अविस्मरणीय स्मृति – सुधा शर्मा

 कई दिनों से चित्त बहुत उद्वेलित था। कुछ अच्छा नहीं  लग रहा था। मन बहुत विचलित हो रहा था ।

   विचित्र परिस्थितियों में बचपन में बिछड़ गई थी अपनी  बडी बहन मोना से।वक्त के अन्तराल में हम दोनों अलग थलग हो गये थे ।दो दिशाओं में दो तरफ। बहुत समय तक एक दूसरे का समाचार भी नही मिला था।मै शादी हो कर ससुराल में आ गई थी और वह मिशन 

 स्कूल मे लेक्चरार थी। 

       दस साल बाद हम मिल रहे थे।मै अपने एक बहुत अधिक प्रियं, अजीज ,शुभचिंतक ,पारिवारिक मित्र शेखर दा के घर गई , शेखर दा मेरी प्रिय सखी के भाई थे , बहुत अच्छी कवि और लेखक थे , उनके गीत , उनकी रचनाएँ बहूत हृदयस्पर्शी होती थी ।

   उनके साथ दी को  लेने स्टेशन 

 पर खडी थी । जैसे ही ट्रेन गुजरी आवाज़ आई ‘ सुधा ,,,,’।आवाज आगे बढ गई।एक क्षण को 

मै काँप गई ।शेखर दा ने मेरा कंधा पकड़ कर सम्हाला। गाड़ी रुक गई 

हम दोनों डिब्बे तक पहुँचे।जैसे हम पास पहुँचे दी ने मुझे देखते ही रोना शुरू कर दिया । मेरी आँखे खुश्क थीं ।भावनाओं के उद्वेग ने जड़ कर दिया हो जैसे ।

  शेखर दा हम दोनों को अपने घर ले आये। बात चीत का दौर शुरू हुआ ही था कि अचानक ही जैसे मन का  उद्वेग पिघल कर बहने को आतुर हो चला ,  बहुत जोर से मेरी रुलाई फूटी।शेखर दा मेरे पास बैठे थे बोले’,” मुझे पता था यह होगा ।’बहुत स्नेह से शेखर दा मुझे सहारा देते रहे।दी ने पूछा ‘ तुम दोनों एक दूसरे को कब से जानते हो? वे बोले ‘मेरी कजिन इसकी बहुत अच्छी दोस्त  है। थोड़ा समय पहले ही मिले  हैं हम , जाने क्यो   लगता है बहुत  समय से जानते हैं एक दूसरे को ।



बहत दुुख होता है इसको देखकर , जिस तरह विपरीत परिस्थितियों में , विपरीत व्यक्तित्व के लोगों के 

साथ समायोजन कर रही है, मेरा मन बहुत भीग जाता है ,इसकी भावनाओं ने मेरे मन को छुआ है, पर मै कुछ नही कर सकता इस के लिये ।काश कुछ कर पाता ।”

           उनके स्नेह से फिर मेरी आँखे भीग गईं ।

       दी  कुछ दिन को ही मिलने आई थी , फिर हमेशा हमेशा के लिए जा रही थी ।मिशनरियों की बी, डी, ट्रेनिंग (बैचलर आफ डिविनिटी)के लिए चुन ली गई थी। जिसको कर के पादरी बन कर पता नहीं कहाँ जातीं ।

फिर शायद हम कभी नहीं मिल पाते।

         मै इसीलिए अपरिमित वेदना से गुजर रही थी।कोई भी नहीं था उनके सिवाय मेरा।इतने वर्षों बाद मुझे मिली थीं वे।अपने अस्तव्यस्त पारिवारिक जीवन से वैसे भी मै 

संतुष्ट नहीं चल रही थी। शेखर दा मेरे मन की भावनाओं को समझते थे।मै बहुत उदास बैठी थी तभी मेरे 



पास आकर बोले ‘ मै मोना से शादी कर लूँ तो  तू खुश होगी ।’ मै सिहर 

 गई ,जिस दृष्टि से मैने उन्हें देखा मेरा उत्तर उन्हें मिल गया था । 

             उस दिन से उन्होंने दी को

रोकने का मन बना  लिया । आखिर में दी का जाने वाला दिन आ गया ।मुझे अपने घर जाना था।शेखर दा  भी मेरे साथ जा रहे थे वहाँ उनकी बहन की शादी थी।दी कशमकश मे थी शेखर दा के प्रस्ताव को लेकर ।निकलने से थोड़ी देर पहले ही शेखर दा ने कहा ‘ कोई जल्दी नहीं है सोच लेना आराम से।” बोली ‘ नहीं, बाद में क्या 

 सोचूँगी ,यहाँ से तो फिर सीधे वहाँ ही जाना है,  फिर दुबारा लौटने का तो प्रश्न ही नही उठता ।” 

शेखर दा  ने एकदम कहा’ सुधि, मोना का सामान अपने बैग मे रख ।वह हमारे साथ चल रही है। ‘  

  दी चुप थी उन्होंने कोई प्रतिवाद नहीं किया । शेखर दा ने एक छल्ला दी की उँगली मे डाल दिया ।मुझसे बोले ‘ खुश ? अब हम दोनों हमेंशा खड़े  रहेंगे न तेरे साथ ।हम दोनों की जिम्मेदारी है अब तू और तेरी 

खुशी ।”

कहाँ तो मै दी के हमेशा के लिये छोड के जाने के अवसाद से गुजर रही थी और कहाँ यह आकस्मिक ,

अकल्पनीय  समाचार?

 और मैं?  मेरे दोनों अजीज रिश्ते

 एक हो कर मेरे साथ?

मेरी डूब रही नैया का सहारा बनने के लिए आ गये थे ।

 मेरी वह सुखद अनुभूति , अवर्णनीय , अद्भुत ,अविस्मरणीय  थी।

          

स्वरचित 

सुधा शर्मा

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