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अपवाद – अमित किशोर

    कॉलेज के दिन जब भी याद आते हैं, लगता है, काश, उन दिनों को एक बार फिर से जीने का मौका मिल जाता। पर ये भी जानता हूं, कि पुल के नीचे से पानी गुजर जाने के बाद किनारे खड़े होकर बस उसे देखते रहने का ही विकल्प बचता है। आज एक कॉलेज के पुराने दोस्त के साथ फोन पर कई सालों बाद जब बातें हुई, तो कॉलेज मेरे मन में फिर से जिंदा हो गया और एक नाम ने अचानक से  मेरे मन में दस्तक दी। नाम था आशुतोष।

                        साल था वही, जिस साल “मोहब्बतें” रिलीज हुई थी पर हर नौजवान अपने आप को इश्क़ का पैगंबर समझ रहा था। एक ही गाना कॉलेज के हॉस्टल रूम में बजता रहता चाहे दिन हो या रात। “आंखें खुली हो या हो बंद… दीदार उनका होता है…. कैसे कहूं मैं ओ यारा…. ये प्यार कैसे होता है “। बस इसी सहारे हमारे हॉस्टल में भी प्यार का ककहड़ा पढ़ा जा रहा था। एक बहुत ही करीबी दोस्त था आशुतोष जिसे इन सबमें कोई रुचि नहीं थी। बस यही कहता, ” जो सिनेमा देखता है, वही बर्बाद होता है। पढ़ाई लिखाई के लिए मां बाप ने कॉलेज भेजा है। हॉस्टल का खर्च उठा रहे हैं, और एक आपलोग भाईसाहब !!! गाना सुनकर जिंदगी बनाने के बारे में भी सोच रहे हैं।” बहुत यथार्थवादी बातें करता। शायद, इसीलिए वो सबसे अलग था हमारे कुनबे में।

                     और वाकई, वो सबसे अलग ही था, आशुतोष। यथार्थ आदर्शों वाली बातें एक तरह, और आशुतोष की सच्चाई एक तरफ। कॉलेज लाइफ में एक विद्यार्थी जितनी बुराई पाल सकता था, जितना संभव और वो सक्षम हो सकता था, उन सबमें आशुतोष हरफनमौला था। हॉस्टल के अकेले कमरे में रहता, किसी के साथ न रूम शेयर करता और न रिलेशन लेकिन रहता पूरे रुआब में। अब ये पता नहीं आज भी मुझे, पर, सुना था उसके बारे में कि उसके परम पूज्य पिताजी कॉलेज के फाउंडिंग मेंबर्स में से था या कोई ट्रस्टी थे। खैर, इस बारे में न आशुतोष ने किसी से बात की और न ही किसी ने उससे पूछने की हिम्मत ही की। हां, आए दिन उसकी शिकायतें मैनेजमेंट एडमिनिस्ट्रेशन तक जरूर जाती पर कॉलेज प्रशासन का  रवैया ये बताने के लिए काफी था कि वो कुछ खास था जिसके कारण सभी उसे अनदेखा करके चल रहे थें। पुरे कॉलेज के लिए आशुतोष “अपवाद” था।




                         जब कॉलेज में हमारे बैच का आखरी दिन चल रहे थें तब एक वाक्या हुआ। फेयरवेल इवेंट में उसने बहुत शराब पी रखी थी और इतनी कि उसे होश ही नहीं रहा। नशे में ही उसने बेवजह डीन  को थप्पड़ मारा और बदतमीजी भी की। हो हंगामा बहुत हुआ पर नतीजा वही निकला। जहां से चले थे सब वहीं पहुंच गए। मैनेजमेंट के तरफ से उसे कुछ भी नहीं कहा गया। इस बार भी उसे “अपवाद”  मान लिया गया।  कॉलेज खत्म हो गया और हम सब अपने अपने रास्ते जिंदगी में आगे बढ़ गए। पर ये राज , राज ही रहा कि आशुतोष “अपवाद” क्यों था !!!

                  आज कई सालों बाद जब पुराने दोस्त का फोन आया और कॉलेज लाइफ , पुरानी यादों पर चर्चाएं हुई तो बहुत कुछ याद आया। लगा जैसे, जिंदगी बढ़ाने की आपा धापी में पुराने दोस्त और पुरानी यादें कहीं खो गई हैं। वैसे उस पुराने दोस्त ने , आज भी बहुत सारी यथार्थवादी बातें , आदर्शवादी बातें ही की आज इतने सालों के बाद भी।

           आशुतोष आज भी नहीं बदला था थोड़ा भी  ………

स्वरचित मौलिक एवं अप्रकाशित

अमित किशोर

धनबाद (झारखंड)

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