अस्तित्व की तलाश …(भाग 2) – लतिका श्रीवास्तव 

..क्या नौकरी लग गई तुम्हाई तुम्ही बता दो मुझे नही पढ़ना तुम्हारा ये बकवास नियुक्ति पत्र… अवाक और कुछ नाराज पिता के पूछने पर मानस ने जैसे ही शिक्षक की नौकरी मिलने की बात  बताई राघव जी तो आगबबूला ही हो गए …शिक्षक की नौकरी करोगे अब  !! इतनी वर्षो की हमारी जमी जमाई इज्जत को मटियामेट करोगे!!अभी अगले महीने चुनाव होने वाले है इस बार हमारा मंत्री पद पक्का है ….हम जो नौकरी बता रहे है ये जनरल मैनेजर वाली यही करनी है तुमको …देख लिया तुम्हारी काबिलियत … एक मास्टर ही बनने की है…..अपने पिता के दम से ही तुम्हारी शान शौकत है समझे …

…….सावित्री ले जाओ इसे यहां से ….अपने शानदार सुसज्जित कक्ष में बैठा रहता है तो बाहरी दुनिया की टेढ़ी मेढ़ी संकरी गलियों का एहसास नहीं है इसे …एक बार घर से बाहर निकलेगा  तो जिंदगी जीना असंभव हो जायेगा… हुंह …!पिता ना करे तुम्हारे लिए तो तुम कहीं के नहीं रहोगे …समझ ही नहीं पा रहा है…कल सुबह चलना हमारे साथ ज्वाइन करने। सवितरी…समझा दो अपने लाडले को….पिता की छत्र छाया के बिना इसका कोई अस्तित्व नहीं है ….ये बात जितनी जल्दी इसके भेजे में चली जाए बेहतर है…..उफनते हुए राघव राम गाड़ी में बैठ कर चले गए थे।

दूसरे दिन….सुबह से घर में हंगामा बरपा था  मानस रातों रात घर छोड़कर चला गया था…कहां गया किसी को नहीं पता!!

राघव राम सिर धुन रहे थे और सावित्री अपने बेटे के दिल को ना समझ पाने के दुख में पछता रही थी।

सावित्री की तो जैसे नींद ही उड़ गई थी जब से मानस खामोशी से घर छोड़ कर गया था….पति के प्रभाव को बनाए रखने के लिए अब तक हमेशा पति के ही वर्चस्व को बेटे पर थोपने की कोशिशों में बड़े होते पुत्र के स्वतंत्र अस्तित्व को भी नकारते चले जाने का अफसोस आज उसे डंक मारने लगा था।

सावित्री भी क्या करे…!!उसकी जिंदगी में उसके पति का ही अस्तित्व मायने रखता रहा है….




छोटी थी तब स्कूल जाने की जिद करती थी …भाई सोमन छोटा था पर अकड़बाज पिता के सारे गुण उसे विरासत में ही मिले थे…पांच साल बड़ी सावित्री का स्कूल जाना छोटे भाई के बड़े होने का इंतजार करता रहा था और जब उसका भाई चार साल का हुआ तब उसके संरक्षण में नौ वर्ष की सावित्री ने स्कूल जाना शुरू किया….पढ़ाई लिखाई उसके लिए उस स्वप्न की भांति थी जो आंख खुलते ही अपना अस्तित्व खो देता है..।

वही हुआ …!,गजब की सुंदर सावित्री का स्कूल आना जाना  केवल उसी मोहल्ले नहीं आस पास के मोहल्लों के  शोहदों को नैन सुख देने लगा था….छोटे भाई को बहला फुसला कर सावित्री के नजदीक आने की उनकी नित नई पुरजोर  कोशिशें परंपरावादी  पिता के कन्या के पिता होने के बुजदिल एहसास से जा टकराई …..तत्काल स्कूल छुड़वाने का तानाशाही हुकुम अबोध निरपराध सावित्री के स्वयं के अस्तित्व निर्माण की प्रक्रिया को पैरों तले कुचलता चला गया …..कितना बिलख बिलख कर रोई थी सावित्री उस दिन…..अपनी मूक गाय सी मां से लिपट गई थी …..

….. मां मुझे स्कूल जाने दो ..मुझे पढ़ना है मां…मैं सुंदर हूं इसमें मेरी क्या गलती है गलती तो उन गलत नजर से देखने वालों की है फिर…उन्हें दंडित करने के बजाय दंड मुझे दिया जा रहा है मां तुम कुछ कहो ना…..!अनपढ़ मां का सारा संसार  आंख कान बंद करके पति परमेश्वर की हर आज्ञा के पालन में ही समाहित था….बेटी पढ़ लिखकर क्या करेगी ….अच्छे घर में शादी हो जाना ही उसकी सुंदरता का सही मूल्य है…..आखिर में तो वही चूल्हा चौका ही करना है क्या करेगी पढ़ कर …. मां की ये घिसी पिटी समझाइश और सलाह ने ही सावित्री का जीवन दर्शन बदल दिया था ….परिवार में अपना बेदाग अस्तित्व बनाए रखने की पिता की कोशिश में घरेलू कार्यों में दक्षता करवाकर जल्द ही अपनी बेटी की शादी एक बहुत संपन्न परिवार में उसकी दिव्य सुंदरता के कारण कर दिया गया था।




तब से लेकर आज तक पति  की सेवा पति की आज्ञापलन ही मेरी नियति है…इसी से मेरा अस्तित्व है मानती आ रही है सावित्री….पति राघवराम की जिंदगी भी इतनी सुंदर आज्ञाकारी सेवारत पत्नी के आने से बहुत सुखमय हो गई थी  उसका मनमाना रौब घर बाहर दोनों जगह कायम था…..बेटे मानस की पैदाइश के बाद भी सावित्री पति के मन के अनुसार ही चलती रही….बचपन में भी मानस की हर उपलब्धि का श्रेय मुक्त कंठ से अपने पति को देकर पुत्र के स्वतंत्र अस्तित्व को सिकोड़ती रही….आज रह रह कर मानस का बचपन से लेकर बड़े होने तक खुद के अस्तित्व के लिए अपने पिता से ही होने वाला संघर्ष उसकी आंखों के समक्ष जीवंत हो उठा था और उसे व्याकुल कर रहा था

आज तक पति के सामने अपने पुत्र के समर्थन में  एक भी शब्द ना बोल पाने की कसमसाहट पिता के विशाल असीमित अस्तित्व के सामने स्वयं के ही नहीं अपने बेटे के भी आकार लेते अस्तित्व पर कुठाराघात करने की दुसह यंत्रणा बेटे के आकस्मिक वियोग में बलवती हो उठी थी।

राघव राम जी तो अपनी राजनीति की ही दुनिया में मगन रहते हैं बेटे के अप्रत्याशित घर छोड़ने से अपनी होने वाली छीछालेदर को येन केन प्रकारेंन्न रफा दफा करके अपने आपको पाक साफ साबित करने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी थी …दिखावे रुतबे लल्लो चप्पो का .ऐसा चक्रव्यूह अपने इर्द गिर्द बना रखा था उन्होंने जिसमे सिर्फ वो खुद और उनका अहम रहता था।बेटे का खामोश पलायन उन्हें तहस नहस तो कर देता था परंतु मन के भीतर कहीं उनका दृढ़ विश्वास था कि पिता के आभामंडल से दूर होकर पुत्र के लिए जीवन असंभव हो रहा होगा और वो किसी भी दिन पश्चाताप करता हुआ अपने पिता से माफी मांगने आयेगा ही…..बस उसी दिन के इंतजार में उनके चेहरे पर वही दर्प पूर्ण हंसी आ जाती थी…




सावित्री से उनकी अब बहुत कम बोल चाल होती थी…. उस दिन जो खीर बनी थी तब से अभी तक सावित्री ने घर में खीर ही नही बनाई थी ..आज राघव राम जी सोच कर ही आए थे पत्नी से खीर बनवा कर ही रहेंगे …”सवितरी बहुत दिन हुए खीर खाए आज वही मेवे वाली खीर बनाओ साथ बैठ कर खायेंगे….घर आते ही उन्होंने अपनी आज्ञा सुना दी थी….।

पर अचानक आज आज्ञाकारी पत्नी वाली सावित्री में अपने पुत्र के प्रति किया गया अन्याय उबल आया था और वो एक आक्रोशित मां बन गई थी…”नहीं अब तो घर में खीर तभी बनेगी जब मेरा बेटा मानस अपने घर वापिस आएगा उसे मैं बिठा कर अपने हाथों से मेवे वाली खीर खिलाऊंगी….”जिंदगी में पहली बार विद्रोहिणी पत्नी के स्वर ने राघव राम को सहमा दिया था ….निरूपाय से रह गए थे सावित्री का तर्क सुनकर।

….अरे वो तो आता ही होगा बाहर की ठोकरें खाकर अकल आ ही गई होगी …पिता के बिना उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है …ठीक है तभी खीर खायेंगे….फिर वही दंभ और दर्प पूर्ण हंसी सावित्री को अपने बेटे के पास ले गई थी…. हे प्रभु मेरा बेटा जहां भी हो रक्षा करना …..अपने अस्तित्व को सही पहचान दे सके ऐसी ही कृपा करना….!

आज जिंदगी में पहली बार पति की इच्छा के विरुद्ध आवाज उठाती सावित्री मानो पुत्र के अस्तित्व के साथ खुद अपना अस्तित्व भी ढूंढने निकल पड़ी थी….!

लतिका श्रीवास्तव

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