदेश