अपना और अपनी पत्नी का सामान दोनों हाथों में टाँगे मैं लंबी -लंबी डग भरते हुए चल रहा था। बीच-बीच में पलटकर देख भी ले रहा था कि विभा मेरे पीछे है या नहीं! कभी-कभी वह बहुत पीछे रह जाती थी तो मैं जोर से आवाज लगा रहा था….विभा…..विभा आ रही हो ना! वह तुनक कर रुक जाती और कहती नहीं मैं नहीं आ रही…तुम जाओ!
अभी वह बिल्कुल बच्चे जैसी लग रही थी। मैं रुक गया और बोला-” अरे! भाग्यवान गुस्सा क्यों करती हो….हम जितना जल्दी चलेंगे उतना जल्दी पहुंचेगे ना।” जब कुम्भ स्नान के लिए चले हैं तो क्यूँ नहीं शुभ मुहूर्त में ही स्नान करें।
विभा हांफते हुए बोली-” मुझे क्या पता था कि आप मुझे पहले दस किलोमीटर फेरे लगवाने के बाद कुम्भ स्नान करवायेंगे ।”
चलते चलते थक गईं हूँ थोड़ी देर रुकिए फिर चलेंगे सांसे उखड़ रहीं हैं मेरी!”
अच्छा ठीक है भाई! सिर्फ तुम ही नहीं सब भाग रहे हैं यहां। पास में ही थोड़ी खाली जगह देख हम दोनों बैठ गए। मैंने विभा को गौर से देखा उसकी आँखों में एक अलग ही खुशी थी। मैं जानता था कि वह कौन सी खुशी थी। वैसी खुशी भगवान हर माँ-बाप को दे । दूर परदेश बैठे बेटे ने पता नहीं कैसे ताड़ लिया था कि माँ को कुम्भ मेला देखने और उसमें स्नान करने की इच्छा है। उसने ट्रेन के टिकट से लेकर आने- जाने ,रहने -खाने सब की व्यवस्था कर दी थी और मुझे जिम्मेदारी सौंपी थी साथ लेकर जाने की। उसने बेटे का फर्ज निभाया और बाकी पति का फर्ज मैं निभा रहा था।
घाट लगभग दो किलोमीटर से अधिक नहीं था फिर भी भीड़ इतनी थी कि प्रयाग राज में पानी नहीं आदमियों का समुन्दर दिख रहा था । हमलोगों ने फिर से चलना शुरू किया। सामने एक सीढ़ी नुमा टेंट लगा हुआ था। पत्नी अचानक से वहीँ खड़ी हो गई। मुझे जब उसके पीछे पीछे आने की आहट नहीं मिली तो मैंने फिर टोका-” विभा….!”
पीछे से कोई उत्तर नहीं मिला तो मैं ठिठक गया और पीछे मुड़कर देखा । वह एक बुढ़ी महिला के पास खड़ी थी। जवान तो हम भी नहीं थे पर वह अम्मा लगभग सत्तर के आसपास की थीं। मैंने सोचा क्या बात है!
कहीं विभा उनकों जानती तो नहीं ! कुम्भ मेले की अनेकों किस्से -कहानियां हैं जिसमें मिलने और बिछुड़ने की दस्ताने पढ़ने और सुनने को मिलती हैं। मैं भी जाकर पत्नी के बग़ल में खड़ा हो गया।
बेचारी बुढ़ी अम्मा जार- जार होकर रोए जा रही थी। कुछ देर के लिए तो मेरी सारी खुशी ठण्डी पड़ गई। पत्नी जानने की कोशिश कर रही थी कि क्या बात है वह क्यों रो रही है पर वह बुढ़ी कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं थी। वह मुँह ढके खाली हिचकी ले रही थी।
मैंने पत्नी को इशारा किया कि पहले वह बुढ़ी अम्मा के पास बैठ जाए। फिर जब इनको भरोसा होगा तो ये अपने आप ही रोने का कारण बता देंगी। मुझे लगा विभा मुझ पर झल्ला जाएगी पर वह भी धर्य की मुरत है। मैं अपनी नौकरी के सिलसिले में हमेशा घर से बाहर रहा था पर विभा ने बगैर किसी शिकायत के मेरे माता-पिता की सेवा से लेकर तीनों बच्चों का पालन पोषण किया था। उसके सेवा भाव से खुश होकर मेरी माँ उसे अक्सर “दूधो नहाओ पुतो फलों” का आशीर्वाद देती थीं। शायद उसी का परिणाम है कि तीनों बच्चे एक से एक बड़े पद पर अधिकारी बन कर समाज की सेवा कर रहे हैं। विभा के कुछ कहने से पहले ही घर के बड़े -छोटे सभी उसके लिए सबकुछ करने के लिए तत्पर रहते हैं। घर की पर्याय है विभा ! ये ना रहे तो घर भी रोता है!
विभा ने बुढ़ी अम्मा की आँखों से बहते आंसुओ को अपने हाथ में रखे रुमाल से पोंछ दिया था। उसने उनके माथे को सहारा देकर अपने कंधे पर लिपटा लिया था और उनकी सफेद हो चले बालों को सहला रही थी।
सच कह रहा हूं मैं बता नहीं सकता कि मैं उस दिव्य दृश्य का कैसे वर्णन करूँ। साफ दिख रहा था जैसे साक्षात गंगा मइया विभा से गले मिल रहीं हों। क्षण भर के लिए मेरे रोंगटे खड़े हो गए। मेरा गला भर आया । बिना किनारे गये ही मैं संगम में डुबकी लगा रहा था। मैंने बहुत जगहों पर पढ़ा और सुना था कि कुम्भ में कुछ अद्भुत घटित होता है। कहीं यही तो नहीं…..!
मैंने विभा से कहा अब माई से पूछो तो क्यों रो रहीं हैं? “
विभा ने मुझे इशारे में कुछ भी पूछने के लिए मना किया। उसने अम्मा से बच्चों सा पुचकारते हुए कहा -” अम्मा चलोगी हमारे साथ? पहले हम सब स्नान कर लेंगे फिर तुम जहां कहोगी छोड़ देंगे।”
विभा के छोड़ देंगे कहते ही अम्मा ने जोर से उसका हाथ पकड़ लिया और ठिठुरते हुए बोली-” नहीं बऊआ हमको मत छोड़कर जाना हम कहां जाएंगे? मेरा यहां कोई नहीं है। ”
“तुम चिंता मत करो अम्मा हम तुम्हें बिल्कुल भी नहीं छोड़ेंगे ।ठीक है न हम हैं तुम्हारे साथ!”
दो चार घंटे रुककर इंतजार करने के बाद कहीं कोई अपना अम्मा का लेने आ जाये ।लेकिन कोई नहीं आया। उस तीर्थ के सैलाब में कोई अपना नहीं था। हम दोनों पति -पत्नी अम्मा को लेकर घाट पर पहुंचे अपने साथ उन्हें भी स्नान करवाया। दान पुण्य करने के लिए जब हम पैसे निकालने लगे तो देखा अम्मा की त्रिवेणी जैसी आँखों से एकबार फिर जलधारा बहने लगी। वह भरे गले से बोली-” बेटा कुछ पैसे हमने भी रखे थे दान पुण्य के लिए लेकिन जाते समय बेटे ने वह भी छीन लिया और मुझे छोड़कर चला गया। ”
अम्मा की बात सुनकर हम दोनों स्तब्ध हो एकदूसरे को देख रहे थे और हमारी आँखों में एक ही प्रश्न था “क्या औलादें ऐसी भी होती हैं!”
मेरे बाबुजी कहा करते थे कि- “पूत सपूत तो का धन संचय और पूत कपूत तो काहे धन संचय”इसका अर्थ अब जाकर समझ में आया था।
हमने दोनों तरफ से अम्मा की कांपती कलाईयों को थाम लिया और सहारा देकर अपने स्थान पर लेकर आए जहां हम रुके हुए थे।अम्मा कुछ भी खाने को तैयार नहीं थी। विभा ने अम्मा को अपने हाथ से ज़बर्दस्ती एक निवाला खिलाते हुए कहा-” अम्मा तुम्हें पता है जब मैं छोटी थी तभी मेरी माँ चल बसी थी। शायद गंगा मइया ने मुझे इसीलिए बुलाया था कि मुझे फिर से तुम्हारे रूप में अपनी माँ मिल जाए। आज के बाद कभी ना कहना कि तुम्हारा कोई नहीं!”
हम दोनों अम्मा को लेकर वापस घर चले आये।बच्चों ने पूछा कि हम इतनी जल्दी कैसे आ गए तो विभा ने कह दिया कि हमें जल्दी ही भगवान के दर्शन हो गए थे। बाद में जब कहानी पता चली तो सबने हम दोनों को खूब सराहा। बच्चों ने कभी जाहिर नहीं होने दिया कि वे अम्मा को नहीं जानते। किसी ने कभी उनके अतीत के विषय में कोई प्रश्न नहीं किया। वह सबकी अम्मा थीं। माँ की तरह वह भी विभा को हमेशा दूधो नहाओ पूतो फलों का आशीष देती रहीं।
दस साल हमारे साथ रहने के बाद हमारी बुढ़ी अम्मा यानि हमारी गंगा मइया जो हमें संगम में मिलीं थीं हमें धन -धान्य कर स्वर्गलोक सिधार गईं।
ऐसा नहीं था कि मैंने प्रयास नहीं किया था अम्मा के घर वालों को ढूंढने की पर सफलता नहीं मिली। आज की तरह उस वक्त सोशल मीडिया और फोन का इतना प्रचलन नहीं था।अब तो छोटी छोटी बातें पल भर में दुनियां के सामने आ जाती हैं।हो सकता था अम्मा के घर वाले मिल जाते पर क्या फायदा उन्हें अम्मा की जरूरत होती तो छोड़कर ही क्यों भागते। उनके लिये अम्मा बोझ थी और हमारे लिए माँ…..जब भी मैं मोबाइल पर कुम्भ के मेले का आयोजन देखता हूं तो हर जगह मुझे गंगा मइया के साथ अम्मा आशीर्वाद देते दिखाई देती हैं।
स्वरचित 🙏
डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर बिहार