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अपरिभाषित प्रेम सीमा वर्णिका 

आज आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे ..अश्रुओं की अविरल धारा ने अतीत पर जमी धूल को हटाकर जैसे  अनावृत कर दिया हो । सब कुछ चलचित्र भांति आँखों के समक्ष घूम रहा है। वह मेरी मित्र थी..या कोई रूहानी  सम्बन्ध था उससे ..आज तक मन समझ न पाया ।

‘सिद्धि ‘-हाँ यही नाम था उसका ..जब पहली बार मैंने उसे देखा था …अजब सी कशिश..बोलती हुई आँखें ..स्नेहिल नजरें ..मिश्री सी मधुर मुस्कान ..मैं सहज ही उसके आकर्षण में कैद होता चला गया । हालांकि उसमें मुझमें उम्र का बड़ा फासला था । शायद तभी मैं कभी अपनी भावनाओं को प्रकट नहीं कर सका मन में एक अपराध बोध सा होता था। लोग क्या कहेंगे ..सिद्धि क्या सोचेगी ..क्या करें दिल पर भी तो कोई जोर नहीं ..कब कौन अच्छा लगने लगे ..ईश्वर जाने  ।

 रोज उससे बातें करना..उसे देखना ..उसकी पसंद नापसंद छोटी छोटी बातों पर ध्यान आकृष्ट होने लगा था ..खुद भी हम पहले से ज्यादा अपने पहनावे अपने तौर तरीकों पर ध्यान देने लगे.. अंदर से अजीब सी खुशी होने लगी थी  । मन यह जानता था कि हमारा मिलन क्षितिज की उस रेखा समान है जो बस मिलती प्रतीत होती मिलती नहीं है ।

मैं भावनाओं के सागर में गोते लगाते लगाते उसे हृदय के बहुत करीब ले आया था  ।उसके प्रति मेरी आत्मीयता ..मेरा स्नेह गहराई लेता जा रहा था  ।उसकी आँख में आँसू ..उसके चेहरे की एक शिकन..मेरे हृदय को तार तार कर देती थी मैं स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पाता था । मैं अपने भावनाओं को स्वयं परिभाषित करते करते थक गया था ..यह कैसा प्रेम था जो बढ़ता ही जाता था..थमने का नाम ही नहीं ले रहा था ।



वक्त करवट बदल रहा था.. एक दिन ऐसा आ गया सिद्धि ..मुझे मेरी दुनिया में अकेला छोड़ कर अपने ससुराल चली गयी ..कितना टूट गया था मैं ..मेरा अस्तित्व मुझसे प्रश्न करने लगा था ..मेरा अपना कल्पनालोक  जलकर राख हो गया था ।जीवन में सूनापन भर गया । उस रोज मैं फूट-फूट कर बच्चों की तरह रोया था ।

बड़ी जद्दोजहद के बाद अपने को सम्भाल सका  ।सोचता था क्या सिद्धि को मेरा कभी ख्याल आता होगा ..उसकी नजरों में प्रेम था ..या धोखा ..नहीं ..नहीं  उसकी नजरें मुझे मेरी भावनाओं को छल नही सकती …उसकी आँखों में मैंने आदर आसक्ति का स्पष्ट भाव देखा था .. प्रेम की परिणति विवाह या मिलन ही तो नहीं ..प्रेम तो आत्मा की गहराई से किया जाता है फिर सांसारिक रस्मों का क्या अस्तित्व ..। कुछ भी हो..मेरे मन के संसार में तुम ..सिद्धि ..तुम ही आज भी बसती हो ..आज भी तुम्हारी मुस्कानों से मेरा मन गुँजित होता है ..जब भी आँखें बन्द करता हूँ तुम आ जाती हो ..मैं अपने इस संसार में अपने को दुनिया का सबसे खुशकिस्मत इँसान मानता हूँ ।

  विचारों की श्रंखला टूट गयी थी ..यह कैसा तुषारापात  हुआ मेरे हृदय पर…मेरे संसार पर ..हे ! ईश्वर मैंने तो तुमसे कुछ भी नहीं चाहा था ..बस उसको खुश देखकर  ही जीवित था ….यह तुमने क्या किया ..सिद्धि हम सबको छोड़कर हमेशा के लिए चली गई.. विश्वास नहीं होता… विश्वास हो तो कैसे.. अभी दो दिन से मैं तेज बुखार में पड़ा था । कोई नहीं था पानी देने वाला.. तभी  सिद्धि आई थी.. वही चिर परिचित मुस्कान.. आँखों में शरारत का भाव.. लेकिन मुझे देखकर दुखी हो उठी थी। उसे मेरे एकाकी जीवन पर शायद तरस आ रहा था । उसने मेरे माथे पर ठंडे पानी की पट्टियां रखी दवाइयाँ लाकर खिलाई । उसका शीतल स्नेह स्पर्श पाकर मेरे बुखार से तपते शरीर को काफी राहत मिल गई थी । मैं अजलस्त हो चुका था शीघ्र ही निद्रा के आगोश में चला गया । जब मैं सोकर उठा स्वयं को स्वस्थ महसूस कर रहा था । सामने अखबार पड़ा था.. सोचा.. आज के समाचार देख लें पन्ना पलटते ही एक समाचार पर नजर टिक गई गई ..आँखों के आगे अँधेरा छा गया .. धड़कन थम गई.. मन चीत्कार कर उठा । क्या ! कल रात एक सड़क दुर्घटना में सिद्धि अपने भरे पूरे परिवार को छोड़ स्वर्ग सिधार गई ।

मैं सदमे में था । मैं सोच में पड़ गया था।  कल रात सिद्धि का एक्सीडेंट हुआ और वह काल के मुँह में समा गई तो ..फिर वह कौन थी.. जो रात भर मेरे पास मेरे साथ रही.. क्या उसकी आत्मा मुझसे मिलने आई थी.. उसने मेरी सेवा कर कौन सा ऋण चुकाया था । मैं प्रश्नों के चक्रव्यूह में फँसता जा रहा था.. अब कोई नहीं था जो मुझे इस से बाहर निकालता ।

सीमा वर्णिका 

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