आर्ट – मीनाक्षी सौरभ  

“यार, तुम ना पराँठे कितने करारे कर देती हो। जल्दीबाज़ी बहुत करती हो, गैस को तेज़ मत रखा करो। मीडियम पर सिकते हैं पराँठे और पकौड़े तो।” नीरजा कुछ न बोली बस चुपचाप गैस की ऑंच मीडियम कर दी।

“सब्ज़ियों में तड़का मारो, तब मसालों की ख़ुशबू आएगी और हाँ, मसालों को थोड़ी देर तेल में रहने दिया करो, तुरंत सब्ज़ियॉं मत डाला करो।”

“जब भी पुलाव बनाओ तो उसे चमचे से खोंसा मत करो। काहे की जल्दी में रहती हो भई तुम।” ये कुछ ऐसे डायलॉग्स हैं जो शायद हर उस घर में सुनाई देते होंगे जहॉं पर मर्द को खाना बनाना आता होगा।

अब नीरजा विनोद को कैसे समझाएँ कि घर में कुल मिलाकर सात लोग हैं और अगर वो एक पराँठे पर 5-7 मिनट लगाएगी तो घरवाले उसे खा जाएँगे। विनोद अच्छा खाना बनाता है पर बनाता कितना है…. दो पकौड़े, एकाध पराँठे , कभी-कभार चाय और कभी बनती हुई सब्ज़ी में आकर चम्मच हिला जाना… बस। पर नुक़्स निकालना तो आदत सी हो गई है।

पिछली बार जब नीरजा की ननद आयी थी तो भाई की तारीफ़ करके बोली, “कुछ भी कहो भैया के हाथों में जो स्वाद है वो भाभी के हाथ में नहीं।”

“अरे! खाना बनाना एक आर्ट है और नीरू तो बस उसे काम समझ कर पूरा करती है। जब तक हम खाना बनाने को काम समझेंगे, तब तक उसमें वो स्वाद सामने वाला कभी महसूस नहीं कर पाएगा।” विनोद गर्व से ख़ुश होकर बोला।

“ऐसी बात नहीं है, खाने को बनने में जितना वक़्त लगता है मैं उतना वक़्त देती हूँ विनोद और जिस तरह की डेकोरेशन चाहिए वो भी करती हूँ। रही बात आपके अनुसार समय की तो वो पॉसिबल नहीं है। अगर मैं एक पराँठे के लिए इतना टाइम देने लगी तो बच्चे भूखे रह जाएंगे। तुम तो बिना सोचे समझे जो हाथ लगता है वो सब डाल देते हो….पर मुझे तो सबकी हेल्थ भी देखनी पड़ती है और घर का बजट भी।” लेकिन उसकी भीगती आवाज़ किसी को सुनाई नहीं पड़ी।

“सुनो, शाम को कुछ दोस्त डिनर पर आ रहे हैं तो कुछ अच्छा और सुन्दर बनाने की कोशिश करना।”



नीरजा ने पूरे मन से ढेर सारी तैयारियाँ करीं। काफ़ी कुछ बनाया। स्टार्टर, मेन कोर्स और डेजर्ट …सब कुछ तैयार था। सब कुछ बहुत अच्छा और टेस्टी लग रहा था। बस विनोद का अप्रूवल बाक़ी था।

“सुन, नीरू ने सारी तैयारियॉं कर ली हैं, पूरे दिन से लगी हुई थी।”

“तो क्या हुआ? काम है उसका और फिर मैंने भी तो उसको टाइम से पहले ही बता दिया था ना तो प्रीपेयर तो होना ही था।”

“हॉं, पर तू तारीफ़ ही करना उसकी….”

मॉं की बात को अनसुना करता हुआ विनोद किचन में पहुँचा। बहुत अच्छी ख़ुशबू आ रही थी पर विनोद ने कहा, “ ये मंचूरियन की ग्रेवी इतनी पतली क्यों बना दी। मंचूरियन बनाया है तो फिर कोफ्ते क्यूँ बनाए साथ में और कम से कम हरा धनिया तो डाल देतीं। अगर खाना देखने में अच्छा नहीं लगेगा तो खाने में भी मज़ा नहीं आएगा। पर तुम तो….कम से कम मुझसे मेन्यू डिस्कस ही कर लेती।”

“विनोद, जब तक वो लोग आएँगे, मंचूरियन की ग्रेवी गाढ़ी हो जाएगी इसलिए पतली रखी और ये कोफ्ते मेन कोर्स के लिए है ग्रेवी बना रखी है, बाद में उसमें डालूँगी। हरा धनिया भी काट के रखा है अभी से डाल दूँगी तो काला हो जाएगा। और देखो ना, मैंने डेज़र्ट में….”

“रुको नीरू….” मम्मी जी ने बीच में आकर बोला। “कोई ज़रूरत नहीं है इसको सफ़ाई देने की। विनोद, अगर तुझे ये खाना अच्छा नहीं लग रहा, सुंदर नहीं दिख रहा है तो तू उनके लिए या तो बाहर से ऑर्डर कर दें या फिर ख़ुद बना ले। ये खाना हम खा लेंगे।”

ख़ैर! ऐसा तो होना नहीं था। मेहमानों को नीरजा के हाथ का बनाया हुआ खाना बहुत पसंद आया। दिल खोलकर तारीफ़ भी करी। तारीफ़ होनी भी थी क्योंकि खाना तो नीरजा अच्छा ही बनाती थी, बस विनोद को ऐसा नहीं लगता था।



अगले दिन सन्डे था तो मम्मी जी ने विनोद को किचन की ज़िम्मेदारी दे दी। उनका कहना था कि विनोद पहले एक दिन उस सो कोल्ड आर्ट को करके दिखाए, जिसके बारे में वो हर दिन नीरू के पीछे पड़ा रहता है। अब सन्डे को तो विनोद सोकर लेट उठता है तो आठ बजे तक विनोद उठा। मम्मी जी-पापा जी की सुबह की चाय स्किप हुई।

किसी तरह विनोद ने साढ़े आठ तक चाय चढ़ाई पर भूल ही गया कि पापा जी चाय में चीनी नहीं लेते। बच्चों को नीरजा दूध में तुलसी और अदरक उबाल कर देती है पर विनोद ने सादा दूध पकड़ाया। अब बारी आई नाश्ते की जो ब्रेड बटर से पूरी हुई।

दोपहर में बच्चों ने फ़रमाइश की कि पापा आज आप खाना बना रहे हो तो हमें मिक्स वेज पकौड़ा ही चाहिए। हमेशा जब विनोद कुछ बनाने किचन में आता तो नीरजा एक सहयोगी की तरह सब कुछ रेडी रखती। उसे सिर्फ़ आकर मेकिंग करना होता पर आज तो मेकिंग से पहले कटिंग भी करना था। सब्ज़ियों की कटिंग को लेकर हमेशा नीरजा पर छींटाकशी करने वाला आज ख़ुद आलू प्याज़ की मोटाई को नज़रअंदाज़ कर रहा था। जो नीरजा से हरी मिर्च कटवाने के बजाय कुटवाता था, आज उसी ने हाथ से ही उसके तीन-चार टुकड़े करके डाल दी है । अदरक लहसुन की स्मॉल चॉपिंग के लिए उसने नीरजा की जान खा रखी थी, आज सब कुछ भूल-भाल कर बस मोटे मोटे टुकड़े डाल रहा था।

“अरे अरे..!!! ये क्या कर रहा है विनोद, तू तो अपनी ही आर्ट भूल गया। तूने ही बताया था कि पकौड़ों को मीडियम पर तलते हैं और सब्ज़ियाँ भी बहुत मोटी-मोटी काटी है तूने तो। प्लेटफ़ॉर्म भी कितना गंदा कर रखा है, तुझे तो गंदा पसंद ही नहीं था और क्या तू आज सेल्फ़ी नहीं लेगा अपनी आर्ट के साथ।”

“नहीं मम्मी, कहॉं इतना टाइम है कि सेल्फ़ी भी लूँ और ये सब भी करूँ। प्लेटफ़ॉर्म पड़ा रहने दें, एक साथ ही साफ़ कर लूँगा। सब्जियॉं कैसी भी कटी हो, स्वाद तो सेम ही रहेगा। बच्चे इतनी जल्दी मचा रहे हैं कि ये सब फ़ालतूगिरी करने का टाइम कहॉं…..”

बोलते बोलते रुक गया। उसे नीरजा की कही हर एक बात याद आ गई। उसे समझ आ गया था कि नीरजा उसे क्या समझाना चाहती थी।

“मेरी ज्ञानी माता जी और अन्नपूर्णा पत्नीजी, मैंने अपनी भूल मान ली। समझ गया कि मैं इसको दिमाग़ के आर्ट से जोड़ रहा था और तुम दिल की भावनाओं से खाना बना रही थी। मुझे माफ़ कर दो और अपना किचन सँभालो। आज के बाद तुम्हारे डिपार्टमेंट में मैं इंटरफ़ेयर नहीं करूँगा, ये मेरा वादा।” विनोद ने हाथ जोड़ लिए।

“पापा, क्या आज पकौड़े मिलेंगे या बाहर से ऑर्डर करें ।” सोनू की बात से सब खिलखिला उठे।

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