आत्मसम्मान, एक युद्ध औरत के लिए (भाग – 1 ) – स्मिता सिंह चौहान

आज फिर लेट हो गयी तुम। कहाँ थी? तुम्हारा ऑफिस अलग से चलता है क्या? और वो कौन था जो तुम्हें छोड़ने आया था वो भी घर के नीचे।” नीरज फिर से वही राग अलाप रहा था जो अक्सर सिया के लेट हो जाने पर अलापता था।

“तुम कब आये? जल्दी आ गये आज शायद। पूनम (कामवाली) ने खाने में क्या बनाया आज? इतना काम था आज की खाने की भी फुरसत नहीं मिली।” सिया ने बड़े ही कूल अंदाज में पूछा।

“बहुत बेशर्म हो जता तो ऐसा रही हो जैसे मेरी बात सुनाई ही नहीं दे रही हो।” नीरज चीखते हुए बोला।

“हमारे आस पास भी लोग रह रहे हैं अपनी आवाज़ कम करो। मेरे साथ खाना खाने के लिये तो रुके नहीं होगे। बहुत लेट हो गया है सो जाओ। मैं भी थकी हुई हूँ  सुबह बात करते हैं।” …कुछ सोचते हुए”…बात  भी क्या करते हैं?  एक बात बताओ तुम तो महीने में 28 दिन लेट आते हो  मैं तो शक नहीं करती। ऑफिस तो हमारे हिसाब से नहीं चलते ना।  ना तुम अपनी सोच बदल पाते हो ना मैं अपना जवाब। तो रोज बहस करके क्या फायदा।” सिया ने पानी का ग्लास भरते हुए कहा।

“सही बात है  जब किसी को शर्म ही ना हो तो क्या बात करनी। कुछ इज्जत की परवाह है कि नहीं  अपना नहीं तो मेरा ख्याल करो।” नीरज ने फिर सिया को खाना खाते हुए देखकर  टेबल पर हाथ मारते हुए कहा।

“तो क्या करू? नौकरी छोड़ दूँ। मुझे कोई दिक्कत नहीं है लेकिन क्या इससे तुम्हारी सोच या शक करने की आदत चली जायेगी। अब तुम ऑफिस जाओगे तो मैं पीछे से अकेली होंगी कही दूधवाले धोबी सब्जी वाले से मेरा अफेयर चल गया तो। क्योंकि तुम्हारी नजर में तो मुझमें एक ही टैलैंट है आदमियों को रिझाना। छोड़ो बात आगे बढ़ाकर क्या फायदा।” सिया के चेहरे पर इस शक के सफर की थकान साफ झलक रही थी।



“ये नौकरी छोड़ने की धमकी किसी और को देना। मेरे लिए नहीं कर रही हो।” नीरज चिल्लाता हुआ सिया के पीछे पीछे बैडरूम में चला गया।

सिया उसकी लगातार ऊंची आवाज सुनकर  अचानक चिल्ला कर बोलीं” हाँ  तुम्हारे लिये ही कर रही हूँ। मेरी जिंदगी बिना जाॅब के भी अच्छी चल रही थी। लेकिन नहीं तब तुमहे लगने लगा कि हम दोनों कमाये तो जिंदगी ज्यादा सहुलियत भरी हो सकती है। तुमने मुझे भेजा था जाब करने और आज तुमहे तकलीफ हो रही है। शुरूआत में तो कोई दिक्कत नहीं थी  क्योंकि तब मेरी कमाई

जुडने से तुम्हारे घर मे सुख सुविधाओं की चीजें जुड़ रही थी। रिश्तेदारों  परिवार के बीच तुम अपनी लगजरी लाईफ स्टाइल की डिंगे हांकते हो ना उसमें मेरा पैसा भी लगा है।”

“ओह  बात तो ऐसे कर रही हो  जैसे खुद इनजाय ही नहीं कर रही। अकेले रहता हूँ क्या मैं इस घर में? जो मैंने पाया है  वही तुमने भी पाया है। मुझसे ज्यादा तो तुम इनजाय कर रही हो घर पे भी घर के बाहर भी।”  नीरज झुझलाते हुए बोला।

“मैंने पाया है क्या? मैंने सिर्फ खोया हैं अपना सुकून अपनी हँसी कोल्हू के बैल की तरह दिन रात कंपनी परफॉर्मेंस के लिये अपना शरीर। यहां तक कि अपना बच्चा जिसे हमारे ये रोज रोज के कलेशो से तंग आकर अपने से दूर हासटिल  रहने भेज दिया। हां आज नौकरी करती हूँ क्योंकि तुम्हारी वकत नहीं है पीहू (बेटी) को वहां पढाने कि जहां वो पढ रही है। अरे जाओ…. अब तुमहे यह नहीं पचता कि अब मैं अपनी कमाई तुम्हारे हिसाब से क्यो नहीं खर्च करती? जब किसी आदमी को अपनी कमियां छुपानी होती है ना तो उसे औरत के चरित्र  पर कमी नजर आने लगती है। पीहू नहीं होती तो कब के छोड़ देती तुमहे।” सिया ने अपने दिल का गुबार निकालते हुए कहा।



“चल ये किस्सा आज ही खत्म करते हैं। मुझे धौस दिखाती है। मुझे नहीं पता क्या? कि कैसे तुझे प्रमोशन मिलते हैं। औरतों का तो कामयाब होना आदमियों से ज्यादा आसान है। आयी सती सावित्री बनने।” नीरज ने उसके चरित्र पर तौहमत लगाते हुए कहा ही था कि सिया ने उसके मुंह में एक जोर का तमाचा जड़ दिया।

“बस बहुत हुआ  तुम कहना चाहते हो कि मुझे जो कुछ भी हासिल हुआ वो मेरी मेहनत नहीं। छी घिन आ रही है मुझे अपनेआप से कि मैं तुम्हारे साथ रह रही हूँ  एक बिस्तर पर। मुझे इज्जत नहीं दे सकते थे  तो अपने बच्चे की माँ का आत्मसम्मान को तो नहीं रौंदते। तुम क्या मेरा किस्सा खत्म करोगे मैं ही तुमहे अपनी जिंदगी से आज बेदख़ल करती हूं।” कहते हुए सिया दूसरे कमरे में गुस्से से दरवाजा पटक कर बंद कर लेती हैं। कुछ देर तक नीरज दरवाजा पीटता है  और उसे गालियां देता है  लेकिन सिया जैसे एक शून्य में सामने लगे शीशे में अपनी छवि को ऐसे निहार रही थी मानो जैसें आज उसे एक गलत इंसान के साथ जीवन बिताने की सजा मिली हो। वो सोचने लगी  आज उसके हाथों में अपने आत्म सममान के सिवा बचा ही क्या है? क्या नीरज के गलत में वो भागीदार नहीं  क्योंकि उसने ही तो उसे यह छूट दी कि वो उसे जैसे चाहे वैसा ढाल सकता है क्योंकि वो संस्कारों  परम्पराओ  समाजिक खोखलेपन की सोच से बंधी एक औरत है। इन सोच और अपने अंदर चल रहे खुद से  एक युध्द के बीच कब उसकी आँख लग गयी पता ही नहीं चला।

क्या सिया  अपने खुद के साथ इस  युद्ध में जीत पायेंगी? क्या पीहू के भविष्य के साथ वह न्याय कर पायेगी? क्या सिया अपने लिए एक नया रास्ता बना पायेगी? यह सब जानने के लिए अगले अंक को अवश्य पढें।

 

आपकी दोस्त, 

स्मिता सिंह चौहान, 

गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश 

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